सोमदत्त शास्त्री।
जिसका डर था आखिर वही हुआ। गुटबाजी से बजबजाती कांग्रेस और पार्टी विद डिफरेंस का दम भरने वाली भाजपा भी अक्टूबर के आखिरी हफ्ते तक अपने-अपने प्रत्याशियों का चयन नहीं कर पाए। वजह एक ही थी, टिकटार्थियों की भीड़ भरी हुंकार ने नेताओं को इस कदर हिला कर रख दिया है कि भोपाल से दिल्ली तक चले तमाम मंथनों के बावजूद टिकट बांटने में पार्टियों के पसीने छूट गए।
यूं तो कांग्रेस की पहचान ही गुटबाजी और कुनबा परस्ती रही है लेकिन इन चुनाव के शुरुआत में एकता को लेकर जो दावे किये गये थे वे उसकी बंधी मुट्ठी खुलते ही हवा हो गये और पहला निशाना बने दिग्विजय सिंह। कांग्रेस में दिग्विजय सिंह को दरकिनार करने के किस्से जैसे ही फिजाओं में गूंजे, गुटबाजी का मचना स्वाभाविक था।
दिग्विजय सिंह ने तरह-तरह की सफाइयां दीं कि वे राहुल और सोनिया गांधी की सफाई में भाषण नहीं देते हैं और यह भी उन्होंने इस बार स्वयं ही ‘मौन’ रहने की भूमिका चुनी है। इन सबके बावजूद दस साल बतौर मुख्यमंत्री राज्य और पार्टी के राजनीतिक फलक पर छत्रप की भांति छाए रहे दिग्विजय सिंह का अलग-थलग पड़ जाना उनके किसी भी समर्थक को रास नहीं आया।
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि आप दिग्विजय सिंह से प्यार सा नफरत कुछ भी कर सकते हैं लेकिन उन्हें नजरअंदाज तो कतई नहीं कर सकते।
भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं कि राज्य में अगर कांग्रेस का कोई वास्तविक नेता हैं तो वे दिग्विजय सिंह हैं उन्हें दरगुजर करने का खामियाजा कांग्रेस को भोगना होगा।
दिग्विजय सिंह के फैसले से पार्टी में शुरू हुई उथल-पुथल का नतीजा यह है कि कुल 230 में से तीन दर्जन सीटों पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ, चुनाव प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया और को-आर्डिनेशन की जिम्मेदारी संभाल रहे दिग्विजय सिंह के बीच प्रत्याशियों को लेकर असहमति बन गई।
हालांकि कांग्रेस का दावा है कि वह 71 सीटों पर अपने प्रत्याशी तय कर चुकी है और जल्दी ही इनका एलान कर दिया जाएगा। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि पिछले चुनावों की तरह इस बार भी टिकट बांट लेना आसान नहीं होगा।
हालांकि यह माना जा रहा है कि टिकटों का फैसला पूरी तरह कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की पसंद-नापसंद पर ही निर्भर करेगा। इस बीच भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों में दल बदल के खेल शुरू हो चुके हैं।
पिछले एक महीने में कटनी की पदमा शुक्ला, नरसिंहपुर गोटेगांव के शेखर चौधरी, मुडवारा के पूर्व विधायक सुनील मिश्रा, कांग्रेस के पुराने नेता रामशंकर चौधरी और दतिया के पुराने भाजपाई गुरुदेव शरण गुप्ता या तो कांग्रेस से भाजपा में गए या फिर भाजपा से कांग्रेस का दामन थाम बैठै।
टिकटों का मसला फाइनल होने के फौरन बाद पार्टियाँ बदलने का यह खेल बहुत तेज हो जाएगा। मजा यह है कि सपा में आने का अखिलेश यादव ने बागियों को खुला न्यौता दिया है और मायावती ने भी बसपा के द्वार खोल दिए हैं।
राज्य में भाजपा की हालत भी कांग्रेस, बसपा और सपा से अलग नजर नहीं आती है।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने 230 में से 200 सीटें जीतने का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और पार्टी अध्यक्ष राकेश सिंह के सामने दुरूह टारगेट रख दिया है, लेकिन एंटी इनकम्बैंसी, एट्रोसिटी एक्ट, सवर्णों की नाराजगी और किसानों के गुस्से को लांघकर टारगेट तक पहुंचना असंभव ही नहीं नामुमकिन है।
हालातों की जटिलता को देखते हुए पार्टी कितना फूंक-फूंक कर कदम रख रही होगी इसका अंदाजा तब हुआ जब भाजयुमो के प्रदेश अध्यक्ष अभिलाष पांडे ने चुनाव की कमान थामने आए धर्मेंद्र प्रधान के सामने नौजवानों को अवसर देने की बात कही तब श्री प्रधान ने तल्ख लहजे में टिकट के लिए नहीं पार्टी के लिए काम करने का मशविरा दे डाला।
इस बीच भाजपा के 80 मौजूदा विधायकों-मंत्रियों के टिकट काटने की अंदरखाने की खबरों ने अगर बहुतों की नींद उड़ा दी है तो दूसरी तरफ कईयों की उम्मीदें भी जगा दी हैं कि इस उलटफेर में अवसर तलाशा जा सकता है।
कोई छप्पन लाख रुपए फीस चुका कर भाजपा ने प्रोफेशनल एजेंसी से जो सर्वे रिपोर्ट हासिल की है वह अलार्मिंग बताई जाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा के लिए यह चुनाव जरा भी आसान नहीं है। आरएसएस का आकलन है कि राज्य में नेतृत्व को लेकर कोई गुस्सा नहीं है लेकिन विधायकों के प्रति सुदूर ग्रामीण इलाकों में लोगों में जबरदस्त गुस्सा है।
Comments