संजय शेफर्ड।
हम सब डरे हुए हैं। लड़कियां हम सबसे थोड़ी ज्यादा डरी हुईं हैं और औरतें थोड़ी और, यानि लड़कियों से भी ज्यादा।
उपाय यह है कि बाहर माहौल कैसा भी हो दहलीजें सुरक्षित होनी चाहिए और हमें मान लेना चाहिए कि लड़कियां अपने आपको एक दहलीज़ के अंदर ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं इसलिए घर को एक बंद पिंजड़ा बना देना चाहिए। तुम्हें दाना पानी सबकुछ मिलेगा, बस उड़ने की आज़ादी नहीं है, हम बस तुम्हें उड़ना नहीं सिखाएंगे।
बाहर जो भी हो रहा है होने दो, आपकी अपनी बेटी- बहन के साथ तो नहीं हो रहा है ? नहीं हो रहा ना? क्या आप पूरी तरह से श्योर हैं? क्या आपने उनसे पूछा? क्या कभी आपने उनसे सेक्स के बारे में बताया? नहीं तो एक बार प्यार से पूछ कर देखना। भाई, मौसा, फूफा, मामा, यहां तक कि सगा बाप भी…इससे ज्यादा क्या बताएं आपको। पिंजड़े के अंदर भी लड़कियां कितनी सुरक्षित हैं ?
और इसमें गलती आपकी भी है? आप मां हैं, बहन हैं, बेटी हैं, इन सबसे ऊपर एक औरत हैं। बलात्कारियों को कंसेंट आप ही तो देती हैं। छोटे कपड़े मत पहना करो? अकेले कहां जा रही हो? इतनी रात को क्यों निकल रही हो ? छाती उघाड़कर क्यों रखती हो, टांग फैलाकर क्यों बैठती हो, इतनी जोर- जोर से क्यों हंसती हो? बेहया हो, बेख़बर हो, बेसलीका हो? यह सब आपने ही तो कहा था। याद है आपको?
अब हर बलात्कारी को लगता है कि लड़की छोटे कपड़े पहनती है तो उसका रेप किया जा सकता है, लड़की अकेली है तो उसका रेप किया जा सकता है, अगर लड़की रात को घूम रही है तो उसका रेप किया जा सकता है। छाती उघाड़ है तोए बेढंग हो, टांग फैलाकर बैठी है तो शील- स्वभाव की कमी होगी, जोर- जोर से हंस रही है तो आवारा हो गई हो। और बेहया, बेख़बर, वेश्या के बारे में क्या बताएं? उनका शरीर तो पुरुष जाति का जन्मजात गिरवी होता है। है ना? इनका तो हर रात बलात्कार किया जा सकता है?
आखिर आपने ही तो कहा था? अब बलात्कार तो होगा ही। लेकिन छाती उघाड़ रखने वाली लड़कियों का नहीं, टांग फैलाकर बैठने वाली लड़कियों का नहीं, जोर- जोर से हंसने वाली लड़कियों का नहीं। उन लड़कियों का नहीं, जिन्होंने बेहया, बेढंग, बेसलीका होना खुद चुना है। इनका तो कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता है। क्योंकि यह लड़कियां आपकी सोच और समझ दोनों को ठेंगे पर रखती हैं।
जिन्हें आप मान- मर्यादा और इज्जत- प्रतिष्ठा से जोड़ती हैं, वह उन्हें बस शरीर का एक अंग से ज्यादा कुछ भी नहीं समझती। वह अपनी छाती, जांघ, कमर और कंधे को लेकर उतनी ही सहज हैं जितना की शरीर के अन्य तमाम अंग। एक बार सोचकर देखना। जिन्हें तुम्हारी खुली हुई छाती, नाभि और पीठ से परहेज़ है, उन्हें ही एक समय बाद तुम्हारी टखने और टांग से परहेज़ हो जाता है। ढंको अपने आपको कितना ढंकोगी ?
