विचारहीन राजनीति का राहु काल

राजनीति            May 03, 2022


राकेश कायस्थ।
ये तस्वीरें दो ऐसे लोगों की है, जिनकी शख्सियतों में कोई मेल नहीं है। प्रशांत किशोर और राज ठाकरे पृष्ठभूमि से लेकर काम तक एकदम अलग-अलग व्यक्ति हैं।

फिर भी दोनों में एक बात आम है, दोनों उस विचारहीन राजनीति के प्रतीक हैं जो अब भारतीय राजनीति के केंद्र में स्थापित होती दिख रही है।

प्रशांत किशोर आठ साल पहले भारतीय राजनीति में एक नया फॉर्मूला लेकर आये, फॉर्मूला वही था, जो उद्योग जगत अपनाता है।

हमें अपने ग्राहक की पहचान होनी चाहिए और उसी हिसाब से माल बेचने की रणनीति बनाई जानी चाहिए।

2014 से लेकर शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल हो जिसके लिए प्रशांत किशोर ने काम ना किया हो।

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का शीर्षस्थ नेतृत्व जिस समय किशोर के साथ बैठकर रात-दिन इस बात की माथापच्ची कर रहा था कि वे पार्टी से जुड़ेंगे तो उसकी शर्तें क्या होंगी, ठीक उसी वक्त किशोर तेलंगाना में कांग्रेस के धुर विरोधी टीआरएस के लिए भी रणनीति बना रहे थे।

कांग्रेस से बात नहीं बनी और उसके चंद घंटों के भीतर प्रशांत किशोर ने अपना राजनीतिक दल बनाने का एलान कर दिया।

भारतीय राजनीति में इससे बड़ा प्रहसन शायद कभी देखने को मिला हो।

प्रशांत किशोर और उनके पीछे-पीछे चलने वाले तमाम राजनीतिक दलों ने जो कुछ किया उससे यह बात समझ में आती है कि विचार भारतीय राजनीति से पूरी तरह विस्थापित हो चुके हैं।

राज ठाकरे भी कुछ इसी तरह की केस स्टडी हैं, अपने चाचा बाल ठाकरे जैसे लुक्स और तेवर दिखाने वाले, कार्टून बनाने वाले राज जिस तरह चल रहे थे, एक समय ऐसा लग रहा था कि वे ठाकरे के स्वभाविक उत्तराधिकारी होंगे।

मगर वक्त ने राज ठाकरे को वरूण गाँधी बना दिया, उनके पास ना तो कोई विरासत ना अपनी कोई राजनीतिक जमीन।

राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए रात-दिन हाथ-पांव मार रहे हैं।

मस्जिदों के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने के उनके एलान से बीजेपी के जो समर्थक लहालोट हैं, उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान राज ठाकरे का कैंपेन देखना चाहिए।

प्रधानमंत्री मोदी पर जिन चंद लोगों ने सबसे तीखा हमला बोला होगा, उनमें राज ठाकरे भी शामिल थे। मुसलमानों को निशाना बनाकर छेड़े गये उनके अभियान से वे उत्तर भारतीय सबसे ज्यादा खुश हैं, जो ठाकरे की राजनीति का निशाना रहे हैं।

कपिल मिश्रा भी अवसरवाद पर आधारित विचारहीन राजनीति का एक बड़ा उदाहरण हैं।

आम आदमी पार्टी में रहते हुए कपिल मिश्रा भारत की साझा-संस्कृति पर शानदार भाषण दिया करते थे।

नरेंद्र मोदी पर गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए एक लड़की के कथित यौन शौषण का इल्जाम कपिल मिश्रा ने दिल्ली विधानसभा में लगाया था और उसका बिंदुवार ब्यौरा दिया था।

वही कपिल मिश्रा अब हिंदुत्व के नये पोस्टर ब्वॉय हैं। बीजेपी के एक भी समर्थक ने अपने आराध्य देव के अपमान का सवाल नहीं उठाया और कपिल मिश्रा का बांहें फैलाकर स्वागत किया।

ज़हरीले भाषण के ज़रिये राजनीतिक ध्रुवीकरण की क्षमता पिछली तमाम बातों पर भारी पड़ गई।
बीजेपी की फायर ब्रांड और दमनकारी राजनीति के प्रतीक हेमंत बिस्वा शर्मा कांग्रेस के प्रोडक्ट रहे हैं।

अगर उनका अलगाव नहीं हुआ तो बहुत मुमकिन है कि कांग्रेस के कोटे से असम के मुख्यमंत्री बनते। क्या हेमंत बिस्वा शर्मा कांग्रेस में इतने लंबे समय तक स्लीपर सेल की तरह थे?

इसका जवाब ये है कि कांग्रेस भी एक विचारधारा शून्य पार्टी है जो अपना अस्तित्व बचाने के लिए उग्र दक्षिणपंथ से लेकर अल्ट्रा लेफ्ट तक जहां से भी हो सके, हाथ मिलाने को तैयार है।

भारतीय राजनीति के लिए यह एक बहुत डरावनी स्थिति है।

दो या तीन दशक पहले इस देश का पढ़ा लिखा आदमी जानता था कि विचारधारा के स्तर पर कांग्रेस, सोशलिस्ट और आरएसएस से जुड़ी बीजेपी एक-दूसरे से किस तरह और क्यों अलग हैं। अब यह फर्क मिट चुका है।

लेफ्ट पार्टियों को छोड़कर किसी के पास भी अपनी स्थायी विचारधारा नहीं है, लेकिन लेफ्ट भारतीय राजनीति में लगभग अप्रासांगिक हो चुका है।

विचारहीन राजनीति के सबसे बड़े पोस्टर ब्वॉय अरविंद केजरीवाल हैं जो कभी खुद को गाँधी का अनुनायी बताते थे और अब अंबडेकर और भगत सिंह की तस्वीरें एक साथ लगाते हैं।

देश का एक तबका केजरीवाल को एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देख रहा है।

मतलब बहुत साफ है, भारतीय राजनीति में विचार शून्यता का अंधकार आने वाले दिनों में और गहराएगा।

 



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