संजय स्वतंत्र।
शाम हो गई थी। न्यूजरूम में यह व्यस्तता का समय था मेरे लिए। तभी मैसेंजर की घंटी बजी। प्रियंका ने एक वीडियो संदेश भेजा था मुझे। इसमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिंह द्वार पर धरना दे रहीं छात्राओं की खबर थी। शोहदों की अभद्रता का शिकार विजुअल आर्ट की छात्रा आकांक्षा अपनी पीड़ा बयान कर रही थी। आक्रोश जताने का उसका अंदाज चौंका देने वाला था। उसने विरोध में अपने बाल मुंडवा लिए हैं। शायद उसे लगा कि वह अपने बाल छिलवा लेगी तो कम सुंदर दिखेगी और फिर शोहदों की हरकतें बंद हो जाएंगीं। मगर ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि संस्कारहीन मनुष्य इनसान नहीं, जानवर होते हैं, लिहाजा गुस्सा फूटना ही था।
देर रात खबर आई कि अपनी गरिमा और सुरक्षा के लिए गुहार लगा रहीं निहत्थी लड़कियों पर लाठियां चलवा दी गई हैं। आकांक्षा का तमतमाया चेहरा एक बार फिर आंखों के आगे घूम गया। उस वक्त दिल ने बस इतना ही कहा- तुम अकेली नहीं हो आकांक्षा। हम सब साथ हैं, जो नारी अस्मिता और उसकी गरिमा का सम्मान करते हैं। वे छात्र भी, जिन्होंने सिंह द्वार पर धरना दे रहीं छात्राओं के समर्थन में पुलिस की लाठियां खाई हैं।
मगर आकांक्षा, तुम्हारे साथ हुई हरकत कोई पहली घटना नहीं है। कोख से बच निकलने के बाद और स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए कदम बढ़ा रहीं न जाने कितनी आकांक्षा को अभद्रता का सामना करना पड़ रहा है। कभी सड़कों पर तो कभी बसों में तो कभी स्कूलों और कालेजों के बाहर। न जाने कितनी बार उनके सम्मान को ठेस पहुंचाई गई। इसके जिम्मेदार हम सब हैं, जो वक्त रहते साथ नहीं देते। और कानून के वो रखवाले भी, जो ऐसी घटनाओं पर आंखें मूंद लेते हैं।
तो मैंने प्रियंका को शाम को ही जवाब दे दिया कि इस खबर पर मेरी नजर है। मगर इसके बाद आई दो खबरों ने मेरा ध्यान खींचा। पहली खबर नोएडा से आई थी तो दूसरी मोदीनगर से। नोएडा में चलती कार में युवती से सामूिहक बलात्कार हुआ, तो मोदीनगर में नर्स से। मगर दोनों खबरों में एक समानता थी। नोएडा की युवती गोल्फ कोर्स स्टेशन के पास कैब का इंतजार कर रही थी तो मोदीनगर की युवा नर्स ड्यूटी खत्म कर घर जाने के लिए सड़क पर निकली थी। दोनों को ही एक तरह से अगवा किया गया। बाद में दोनों ही बदहवास हालत में मिलीं।
दिल्ली में 2004 में हुई एक घटना मुझे अभी याद आ रही है। जब ग्रेटर कैलाश इलाके में बस से स्कूल जा रही छात्राओं के कपड़े फाड़ दिए गए थे। उनकी पिटाई की गई। इन छात्राओं का इतना ही कसूर था कि उन्होंने उन संस्कारहीन लड़कों से दोस्ती करने से इनकार कर दिया था, जो लगातार बस में उनका पीछा कर रहे थे। और उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान कर रहे थे। सबसे त्रासद पहलू यह था कि बस यात्रियों के सामने सब कुछ होता रहा, मगर वे आंखें मूंदे बैठे रहे। वे भी जिनकी बहू-बेटियां घर से बाहर निकलती हैं। यह है हमारे समाज का चरित्र और पुरुषवादी समाज का दोगलापन।
इसलिए मुझे भीड़ में लड़कियां आज भी अकेली और असुरक्षित लगती हैं। उनका अपना कोई नहीं होता, जिस पर वे भरोसा कर सकें। लेकिन तुम अकेली नहीं हो आकांक्षा। तुम्हारी जैसी तमाम लड़कियां अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। आगे बढ़ रही हैं। तुम डरना नहीं। तुम्हारा आक्रोश स्वाभाविक है।