बहुत अच्छा होगा कि जो औरतें अपनी बेटियों को अभी तक बंद तिजोरी कहती आईं हैं, जल्द से जल्द यह बताना शुरू कर दें कि बेटियों तुम एक खुली हुई देह हो, तुमसे ममत्व है, और तुमसे ही प्रेम भी।
हां, बलात्कार ज्यादातर मामलों में उन लड़कियों का होता है जिन्हें कभी आपने उड़ना ही नहीं सिखाया। जिन्हें कभी आपने अपने घर की दहलीज से बाहर निकलने ही नहीं दिया। जिनका आपने बाहरी दुनिया से कोई परिचय ही नहीं होने दिया। जिनमें जाने-अनजाने में सिर्फ यह अहसास भर दिया कि तुम मां, बहन, बेटी, पत्नी और प्रेयसी से परे सिर्फ एक देह हो। अपने आपको तुम ढककर रखो, शरीर का एक अंग भी बाहर नहीं निकलना चाहिए।
अंग का बाहर निकलना तुम्हारा आमन्त्रण माना जाएगा, भर आंख देखना सहमती, इसलिए आंख और कान बंद रखो, नजरअंदाज करना सीखो, और अपने आपको अपनी ही देह में इस कदर कैद कर लो कि तुम्हारी आत्मा किसी को नजर ही नहीं आये, यानि कि तुम दृश्य के बाहर और भीतर सिर्फ देह हो। तुम क्या हो गई हो? तुम्हें क्या बना दिया गया है? तुममें तुम्हारी कोई आत्मा नहीं है।
बलात्कार में ज्यादातर उन लड़कियों को शिकार बनाया जाता है, जो विरोध करने, खुदकी राह चुनने, खुदकी आवाज़ सुनने से कहीं किसी मोड़ पर चूकती नजर आती हैं। एक बार तुम खुद सोचकर देखो ना जब तुम तुममें नहीं नजर आओगी तो दुनिया तुम्हें एक देह ही तो समझेगी ? क्योंकि देह को नोचना, खसोटना, जख्मी और लहुलुहान करना आसान है, इसलिए पहला वार तुम पर होता है, कई बार छटपटहट में तुम बाहर निकल आती हो, कई बार तुम्हें तुममें ही दबा या फिर दफ़न कर दिया जाता है।
यह वह देश है, जहां शादी के पहले या बाद 60 फीसदी लड़कियों को जिन्दा लाश बना दिया जाता है।
आवारा लड़कियां तुम्हारी बनाई छुईमुई लड़कियों से ज्यादा सुरक्षित महज इसलिए होती हैं, क्योंकि दैहिक सहजता के बावजूद, बेढंग, बेतरतीब जिंदगी के बावजूद उनकी आत्मा अक्सर देह से बाहर निकल चीखती रहती है। वह अपने साथ एक शोर लिए चलती हैं। वह अपने आसपास के लोगों को हमेशा इस बात का अहसास कराने में सफल साबित होती हैं कि वह खुद में जिन्दा हैं और आपकी नसीहत से उनको ढेला फर्क पड़ने वाला नहीं है।
आवारा लड़कियां किसी की इज्जत- प्रतिष्ठा नहीं होती। किसी की मान- मर्यादा नहीं होती। किसी का स्वाभिमान- गुरुर नहीं होती। बावजूद इसके सबसे ज्यादा अपनी खुद की होती हैं, दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा खुद से प्यार करती हैं, उन्हें पता होता है कि खुद की इज्जत कैसे करनी है, उन्हें पता होता है कि खुद को प्यार करना, खुद की जिन्दगी जीना कितना सकूनदेह है।
सोचकर देखिये ना आपका छोटा-छोटा डर आपकी बेटियों पर कितना भारी पड़ रहा है।
मैंने कहा ना? हम सब डरे हुए हैं। लड़कियां हम सबसे थोड़ी ज्यादा डरी हुईं हैं और औरतें थोड़ी और यानि लड़कियों से भी ज्यादा। पर डर कैसा भी हो, थोड़ा, ज्यादा, बहुत ज्यादा कहकर जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह इन समस्त डरों से बाहर निकलने और कूट करने का वक़्त है।
इसलिए लड़कियों बाहर निकलो। पड़ोस वाली दुकान पर बैठकर अलट-पलटकर घंटों न्यूज़पेपर पढ़ो, खाली समय में गप्पें मारो। चाय और पनवाड़ी की दुकान से लेकर नाई, धोबी और दर्जी की दुकान तक फैल जाओ। बाल काटो, कपड़े प्रेस करो, और अपनी नाप के कपड़े सिलो। हर चाक, हर चौराहे, गली के हर मोड़, हर जगह नजर आओ। इस तरह नजर आओगी तो लोगों को एक दिन तुम्हारी आदत पड़ जाएगी, इस तरह नजर आओगी तो तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को किसी और वैकल्पिक सुरक्षा की जरुरत नहीं पड़ेगी।
हिंदी माफिया से
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