ममता यादव।
सिंहस्थ में साधु—संतों का जमावड़ा है। कई संतों को आप सेलिब्रिटी संत कह सकते हैं क्योंकि जनता इनके पास इसलिये जा रही है कि इन्हें टीवी पर देखा है प्रवचन देते हुये। तमाम अखाड़ों की अपनी आभा, अपने अनुयायी, अपने भक्त। लेकिन एक अखाड़ा इस बार सिंहस्थ में ऐसा है जिसके पास जाने से कोई खुद को रोक नहीं पा रहा। अन्य संतों के दर्शन की अभिलाषा वाला भक्तरूपी इंसान इस अखाड़े अपनी मुरादें पूरी करने के मकसद से लाईन लगाये खड़ा रहता है दिन—दिन भर। आमतौर पर इंसान इन्हें देखकर हंसता है मगर सिंहस्थ में इनके सामने हाथ पसारे झोली फैलाये कतार में लगा है क्योंकि मान्यता है कि इनकी जिनपर कृपादृष्टि हो गई तो उसकी सफलता,उसकी कामना को पूरा होने से कोई रोक नहीं सकता। ये है सिंहस्थ में विराजित किन्नर अखाड़ा।
जी हां! हम बात कर रहे हैं किन्नर अखाड़े कि जो कि पहली बार सिंहस्थ में शामिल हुआ है। उत्सुकता के साथ जब आप इस पंडाल में प्रवेश करते हैं तो अन्य पंडालों से बहुत कुछ अलग नजर आता है यहां। मेरे मनमस्तिष्क में भी एक मंच था जिस पर महामंडलेश्वर का बड़ा सा बैनर होगा। मुख्य द्वार से लेकर भीतर तक नामों का उल्लेख होगा, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था।
मुख्य द्वार पर आकर्षक गजानन महाराज रिद्धी—सिद्धी के साथ विराजे हैं तो पंडाल में प्रवेश करते ही मंच के सामने हजारों लोगों की भीड़ है कोई बैठकर कोई लाईन में लगकर अपनी बारी का इंतजार कर रहा है।
किन्नर अखाड़े का मंच एक ऐसा मंच जहां किसी महामंडलेश्वर नहीं बल्कि अर्द्धनारीश्वर की छटा बिखर रही है।चार किन्नर भगवा चोले में मंच के नीचे बैठकर लोगों को मनोकामना पूर्ति का आर्शीवाद बांट रहे हैं।
उज्जयिनी ने नि:स्वार्थ प्यार दिया खोइ्र गरिमा वापस पाई
बात हुई किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी से। जब इनके पास पहुंचे तो आशा के विरीत नजारा अलग ही था एक आम महिला की तरह लक्ष्मीनारायण बात कर रहे थे कभी अधलेटे कभी बैठे। कभी बाल संवारते कभी साड़ी सम्हालते। महामंडलेश्वर से जब पूछा पहला सिंहस्थ पहली पेशवाई कैसा अनुभव रहा तो उनका जवाब था मैं क्या कहूं पहली देवत्व यात्रा हम इसे पेशवाई नहीं कहते देवत्व यात्रा कहते हैं क्योंकि हम उपदेवता हैं। जिस अखाड़े को वाद—विवाद में घेरा गया। कहा गया मान्यता है नहीं है हम किसी के पास मान्यता के लिये नहीं गये क्योंकि किन्नरों का वजूद है और रहेगा। उज्जैन से इतना प्यार इतना दुलार पूरी उज्जयिनी ऐसे उमड़ कर आई थी जैसे कण—कण में भोले भंडारी बसे हैं ऐसे हर कोई पुचकार रहा था। उज्जैन से नि:स्वार्थ प्यार मिला। यही है मान्यता हमारे गुरू ऋषि अजय दास और हमारा सपना था सनातन धर्म में खोया हुआ वजूद खोई हुई गरिमा वापस मिले वो सिंहस्थ में मिला है हमने अपना खोया हुआ वजूद पाया है।
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जीवन के संघर्षों में कठिन परिस्थतियों से निकलने में मेरे पूर्वजों मेरे परिवार भगवान का आर्शीवाद रहा कि मैं किसी भी चोले में रही कि उन्होंने मुझे हमेशा इज्जत से ही बरकरार रखा और दुआओं से लालायित रखा मैं परमपिता परमेश्वर को मानती हूॅं। इस रूप में भी जीवन को सफल मानने के सवाल पर लक्ष्मीनारायण कहते हैं मैं क्या कहूं समाज बतायेगा कि मेरा जीवन सफल है या नहीं।
समाज के लिये अपने संदेश में लक्ष्मीनारायण कहते हैं धर्म किसी की बपौती नहीं,धर्म सबका है। हिंदू सनातन धर्म लैंगिकता से परे है हमारी संस्कृति में सबको साथ लेकर चलने की संस्कृति है। हमारी संस्कृति ने विभाजन जाना ही नहीं। हिंदू संस्कृति वो गंगाजल है आप कमंडल में डालो तो बक्से में डालो तो बक्सा हो जाती है। आप प्रेम से रखो तो वो गंगा है मैली कर दो तो मैली गंगा है। वही गंगा जाकर सागर में मिलती है जैसे हम सब आत्मायें हैं, हम सब ब्रम्ह हैं और उस परब्रम्ह जाकर लीन हो जाते हैं तो ये सारे द्वेष, लैंगिकता पर प्रश्नचिन्ह हम कौन होते हैं प्रश्न उठाने वाले। प्रकृति का नियम है बदलाव और समाज में बदलाव होकर रहेगा। हम किन्नर सिर्फ बिना शर्त प्रेम देना जानते हैं बिना शर्त।
सिंहस्थ के बाद लक्ष्मीनारायण अपने अनुभव कॉफी टेबल बुक के रूप में लिखेंगी।
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