रविंद्र दुबे।
वह पिछले रविवार की सुबह थी जब दादा रोज की तरह जनता दरबार लगाए लोगों का दु:ख-दर्द सुन रहे थे। वे मंत्री बने, विधायक हुए और राजदण्ड धारण करने वाले विधानसभा अध्यक्ष भी रहे। आमजनों के साथ उनका सीधा संवाद ताजिंदगी कायम रहा। दादा के न रहने से अब जनता के लिए दहाड़ लगाने वाली आवाज सदा के लिए खामोश हो गई है।
उनके सत्ता के जलवे को गरीब गुरबों ने भी भरपूर भोगा। 90 के दशक में शायद ही ऐसा कोई चलते पुर्जे टाइप का रिमहा बचा हो, जिसने प्रदेश की विधानसभा में यदि दादा के नाम से प्रवेश किया और उसके आवभगत में कोई कमी आई हो। विंध्य टाइगर, सफेद शेर, श्रीयुत के साथ उन्हें दऊ-मानें आसमान होने तक का रुतबा प्राप्त था।
दूसरों की फिक्र ज्यादा की
श्रीनिवास तिवारी अपनी शर्ताें पर राजनीति किया करते थे। वे प्रदेश के पहले ऐसे विधानसभा अध्यक्ष हुए, जिन्हें मुख्यमंत्री के पैरलर समझा जाता था। तत्कालीन सीएम दिग्विजय सिंह उनसे बगैर राय-मशवरा किए कोई बड़े फैसले नहीं लेते थे। श्रीयुत की कार्यप्रणाली सदैव मुक्त, परंतु उन्मुक्त समझने लायक नहीं थी। हालांकि विरोधियों द्वारा उन पर अपने समर्थकों को जरूरत से ज्यादा उपकृत किए जाने के आरोप लगते रहे। ऐसा इसलिए क्योंकि श्रीयुत ने खुद से अधिक दूसरों की फिक्र ज्यादा की।
आका से महरूम हुआ अमहिया दरबार का मसनद लगा तख्त
जीवन के कई उतार-चढ़ाव, सुख-दु:ख को वे सिर्फ साक्षी भाव से देखते रहे। किसी निष्काम कर्मयोगी की तरह। यदि दादा रीवा में हैं तो अमहिया दरबार में हाजिरी देने वालों का तांता लगा रहता। अधिकारी से लेकर चपरासी और धन्नाशाहों से लेकर गरीब-फकीर तक बराबर उनके चरण वंदन करने को आतुर रहते। अमहिया मार्ग में जाम लगा हो तो समझिए दादा प्रवास पर आ गए हैं। आज यही अमहिया दरबार अपने आका से महरूम है। यहां कोई सिंहासन नहीं, झक सफेद चादर और मसनद के साथ लगा एक तख्ता बचा है, जिस पर बैठकर दादा सभी का दु:ख-दर्द सुना करते और वहीं से फोन लगाकर तत्काल उसका निराकरण भी किया करते थे।
युवा विंग में भी खासे लोकप्रिय नेता
जिले भर के अंदर कोई भी मसला हो, दादा उसको सुलझाने और साधने में माहिर थे। उनके लिए कोई भी मुद्दे सलेक्टिव नहीं हुआ करते थे। दादा के पास अपनी व्यथा-कथा को लेकर पहुंचने वालों में युवा वर्ग ज्यादा रहता था। वे उनकी सुनते और आवश्यकता पड़ने पर धरना, अनशन करने भी चल देते। जिले के सभी गांव-कस्बों में दादा की चौपाल लगती थी। अनशन, धरना, सभा, गिरफ्तारी आदि देने में वे युवाओं के सदैव साथी थे। यह सिलसिला उनके पूरे जीवन काल तक यथावत दिनचर्या का हिस्सा बना रहा।
आवाज ही काफी थी
93 वर्ष की अवस्था में भी उनकी आवाज में गजब का दम था..‘मैं अमहिया से श्रीनिवास तिवारी बोल रहा हूं...’ अधिकारी इतना सुनते ही सकपका कर सक्रिय हो जाते थे। सभा-समारोहों में उनके धाकड़ शैली युक्त धाराप्रवाह भाषण सुनने वालों की भीड़ लगनी आम थी। हालांकि उम्र के इस पड़ाव में उनकी आंखों की रोशनी जरूर धुंधली हो चली थी, जिसको लोगों के साथ उनके करीबियों ने भी काफी बाद में जाना। वे जब भी किसी से मिलते, उसके पूरे परिवार का हाल-चाल ले लेते। उनकी स्मरण शक्ति अत्यंत तीक्ष्ण थी। अंचल के किसी गांव के फला आदमी के दादा-पुरखों तक का नाम-पता उनके मस्तिष्क में फीड रहती।
चलो रे डोली उठाओ कहार...
कुछ महीने पहले दादा का अत्यंत भावुक अंदाज में ‘चलो रे डोली उठाओ कहार’ गाना सुनते हुए एक वीडियो वायरल हुआ था। इस गीत को सुनने के बाद वे विचलित हो उठे थे। दादा को करीब से जानने वाले बतलाते हैं कि तमाम तरह की विषम परिस्थितियों में भी उन्हें कभी रोते हुए नहीं देखा गया। परंतु न जाने क्यों इस गाने को सुनने के पश्चात वे रो उठे थे। संभवत: दादा को डोली उठने का एहसास हो चुका था।
दादा न होय दऊ आय
सबसे चर्चित व विवादस्पद नारा- श्रीयुत के नाम पर जुड़ा। 1998 के चुनाव में जब वे जीते तो एक गांव में उनके समर्थकों ने पहले-पहल यह नारा दिया-दादा न होय दऊ आइ। इस नारे पर गीत भी लिखे गए। वहीं विरोधियों ने इसका तर्जुमा बिगड़ते हुए आगे जोड़ा... वोट ने देबे तउ आयि...। समर्थकों ने आगे की लाइन बढाई, गोड़ लै परा त गऊ आइ। विरोधी कहा चूकने वाले, उन्होंने यह लाइन लगाकर फुल स्टाप किया... पांच साल तक छइउ आयि। विंध्य के राजनीतिक इतिहास में जितने विश्लेषणों से श्रीनिवास तिवारी को उनके समर्थकों ने अलंकृत किया वैसा सौभाग्य दूसरे को शायद ही कभी मिले, वैसे सबसे ज्यादा नारे श्रीनिवास तिवारी के नाम पर गढ़े गए-उनमें से सबसे ज्यादा चलने वाला नारा रहा-दिग्गज नहीं दिलेर है... विंध्यप्रदेश का शेर है।
उत्तरायण की यात्रा पर चले गए ‘भीष्म’
उनके अवसान के समय सूर्य उत्तरायण की दिशा में आ चुका था। माना जाता है कि उत्तरायण सूर्य में देह त्यागी व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होता है। महाभारत काल में प्राणोत्सर्ग हेतु बाण शय्या पर पड़े भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार किया था। हमारे विंध्य की एक प्रखर तेजोमयी आत्मा भी उत्तरायण की यात्रा में निकल चुकी है...ओम शांति।
लेखक मध्यप्रदेश विधानसभा में जनसंपर्क अधिकारी हैं।
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