यह वारदात बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है

वामा            Jul 26, 2022


सुनील कुमार।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो दिन पहले दहलाने वाली एक ऐसी वारदात हुई है जिस पर आसानी से भरोसा करने को दिल नहीं करता।

शहर के बीचों-बीच एक व्यस्त चौराहे पर एक दुपहिये पर अपनी मां सहित जा रही एक लड़की ने हॉर्न बजाया, लेकिन रास्ते में साइकिल लिए खड़ा एक मूकबधिर कुछ सुन नहीं पाया।

वह हॉर्न से हटा नहीं इस बात को लेकर नाबालिग कही जा रही इस लड़की ने अपने पास रखे छुरे से उस पर हमला कर दिया, और उसे मार डाला। इसके बाद शहर छोड़कर भागते उस लड़की को पुलिस ने गिरफ्तार किया।

अब तक आमतौर पर राजधानी दिल्ली के इलाके और उत्तर भारत, पंजाब के कुछ इलाकों से सड़कों पर होने वाले झगड़ों में कत्ल की खबरें जरूर आती थीं, लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में शहर के बीच, दुपहिया सवार नाबालिग लड़की एक साइकिल वाले मूकबधिर को दिनदहाड़े इस तरह अपने छुरे से मार डालेगी, यह तो भरोसा करने लायक भी बात नहीं है, यह एक और बात है कि यह सच कल हो चुका है।

इस बात को किस-किस तरह से देखा जाए यह सोचने में भी कुछ मुश्किल हो रही है। चाकू और छुरा चलाना, आमतौर पर लड़कों और आदमियों का काम माना जाता है, और उस काम में एक लड़की का उतरना भी कुछ अटपटी बात है।

फिर यह भी है कि यह लड़की अपनी मां के साथ थी, नशे में भी नहीं थी।

यार दोस्तों के साथ नशे में कोई जुर्म कर बैठना एक अलग बात होती, दिन की रौशनी में मां के साथ रहते हुए ऐसा करना और बड़ी फिक्र की बात है।

फिर यह भी कि एक नाबालिग लड़की छुरा लेकर क्यों घूम रही थी?

इस शहर की पुलिस बीच-बीच में नुमाइश करती है कि उसने बदमाश और आवारा लोगों की तलाशी लेकर उनसे कितने चाकू-छुरे बरामद किए हैं। लेकिन अब एक नाबालिग लड़की की तलाशी भी पुलिस क्या ले लेती?

और फिर यह भी है कि एक मूकबधिर पर छुरे से हमला करते हुए भी इस लड़की को यह तो अंदाज लग गया होगा कि वह बोल-सुन नहीं पा रहा है। साइकिल पर है इसलिए जाहिर है कि लड़की के मुकाबले गरीब भी रहा होगा।

फिर भी उसको इस तरह मार डालना उस लड़की की हत्यारी सोच का एक सुबूत है, जो कि पूरे समाज के लिए खतरे और फिक्र की बात है।

हिन्दुस्तान में बहुत बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर चलने वाले बहुत ताकतवर और पैसों वाले लोगों की बददिमागी तो आए दिन सड़कों पर देखने मिलती है जब वे ट्रैफिक सिपाही को भी हड़काते हुए धमकाते हैं कि वह नहीं जानता कि वे कौन हैं।

हिन्दुस्तान में अपने तथाकथित इतिहास के झूठे गौरव का दंभ बहुत है, लेकिन अपने आज की असभ्यता पर उसे मलाल जरा भी नहीं है। सार्वजनिक जगहों पर हिन्दुस्तानी लोग दूसरों की जिम्मेदारी, और अपने अधिकार की ही सोचते रहते हैं।

फिर वे दूसरों की जिम्मेदारी को आसमान की ऊंचाईयों तक साबित करते हैं, और अपने अधिकार को भी विकराल मानकर चलते हैं। नतीजा यह होता है कि सार्वजनिक जगहों और सार्वजनिक जीवन में हिन्दुस्तानी लोग अपने सबसे क्रूर रूप में सामने आते हैं।