सुबह हो गई है। मगर मन अब भी खिन्न है आकांक्षा से हुई अभद्रता को लेकर। दफ्तर के लिए निकल गया हूं। सड़क पर बैटरी रिक्शा चला रही युवती को देख कर चौंक गया हूं। उसने पास आकर कहा- मेट्रो जाएंगे? मैंने कहा- ‘हां, मगर चारों सीटों पर लोग बैठे हैं। मुझे कैसे ले जाओगी?’ उसका जवाब है- मेरे बगल में बैठ जाइए। मुझे संकोच में देख उसने कहा- ‘मुझे कोई दिक्कत नहीं, तो अपको संकोच क्यों। बैठ जाइए सर।’
रास्ते में उसने बताया कि वह बीए पास है। उसका कोई भाई नहीं है। माता-पिता बीमार रहते हैं। घर चलाने के लिए वह यह काम कर रही है। टैक्सी खरीदने के लिए रुपए नहीं। इस लड़की में भरपूर आत्मविश्वास है। मैंने उससे कहा- एक दिन तुम्हारे अवश्य सपने पूरे होंगे। ये अभी शुरुआत है। उसका जवाब है- ‘जी सर, एक दिन मेरे पास कई गाड़ियां होंगी। जिनमें एक मैं चलाउंगी और बाकी दूसरी लड़कियों को रोजगार के लिए दूंगीं।’ उसके जवाब ने मुझे खुश कर दिया है। जो दूसरों को रोजगार देने का जज्बा रखता हो, इससे बढ़ कर क्या बात हो सकती है। मैंने कहा- ‘जरूर। मेरी शुभकामनाएं।’
उसने मुझे मेट्रो स्टेशन के गेट पर उतार दिया है। मैंने उससे कहा- ‘फिर मिलेंगे।’ उसने मुस्कुराते हुए कहा- ‘जी सर।’ मैं स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रहा हूं कि अगर सभी लड़कियों में अपना और दूसरों का भविष्य संवारने का हौसला हो तो उनके बढ़ते कदमों को कोई नहीं रोक सकता।
आज मेट्रो के आखिरी कोच की अंतिम सीट पर बैठे हुए सोच रहा हूं कि दिल्ली से नोएडा और कोलकाता से लेकर काशी तक कहीं भी लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं। अभी पिछले दिनों कोलकाता में बांग्ला फिल्मों की एक अभिनेत्री से सरेआम छेड़छाड़ हुई। शायद ही इसे किसी ने नोटिस में लिया हो। लेकिन सच है कि यह घटना भी सड़क पर घटी। तो स्त्रियां कभी चीरहरण का सामना करती हैं, तो कभी काम पिपासुओं का शिकार होती हैं। वे गिर पड़ती हैं, पर फिर संभल कर चल देती हैं। वे साक्षात प्रकृति हैं जो विध्वंस के बाद नई रचना करती हैं। इसलिए आकांक्षा तुम कमजोर नहीं हो और न अकेली। नए समाज की रचना तुम्हें ही करनी है।
उद्घोषणा हो रही है- अगला स्टेशन विश्वविद्यालय। दरवाजा खुलते ही लड़के-लड़कियों ने कोच में उमंग भर दिया है। आत्मविश्वास से लबरेज ये युवा सजग हैं। खासकर लड़कियां। पिछले एक दशक में एक बड़ा बदलाव दिल्ली और अन्य महानगरों की लड़कियों में दिखा है। वह यह कि वे किसी भी हालात का सामना करने को तैयार हैं। काशी जैसे शहरों की लड़कियां भी अब खामोश नहीं रहतीं। कोई साथ दे या न दें, वे हालात से निपटने और जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं। वे उदंड लड़कों और उनके सम्मान को ठेस पहुंचाने वालों को सबक सिखाने से पीछे नहीं हटतीं। जैसे कि आकांक्षा की उठाई आवाज एक मुहिम में बदल गई। और यह आवाज दूर तक गई है। इसलिए कहता हूं कि तुम अकेली नहीं हो आकांक्षा।
मेट्रो चल पड़ी है अपने गंतव्य की ओर। मेरे सोचने का क्रम जारी है। यह पूरी दुनिया अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही है। मगर मनुष्य अपने आदिम सोच से कितने कदम आगे पढ़ पाया है? स्त्रियों को भोग्या समझने का मर्दवादी नजरिया आज तक नहीं बदला। रूढ़िवादी परंपरा और विचार अब भी कुंडली मारे बैठे हैं लोगों के दिमाग में। कोई लड़की रात को कब घर लौटती है। क्या पहनती है। किससे बात करती है। किससे दोस्ती करती है। यह जानने की दिलचल्पी ज्यादातर पुरुषों में रहती है। मगर घर के बाहर बेटे क्या कर रहे हैं। रात को कितनी देर से लौट रहे हैं, यह न मां पूछती है न बाप। बेटियों के मामलों में वे दोहरी मनोवृत्ति के शिकार हो जाते हैं। छात्रावास में रह कर पढ़ने वाली बेटियों के साथ क्या हो रहा है, यह काशी ने देख लिया है।
