प्रकाश भटनागर।
जब भोपाल में नया-नया आया था, मामला तब का है। मुझे तेज सरदी हो गयी। किसी की सलाह पर एक सरकारी डाक्टर के पास गया। उन्होंने इतनी दवाएं लिख डालीं कि उनकी कलम, परचा और मेरा बटुआ, तीनों हांफ गये।
कैमिस्ट ने मुझ पर बेचारगी भरी नजर डाली और फिर मुस्कुराते हुए दवाओं के पैकेट बनाने लग गया। मैंने इतनी दवाओं का राज पूछा। वह बोला, 'सब खा लेना, हो सकता है कि इनमें से एकाध वाकई सरदी पर असर कर जाएं।'
मैं फिर कभी उस डॉक्टर के पास नहीं गया। किंतु आज ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर की बीमारी का इलाज बताते देख उन डाकसाब की याद ताजा हो गयी।
गौर से सुनिये, जो सिंधिया ने भोपाल में पत्रकारों से कहा, पार्टी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसा हो, जो ऊजार्वान हो और सबको खासतौर से देश के पार्टी कार्यकर्ता को साथ लेकर चल सके।
नये अध्यक्ष को श्री राहुल गांधी के बताए मार्ग पर भी चलना चाहिए। इस समय कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए सभी लोगों को एकसाथ कार्य करने की आवश्यकता है।
कांग्रेस की बीमारी की क्या गजब दवाईयां है? क्या घालमेल है यह ! राहुल भी तो ऊर्जा से भरे हुए थे। चुनावी सभाओं में 'चौकीदार चोर है' चीखते समय उनके भीतर की ताकत देखते ही बनती थी।
पार्टी की बैठक में कांग्रेसियों को शेर बताते वक्त भी उनकी ऊष्मा का ताप साफ महसूस किया जा सकता था। भले ही शेष भाजपा-विरोधी दलों ने गांधी को रत्ती भर भी तवज्जो नहीं दी हो, फिर भी इन्हीं दलों की चिरौरी करते समय उनके भीतर के जुझारूपन को देखना एक सुखद अनुभव रहा है।
तो फिर क्या वजह है कि सिंधिया को नये अध्यक्ष के लिए ऊर्जा वाली जरूरत बताना पड़ रही है?
जहां तक सबको साथ लेकर चलने की बात है, गांधी ने इस मामले में भी निराश नहीं किया। वो कभी अखिलेश यादव को साथ लेकर चले तो कहीं उन्होंने जेएनयू में देश के टुकड़े-टुकड़े करने की कामना वाली गैंग के साथ कदमताल किया।
यह बात दीगर है कि उन्हें इस सबमें कभी कामयाबी नहीं मिल सकी। लेकिन कांग्रेस के भीतर उनका यह प्रयोग काफी हद तक सफल रहा। लोकसभा चुनाव में वह पूरे दल को साथ लेकर चले और खुद के साथ-साथ बाकी सबकी भी लुटिया डुबो दी।
अब अंजाम चाहे जो भी हुआ हो, लेकिन सिंधिया की साथ लेकर चलने वाली इस सलाह पर भी गांधी खरे उतरे हैं।
लिहाजा सिंधिया को यह साफ करना होगा कि नये अध्यक्ष से उनकी यह आशाएं गांधी की असफलता से प्रेरित हैं या नहीं।
अब डाक्टर सिंधिया का अगला नुस्खा सुनिए। नया अध्यक्ष गांधी के बताए मार्ग पर ही चले। फिर तो हो चुका। गांधी पार्टी को चला-चलाकर या कह सकते हैं हांकते हुए भी कांटों भरे रास्ते तक घसीट ले गये।
अब नये अध्यक्ष को भी उनके इशारे पर चलाने की कामना समझ से परे है। यह तो वही मामला है कि- 'पीछे बंधे हैं हाथ और शर्त है सफर की। किस से कहें कि पांव के कांटे निकाल दे।'
और आखिरी दवाई के मामले में तो सिंधिया की बलैयां लेने का मन कर रहा है।
क्योंकि जिस समय उन्होंने कहा कि कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए सभी लोगों को मिलकर काम करने की जरूरत है, उस पल मेरे जहन में तुलसी सिलावट, गोविंद सिंह राजपूत, डॉ. प्रभुराम चौधरी और इमरती देवी जैसे मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल के सदस्यों की हालिया एकजुटता और मुख्यमंत्री से उनके विवादों ने बहुत प्रभावी तरीके से दस्तक दे दी।
सचमुच सिंधिया आरम्भ में बताये गये डाक्टर की तरह ही सलाह पर सलाह दिए जा रहे हैं।
मकसद यही कि इनमें से शायद किसी एक से पार्टी की बीमारी का इलाज हो जाए। जिन डाक्टर साहब से मेरा भोपाल में पहला वास्ता पड़ा था उनके बारे में मुझे बाद में एक नयी बात पता चली थी।
वह यह कि ढेर सारी दवाएं लिखने का मकसद कई मेडिकल रिप्रेजेंटिव्ह को खुश करना भी था। सिंधिया भी बीमारी के इलाज में ढेर दवाएं बताने के साथ ही गांधी को खुश करने का प्रयास भी कर गुजरे।
जाहिर है कि यह खुद की सियासी सेहत को ठीक रखने का टोटका था। पार्टी की रुग्णावस्था से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
पूरी कांग्रेस की यह हालत विचित्र है। यहां हर कोई बीमार को पूरी तरह सेहतमंद बताने पर तुला है। जब नीयत बीमारी को दूर करने की न हो, तब ऐसा ही होता है, जैसा कांग्रेस में इन दिनों दिख रहा है।
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