ममता यादव।
इंसानियत शर्मसार होती है हैवानियत के आगे हर बार जब भी ये खबर आती है कि फलां जगह पर फलां महिला या बच्ची या लड़की के साथ रेप या गैंगरेप हो गया। जहालत की हद भी यहां तब पार कर जाती है जब दरिंदे अपनी हवस की प्यास बुझाने के बाद शिकार को मारने के लिये निर्मम तरीके अपनाते हैं।
42 साल पहले अरुणा शानबाग के साथ जो हुआ वह आज भी जारी है। हर क्षेत्र में हर जगह । बल्कि अब महिलाओं के बलात्कार के भी नये तरीके इजाद हो गये हैं मसलन टेक्नॉलाजी का सहारा भी लिया जा रहा है। सोशल साईट पर अश्लील टैगिंग,कमेंट,मैसेज जैसे इन सबसे किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है तो सिर्फ उन्हें जो ऐसे लोगों के निशाने पर होती हैं। अगर इसके खिलाफ कोई महिला कड़वा सच लिखती भी है तो सोशल मीडिया में सक्रिय पुरूष ये जरूर लिखते हैं लड़कियां दोषी हैं। बलात्कार होता है तो भी कहा जाता है लड़कियां दोषी हैं।
कई मंत्री नेता और यहां तक बड़े पदों पर बैठी महिलायें भी कह चुकी हैं कि महिलायें दोषी हैं क्योंकि उनका पहनावा ठीक नहीं होता। मान लिया महिलाओं का पहनावा ठीक नहीं होता लेकिन कोई इस सवाल का जवाब क्यों नहीं देता कि उस दो-ढाई साल की बच्ची का या फिर एक 60 वर्षीय वृद्धा का पहनावा कैसा रहा होगा जिसने इन हैवानों की कामपिपासा को जगाया। 42 साल पहले तो ऐसे पहनावे चलन में ज्यादा नहीं थे फिर अरुणा क्यों शिकार बनीं?
समाज और परिवार के दोहरे रवैये का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि असीम यातना झेल चुकी अरुणा से उनके परिजनों ने भी नाता तोड़ दिया। उन्हें छोड़ दिया मरने तड़पने अस्पताल में। सैल्यूट हॉस्पिटल मैनेजमेंट और वहां की नर्सों को जिन्होंने अरुणा को 42 साल बच्चों की तरह सम्हाला।
अरुणा ने जो शारीरिक और मानसिक यातना झेली उससे कहीं बड़ी यातना उनके परिवार ने उन्हें दी उनसे मुंह मोड़कर। अगर परिवार का संबल होता तो शायद वे तिल-तिल न मरतीं और शायद इच्छामृत्यु की मांग नहीं करतीं।
बात होती है इक्कसवीं सदी की। लेकिन इस सदी की आधुनिकता अंदर ही अंदर इंसान को संवेदनाहीन और खोखला बना रही है। महिलाओं के बारे में मानसिकता नहीं बदल पाई है। शिकार करने, निशाना साधकर हासिल करने के तरीके बदले हैं लंकिन पुरूषों की नियत में बदलाव नहीं आया है। सिर्फ उपभोग की वस्तु है महिला यह सोच आज भी तमाम दावों के बावजूद पुरुष मन की कंदराओं में गहरे तक पैठी हुई है।
आज भी कई इलाकों में बलात्कार पीडि़ताओं का शुद्धिकरण कराने की प्रथा है। ताजा मामला गुजरात के इलाके का है जहां एक महिला के साथ गैंगरेप हुआ वह गर्भवती हो गई। कोर्ट से उसने गर्भ गिराने की इजाजत मांगी नहीं मिली। कबीले वालों ने उसकी शुद्धिकरण की बात की। शुद्धिकरण के बाद ही उस महिला को उसके ससुराल और मायके वाले अपनायेंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि अरुणा शानबाग 42 साल में 42 हजार बार रोज मरी होंगी। आखिरी सांस तक वह पुरुषों की आवाज से डरती रहीं।
हैरानी की बात यह है कि भारत में कई सामाजिक संस्थायें महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा बलात्कार आदि के खिलाफ लडऩे की बात करती हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई तो यह है कि भारत से प्रेजेंटेशन तैयार कर विदेशों की कानफ्रेंस में तथ्य पढ़कर वाहवाही लूटने वाले लोग यहां जमीनी स्तर पर उतना काम नहीं करते जितना होना चाहिये। बात करते हैं मुस्लिम देशों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की लेकिन उतनी प्रमुखता से यहां की बात नहीं करते। जबतक यह दोहरा रवैया नहीं बदलेगा बयालीसियों अरुणायें तिल-तिल मरती रहेंगी।
नोट यह आलेख वर्ष 2015 में अरूणा शानाबाग की मौत के बाद लिखा गया था।
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