वहां पर उनकी गाडिय़ों का हॉर्सपावर उनके अहंकार के साथ जुडक़र उन्हें अधिक हिंसक बना देता है।

दुनिया के सभ्य देशों के लिए राष्ट्रवादी हिन्दुस्तानियों के मन में घोर हिकारत है कि वे पश्चिमी सभ्यता वाले हैं, वहां का समाज बदचलन है, वहां पर अश्लीलता और नग्नता की संस्कृति है।
लेकिन ऐसे हिन्दुस्तानी पश्चिम के उन विकसित और सभ्य लोकतंत्रों के बारे में यह नहीं देखते हैं कि वहां पर पैदल और पैडल का सबसे अधिक सम्मान है।

वहां पर सड़क पार करने के लिए अगर एक पैदल इंसान ने एक कदम बढ़ा दिया है, तो दोनों तरफ का सारा ट्रैफिक थम जाता है। हिन्दुस्तान में पैदल और पैडल को अपनी राह से अलग फेंकने के लिए लोग गाडिय़ों में एक्स्ट्रा हॉर्न लगवाकर रखते हैं कि मानो ध्वनितरंगों से ऐसे गरीब लोगों को धकेलकर किनारे फेंक दिया जाएगा।

यह सिलसिला इतना आम है कि हिन्दुस्तानी इसे जीने का एक ढर्रा ही मानकर चलते हैं, और शायद ही किसी हिन्दुस्तानी को यह फिक्र रहती होगी कि गाड़ी में साथ चल रही अगली पीढ़ी भी ऐसी ही बदतमीजी और बददिमागी सीख लेगी।

रायपुर में कल हुई यह घटना कई मामलों में अटपटी और अजीब है, इसलिए इसे मिसाल मानकर अधिक लिखना ठीक नहीं है। लेकिन सडक़ों पर होने वाली हिंसा में कई बार बेकसूर मारे जाते हैं, और फिर वे चाहे कारों में चलने वाले संपन्न लोग ही क्यों न हों। ऐसी जितनी घटनाएं याद पड़ रही हैं उनमें बहुत सी घटनाओं में बड़ी-बड़ी गाडिय़ां या बददिमाग महंगी मोटरसाइकिलें शामिल रहती हैं, जिनके मालिक अपने को सडक़ों का भी मालिक समझते हैं।

छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह दिक्कत भी रहती है कि पुलिस के साथ होने वाली बदसलूकी के जवाब में पुलिस कोई कड़ी कार्रवाई नहीं कर पाती क्योंकि ऐसे बदसलूक लोगों को किसी न किसी किस्म की ताकतवर हिफाजत हासिल रहती है।

यह भी मुमकिन है कि ऐसी बेइज्जती झेल-झेलकर पुलिस का मनोबल ही टूटा हुआ रहता है, और वह राजनीतिक दलों या प्रेस के स्टिकरों वाली गाडिय़ों को छोड़ते-छोड़ते हर बड़ी गाड़ी को छोड़ने लगते हैं।

नतीजा यह निकलता है कि सड़कों पर अराजकता एक आम बात हो जाती है। लेकिन हमारे लिखे हुए इन तमाम तर्कों में से एक भी तर्क कल की इस घटना की वजह नहीं समझा सकता जो कि बहुत ही अलग है, बहुत ही अजीब है।

यह तो इस लड़की के परिवार के लोगों को मनोचिकित्सकों से मिलकर यह समझना चाहिए कि उसकी ऐसी हत्यारी दिमागी हालत क्यों हुई है?

यह घटना इस किस्म की किसी और घटना की याद नहीं दिलाती, और इसलिए इसे बिल्कुल ही अलग मानकर पुलिस को भी इसका विश्लेषण करना चाहिए कि इस पीढ़ी के बीच ऐसी सोच आई कैसे, इतनी हिंसक कैसे हुई?

लेखक दैनिक छत्तीसगढ़ के प्रधान संपादक हैं।

 



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