डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
ट्यूबलाइट मजेदार फिल्म है। आप इसे सपरिवार देख सकते हैं। 100-200 रुपए खर्च करके जब आप सिनेमाघर से बाहर निकलेंगे, तब आपमें सकारात्मकता का भाव होगा। आजकल की फिल्मों में यही तो नहीं होता। अपराधियों, तस्करों, गुण्डों, नेताओं, आवारा युवाओं पर फिल्में बनती हैं और समीक्षक बहुत सितारे बांटते हैं, लेकिन दर्शक को कुछ याद नहीं रहता। खलीज टाइम्स, गल्फ न्यूज और टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबारों ने इस फिल्म को इमोशन का ओवरडोज बताते हुए 2-3 स्टार ही दिए हैं। अंग्रेजी फिल्म समीक्षकों को फिल्म के क्रॉफ्ट से ज्यादा मतलब होता है, उसकी कहानी और इमोशन से नहीं। इसलिए अगर वे इसे दोयम फिल्म कहें, तो मान लीजिए कि यह फिल्म शानदार है।
1965 में आर.के. नारायण के उपन्यास दि गाइड पर देवानन्द ने गाइड बनाई थी, ट्यूबलाइट की थीम भी कुछ वैसी ही है। अंतर यह है कि गाइड में 10 शानदार यादगार गाने थे और वह एक रोमांटिक फिल्म थी। इस फिल्म में रोमांस है ही नहीं। सलमान खान ही इस फिल्म के हीरो और हीरोइन हैं और असली हीरो अगर कोई है, तो इसकी कहानी। मनोरंजक तरीके से यह फिल्म दर्शक को 1962 के दौर में ले जाती है। सलमान खान की ओवर एक्टिंग और निर्देशन की छोटी-मोटी गलतियां नजरअंदाज कर दें, तो यह फिल्म अवश्य देखनीय है।
एक छोटी कहानी आपने भी प़ढ़ी होगी कि सूखे से पीड़ित गांव के लोगों को पादरी चर्च में बुलाता है, ताकि प्रभु से प्रार्थना की जाए कि वह बरसात कराए। पूरा गांव उस चर्च में बारिश की दुआ करने पहुंचता है, लेकिन केवल एक ही बच्चा है, जो चर्च में छाता लेकर जाता है। बच्चे को यकीन रहता है कि प्रार्थना के बाद बारिश हो जाएगी, तो उसे घर तक आने के लिए छाते की जरूरत महसूस होगी। प्रार्थना करने वाले पादरी को भी यह यकीन नहीं रहता कि प्रेयर के बाद प्रभु बारिश करा सकता है, लेकिन उस बच्चे का विश्वास अडिग रहता है। सच भी है कि जीवन में कई बार हमारा विश्वास हमें वहां पहुंचा देता है, जहां पहुंचने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शायद इसीलिए कबीर खान ने ट्यूबलाइट की शुरुआत में स्कूल में गांधीजी को दिखाया, जो कहते है कि अगर यकीन हो, तो सबकुछ संभव है। गांधीजी के अनमोल वचनों पर हीरो चलता है और विश्वास करता है कि बापू ने जो भी कहा सच ही कहा। आज भी भारत के हजारों घरों में ड्राइंग रूम में गांधीजी की तस्वीरें लगी है, क्योंकि लोग गांधीजी के विचारों पर यकीन करते हैं। कबीर खान ने गांधीजी के अनमोल विचारों को बहुत सरल तरीके से समझाने की कोशिश की।
फिल्म की पार्श्वभूमि 1962 का भारत-चीन युद्ध है। फिल्म को मनोरंजक बनाने के लिए एक से बढ़कर एक कॉमेडी सीन्स क्रिएट किए गए हैं। रामायण से प्रेरित हीरो का नाम लक्ष्मण रखा गया है, लेकिन राम नहीं है बल्कि लक्ष्मण के छोटे भाई का नाम भरत है। लक्ष्मण और भरत के पिता को शराब लील जाती है और कुमाऊं के जनकपुर गांव में रहने वाले दोनों अनाथ बच्चों की परवरिश स्कूल मास्टर के सौजन्य से होती है। बड़े भाई लक्ष्मण उर्फ कप्तान उर्फ सलमान खान को गांव के लोग ट्यूबलाइट कहते है, जो देर से जलती है।
कुटिलता से दूर रहने वाले व्यक्ति को आज भी समाज से बाहर का व्यक्ति ही माना जाता है और लोग उसे मंदबुद्धि भी कहते हैं। यही मंदबुद्धि फिल्म में चमत्कार दिखाता है या कुछ ऐसा करता है, जिससे लोग उस पर या तो हंसते है या प्रभावित हो जाते हैं। आधा दर्जन प्रसंग ऐसे है, जब सलमान खान के पेंट की जिप खुली रहती है और लोगों के कहने पर वह जिप बंद करता है। सलमान खान ने जिस तरह की एक्टिंग की है, उसमें वे सचमुच के ट्यूबलाइट लगे भी है। शाहरुख खान ने इस फिल्म में विशेष भूमिका निभाई है, पर छोटी से भूमिका में वे प्रभावित कर जाते हैं। ओम पुरी ने इस फिल्म में स्कूल टीचर की भूमिका निभाई है। फिल्म में उन्हें श्रद्धाजंलि दी गई है। सलमान खान की यह फिल्म भारतीय सेना के जवानों को समर्पित हैं, जो खुद सीमा पर दुश्मन से तो लड़ते ही हैं, अपने भीतर भी उन्हें एक लड़ाई लड़नी होती है।
जान-बूझकर इस फिल्म का बैकड्रॉप पाकिस्तान युद्ध नहीं रखा गया है। भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में शायद निर्माता-निर्देशक यह भी बताना चाहता है कि किस तरह जवाहर लाल नेहरू की नीतियों के कारण भारत और चीन के युद्ध में भारत को नुकसान उठाना पड़ा। फिल्म में कही भी नेहरू का नाम नहीं है, लेकिन साफ है कि निशाना नेहरू और हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे की तरफ है। निर्देशन की कमी वहां साफ नजर आती है, जब गांव का स्कूल मास्टर कहता है कि दिल्ली में बैठने वाला कुमाऊं का विधायक कहता है कि.......। कुमाऊं क्षेत्र का विधायक दिल्ली में कब से बैठने लगा?
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