प्रकाश भटनागर।
वजा फरमाएं, 'खत कबूतर किस तरह पहुंचाए बामे-यार पर। पर कतरने को लगी हैं कैंचियां दीवार पर।' तो साहब ऐसी ही कैचियों ने अजय सिंह राहुल, अरुण यादव और अन्य कई ऐसे कांग्रेसियों के पर काट दिए हैं, जो आज दोपहर तक प्रदेश कांग्रेस का अगला अध्यक्ष बनने की दौड़ में शामिल थे।
लग तो यही रहा है कि अजय सिंह राहुल के गर्दिश भरे दिन अभी बाकी हैं। चर्चा थी कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जा रहा है। समर्थकों ने अखबारों तक यह खबर भी दे दी थी कि सोमवार को इसका ऐलान हो जाएगा। लेकिन कमलनाथ ने सोमवार को कुछ और ही कह दिया।
उन्होंने कहा, 'नए प्रदेश अध्यक्ष की जरूरत नहीं है।' इसके साथ ही यह कयास शुरू हो गया कि कम से कम लोकसभा चुनाव तक तो यह पद नाथ अपने पास ही रखेंगे। कमलनाथ ने कहा है तो इस पर शक करने का कारण भी नहीं है। मुख्यमंत्री होने के अलावा कांग्रेस में उनका कद कम से कम मुख्यमंत्री से बड़ा है। और ऐसा अकेले कमलनाथ के साथ नहीं है, कांग्रेस का जो भी नेता सीधे गांधी परिवार से जुड़ा है, उसका कद कांग्रेस में राहुल और सोनिया को छोड़कर किसी और से कम हो भी नहीं सकता।
एक सवाल उठता है। नाथ ने जब जरूरत नहीं कहा तो उनका आशय नये प्रदेशाध्यक्ष से था या केवल अजय सिंह से? क्योंकि क्षमताओं से लबरेज होने के बावजूद सिंह बीते कई घटनाक्रमों में कमतर साबित हो चुके हैं। चौधरी राकेश सिंह प्रकरण से लेकर चुरहट सहित विंध्य में कांग्रेस की चुनावी पराजय ने उनकी क्षमताओं पर सवालिया निशान लगा दिए हैं।
यह सही है कि कई समर्थकों ने सिंह के लिए सीट खाली करने की बात कहकर उनके प्रति यकीन जताया है, लेकिन यह भी तो सही है कि जो शख्स अपने परम्परागत गढ़ चुरहट की जनता का ही विश्वास कायम नहीं रख पाया, उसे किस वजह से चुनावी साल में प्रदेशाध्यक्ष पद जैसी अहम जिम्मेदारी दे दी जाए?
दोनों बार नेता प्रतिपक्ष रहते हुए सिंह ने तत्कालीन शिवराज सिंह चौहान सरकार के खिलाफ दमदार तेवर दिखाए। वे अपनी हार के कारण तो जानते हैं लेकिन विंध्य में इस हार के पीछे की साजिश समझने का आग्रह वे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से जरूर कर रहे हैं। लेकिन अब सरकार बन गई है तो कोई उनकी बात को शायद गंभीरता से नहीं ले रहा है।
नेता प्रतिपक्ष रहते हुए भी वे पार्टी में अपनी लकीर लंबी नहीं कर पाएं, ऐसे में कांग्रेस उनकी दम पर संगठन को आगे बढ़ाने का जोखिम शायद ही लेना चाहेगी। उस समय यह और मुश्किल हो जाता है, जब संगठन पर ज्योतिरादित्य सिंधिया के गुट की नजर भी गड़ी हुई है।
खैर, मानना पड़ेगा कमलनाथ की हिम्मत को। यदि प्रदेशाध्यक्ष पद पर वही बने रहते हैं तो यह उनके लिए दुधारी तलवार वाला मामला होगा। उन्हें भारी प्रतिकूल हालात के बीच सरकार चलानी है। खेमेबाजों से संतुलन साधते हुए संगठन का काम देखना है। ऐसी वजनदार चुनौतियों को कांधे पर उठाए हुए उन्हें लोकसभा चुनाव में प्रदेश में पार्टी की जीत सुनिश्चित करना है।
नाथ के लिए बहुत आसान था कि प्रदेशाध्यक्ष पद किसी के हवाले कर मुख्यमंत्री के तौर पर पूरी ताकत खपा देते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। यह जानते हुए भी कि यदि लोकसभा का नतीजा दिल्ली दरबार के माफिक नहीं आया, तो नाथ की बतौर मुख्यमंत्री सहित प्रदेशाध्यक्ष की क्षमताओं को सिरे से कम कर दिया जाएगा।
अध्यक्ष पद की दौड़ में तो अरुण यादव भी हैं। सुना है कि वह आजकल भावुक हो गए हैं। बुधनी में हारे तो ऐसे टूटे कि भोपाल आकर रो पड़े। आंसू केवल इतना काम आए कि भाई सचिन को मंत्री पद मिल गया। यादव भले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री से हारे, लेकिन बुधनी में इतना असर भी नहीं छोड़ सके कि कांग्रेस में उन्हें शहीद का दर्जा मिल जाता। अब प्रदेशाध्यक्ष पद फिर पाने की नाकाम आकांक्षा के बाद तो शायद कोई उनके आंसू पोंछने वाला भी नहीं बचा।
एक सवाल और उठता है। प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर शैडो चीफ मिनिस्टर दिग्विजय सिंह का क्या रुख है? अजय सिंह तो उनके खेमे के ही माने जाते हैं। गाहे बगाहे वे अरूण यादव का भी पक्ष लेते रहे हैं। तो क्या मामला यह है कि इस पद के लिए दिग्विजय की नजर में ऐसा कोई अन्य कांग्रेसी शामिल है, जो उनके गुट का होने के बावजूद कमलनाथ के मंत्रिमंडल में जगह नहीं पा सका? बेशक केपी सिंह, आदिवासी नेता के तौर पर बिसाहूलाल सिंह क्या बुरे हैं? आखिर दिग्विजय सिंह के सत्ता में रहने के दौरान उर्मिला सिंह मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों रही थीं। फिर दलित ऐजेंडे के तौर पर राधाकृष्ण मालवीय भी रहे थे। जो भी हो, किंतु वर्तमान हालात को देखकर यह नहीं माना जा सकता कि दिग्विजय से मंत्रणा के बगैर ही नाथ ने जरूरत नहीं वाली बात कह दी हो।
लोकसभा चुनाव बहुत दूर नहीं हैं। उतना समय गुजर जाने दीजिए। प्रदेश अध्यक्ष पद पर शायद फिर कोई नया चेहरा दिख जाए। वरना नाथ तो हैं हीं और हैं शैडो चीफ मिनिस्टर दिग्विजय सिंह। हां, मायूस चेहरों को एक बार और वजा फरमा देते हैं। यह है, 'खत कबूतर इस तरह पहुंचाए बामे-यार पर। पर पे लिखा हो परवाना और पर कटे दीवार पर।'
मामला चुनौतीपूर्ण है, लेकिन है कामयाबी की ग्यारण्टी वाला। हां, पर करतने का हौंसला कायम रखना होगा। इसीलिए तो यहां खालीपीली वजा फरमाया नहीं है, बल्कि सुझाया गया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और एलएन स्टार समाचार पत्र में संपादक हैं।
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