कोच में देख रहा हूं कि ये लड़कियां दोपहर की अंतिम क्लास खत्म होने के बाद घर लौट रही हैं। शिक्षा के प्रसार ने जहां इनको जागरूक किया है, वहीं कुछ बनने का जज्बा भी है इनमें। बदलाव की पहल इन युवतियों ने शुरू कर दी है। दरअसल, बराबरी पर आ रही इन लड़कियों से पुरुषों को डर लगता है। क्योंकि वे पढ़-लिख कर उनसे आगे निकलती दिख रही हैं। कई जगह तो उनकी बॉस भी बन रही हैं। इसलिए लिए डर लगता है इन लोगों को साहब। उन लड़कों से पूछिए कि गर्ल्स हॉस्टल के बाहर वे ‘धतकरम’ करते हुए क्या जताना चाहते हैं? तब आकांक्षा जैसी युवतियां आवाज उठाती हैं तो इन लोगों को और भी डर लगता है। फिर उसे इंसाफ दिलाने के बजाय एक चुप्पी पसर जाती है चारों तरफ।
मेट्रो चली जा रही है। उद्घोषणा हो रही है-अगला स्टेशन कश्मीरी गेट। लड़कियां कोच के दरवाजे से हट कर खड़ी हो गई हैं। ....... मेट्रो रुकने पर एक लड़की कोच में दाखिल हुई है। उसे देख कर लड़के-लड़कियों का एक समूह चहक उठा है। खादी का लाल कुर्ता और और नीली जींस पहने इस युवती के माथे पर कुमकुम है। दमकता गोरा चेहरा। उसके एक हाथ में पूजा सामग्री है, तो दूसरे में गुलाब की माला।
युवती के खिले चेहरे को देख उसकी एक सहेली ने मुस्कुरा कर पूछा- ‘कहां चली जोगन? आज कालेज क्यों नहीं आई?’ उसने सौम्यता से जवाब दिया है- ‘कुछ नहीं घर में पूजा थी। सब व्रत पर हैं, तो सोचा आज मैं भी मां के दर्शन कर लूं। इसलिए मंदिर मार्ग जा रही हूं। तुम लोग चलोगी?’ उसके इस सवाल पर सहेलियां सोच में पड़ गईं। बोलीं-‘अभी तो वहां बहुत भीड़ होगी। तुम ही जाओ।’ सहेलियों के इनकार के बाद वह कुछ नहीं बोली।
इस लड़की ने भी कोई जिद नहीं की सहेलियों से। उसे खामोश देख कर साथ पढ़ने वाले दो लड़कों आगे आए- ‘चित्रा, हम चलते हैं तुम्हारे साथ। हम भी देवी मां के आगे हाथ जोड़ लेंगे। फिर हम सब साथ रहेंगे तो भीड़ में कोई दिक्कत भी न होगी। बोलो क्या कहती हो तुम।’ इस पर युवती का जवाब है- ‘एज यू विश। तुम्हारे जैसे दोस्त हों तो क्या चिंता।’
इन लड़के-लड़कियों की बात सुन रहा हं। अगला स्टेशन राजीव चौक है- उद्घोषणा हो रही है। मैं सीट से उठ गया हूं। कोच के गेट पर युवती खड़ी है। उसने दोनों से फिर पूछा- क्या सच में तुम लोग चल रहे हो मंदिर? इस पर दोनों लड़कों ने कहा-‘हां, और क्या। झूठ थोड़े ही बोलेंगे तुमसे। वहां भीड़ में हम सब साथ रहेंगे। तुम अकेली नहीं हो। आफ्टर आल वी आर फ्रेंड्स।’
राजीव चौक आ गया है। कोच का दरवाजा खुल गया है। दोनों लड़कों ने झुक कर खास अंदाज में कहा- ‘चलिए देवी....... मां ने बुलाया है।’ उनकी बात सुन कर वह मुस्कुरा उठी है। सहेलियां पीछे से बोलीं- ‘हमारे लिए प्रसाद जरूर लाना कल। भूलना नहीं......।’ हां-हां जरूर, यह कहते हुए वह कोच से बाहर निकल गई है। पीछे-पीछे उसके सहपाठी भी हैं।
मैं उन तीनों को जाते हुए देख रहा हूं। जिस देश के युवाओं में लड़कियों की हिफाजत और उनके सम्मान की चिंता हो, वहां कोई भी लड़की अकेली नहीं हो सकती। अभी काशी की आकांक्षा से इतना भर कहना चाहता हूं कि तुम भी अकेली नहीं हो। इसलिए डगमगाना नहीं। भीड़ में कोई न कोई एक राम भी होता है। जो सभी बुराइयों का अंत कर देता है। और एक देवी भी जो खड़ग उठा कर शत्रुओं का नाश कर सकती है-
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
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