ममता सिंह।
देश में आज के समय में असहिष्णुता का शिकार सबसे अधिक स्त्रियां हैं। स्त्रियों के प्रति ये अनुदारता समान भाव से हर उम्र,जाति,धर्म के पुरुषों के मन में छुपी हुई है। यकीन न हो तो स्त्रियों के ऊपर कोई पोस्ट डालिए,सभी आयु वर्ग के लोग टूट पड़ेंगे स्त्रियों के विरोध में हिंसा केवल शारीरिक नहीं होती,मानसिक भी होती है।
अधिकतर पुरुषों में स्त्रियों को लेकर दबी-छुपी नफरत और प्रतिद्वंदिता का भाव होता है,आप किसी स्त्री के बारे में बोलिये लोग कुतर्क लेकर खड़े हो जाएंगे कि अजी मैडम किस जमाने की बात कर रहीं आप,आज की औरतें बड़ी तेज हैं।
आपने भी पत्नियों पर बेशुमार चुटकुले पढ़े होंगे जो हास्य से ज्यादा खीझ उत्पन्न करते हैं.
कुछ लोग अपने बूढ़े माँ-बाप को गांव में छोड़ शहर में रहने आ जाते हैं,यहां पत्नी तय करती है कि कद्दू बनेगा या पनीर,महीने में एकाध बार किटी पार्टी,ब्यूटी पार्लर जाने वाली पत्नी,जीन्स पहन कॉलेज जाती बेटी को देख इन्हें लगता है अब स्त्रियां स्वतंत्र हैं,सुखी हैं....जो स्त्रियों पर लिखा जा रहा वो पुराने जमाने के किस्से हैं,पर इनकी नजर अपने आसपास नहीं जाती।
कुछ दिन पहले फेसबुक पर रोहिंग्या औरतों के बारे में एक पोस्ट खूब चेंपी गई...मैं रोहिंग्या समर्थक नहीं हूं पर उन औरतों पर लिखी पोस्ट पढ़कर अवाक रह गई..लिखा था।
"कश्मीर में शरण लिए हुए सोलह हजार रोहिंग्या औरतें गर्भवती,ये शरण लेने आई हैं या हनीमून मनाने.."......शर्म आती है इस तरह की सोच पर, जरा भी संवेदनशील व्यक्ति होगा तो ये जरूर सोचेगा कि इन औरतों ने कितनी ज़िल्लत, ज़लालत झेला होगा यहां तक के सफर में क्योंकि किसी भी विभीषिका में पुरुष जान से एक बार जाता है पर औरत हजारों बार मरती है...वो औरतें चार्टर्ड प्लेन से नहीं आई थीं,न ही पांच सितारा होटल में ठहरी थीं,यहां तक के सफर में जाने कितनी बार उन्हें अपनी जान की कीमत देह से चुकानी पड़ी होगी....अब कृपया यहां काउंटर के तौर पर हिन्दू औरतों के साथ हुई ज्यादती को न जोड़ियेगा क्योंकि मेरे कहने का आशय यही है कि युद्ध हो या दंगा औरतें हमेशा नरम चारा ही रही हैं इन हिंसक पशुओं के सम्मुख। इनकी न कोई जाति है न धर्म,ये केवल पुरुष होते हैं उस वक्त।
और हाँ आज के समय को कोसने के बजाय स्वीकार करिये कि अधिसंख्य पुरुष मांसभक्षी जानवर रहे हैं हर देश,हर काल,हर परिस्थिति में...यकीन न हो तो मंटो की कहानी "खोल दो" पढ़िए..पढ़िए मंटो की ही "ठंडा गोश्त"अमृत राय की "व्यथा का सरगम"पढ़िए....इतने पर भी यकीन न हो तो यशपाल की" झूठा -सच" पढ़िए और अगर दिल दिमाग बिल्कुल कुंद हो गए हैं तो अभी मुम्बई के एलफिंस्टन ब्रिज पर जान बचाती लड़की के जिस्म को टटोलते शैतान का किस्सा पढो.....पढो और सोचो कि जो तुम्हारी पूरक है,जो सृष्टि को बचाने और चलाने के लिए महत्वपूर्ण है उससे कैसी और क्यों असहिष्णुता...स्त्री किसी भी देश,जाति, मजहब की हो उनकी समस्याएं,दुश्वारियां कमोबेश एक जैसी ही होती हैं।
पूछो अगर हिम्मत है अपनी माँ से कि क्या उनसे पूछा गया था कि. .."तुम गर्भ धारण करने के लिए शारीरिक,मानसिक तौर पर तैयार हो?" या आपका जन्म रवायत के तौर पर ही हुआ....
पूछा तो आज भी नहीं जाता औरतों से गर्भवती होने न होने के संदर्भ में(नौकरी पेशा औरतों को जरूर सहूलियत मिलती है वो निश्चित करें कि कब गर्भ धारण करना है ताकि पैसों की अबाध आपूर्ति होती रहे)।
स्त्रियों के हँसने, बोलने,चलने,पहनने का पोस्टमार्टम करने वालों अपने गिरेबाँ में झांको जरा।
राजनीति में भी औरतों पर भद्दे पोस्ट,टिप्पणी करने वाले लोगों की भरमार है, ये हमारे समाज की बीमार मानसिकता ही है जो केवल अपने घर की स्त्रियों को ही स्त्री समझते हैं बाकी को उपहास और मनोरंजन की विषय वस्तु।
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