राकेश दुबे।
भारत की संस्कृति जहाँ नारी के पूजन की पक्षधर है, वाही नारियों के साथ रोजमर्रा का व्यवहार अत्यंत क्रूर है । गुजरात के वडोदरा के गैर सरकारी संगठन ‘सहज’ और इक्वल मेजर्स २०३० के एक सर्वे के अनुसार भारत में करीब एक-तिहाई शादीशुदा महिलाएं पतियों से पिटती हैं।
सन्गठन ने एक व्यापक सर्वे के बाद यह निष्कर्ष निकाला हैं। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि १५ से ४९ साल के आयु वर्ग की महिलाओं में से करीब २७ प्रतिशत महिलाएं १५ साल की उम्र से ही घरेलू हिंसा बर्दाश्त करती आ रही हैं।
इसके सबके बावजूद विडंबना यह है कि इनमें से ज्यादातर को इससे कोई खास शिकायत भी नहीं है। मतलब यह कि उन्होंने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया है।
भारत में पिछले कुछ साल से घर से लेकर सड़क और कार्यस्थल तक महिलाओं के उत्पीड़न का मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बना है। मीटू आंदोलन ने इसे और ऊंचाई दी है और खासकर कामकाजी दायरे में यौन शोषण के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। इसके विपरीत खास बात यह है कि अभी सारी बहस महिलाओं के सार्वजनिक जीवन को लेकर ही हो रही है।
इस बारे में तो अभी बात शुरू भी नहीं हुई है कि घर के भीतर उन्हें कैसे गरिमापूर्ण जीवन हासिल हो। इस विषय पर चर्चा शायद इस लिए भी नहीं होती कि भारत में घर को एक पवित्र जगह के तौर पर देखा जाता है और इसके भीतरी माहौल को सार्वजनिक चर्चा के दायरे में लाना मर्यादा के खिलाफ समझा जाता है। घर के भीतर होने वाली घटनाएं घर के सदस्यों का निजी मामला मानी जाती हैं।
घर-आंगन में कामकाज और प्रतिष्ठा के बीच पिस रही औरतों के अधिकार का प्रश्न बीच में एक बार उठा, जिससे निपटने के लिए घरेलू हिंसा कानून बनाया गया। लेकिन उसका भी अनुपालन इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि प्राय: स्वयं महिलाएं ही परिवार की मर्यादा पर आघात नहीं करना चाहतीं। फिर उन्हें यह भी लगता है कि पति के खिलाफ जाने से उनका जीवन संकट में पड़ सकता है।
इसका एक कारण पति पर उनकी आर्थिक निर्भरता होती है लेकिन जो महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती हैं, वे भी घरेलू हिंसा कानून का सहारा नहीं लेतीं क्योंकि उन्हें यह डर सताता है कि परिवार से अलग होते ही वे न सिर्फ लंपट पुरुषों के बल्कि पूरे समाज के निशाने पर आ जाएंगी। सचाई यह है कि कोई अकेली आत्मनिर्भर महिला भी चैन से अपना जीवन गुजार सके, ऐसा माहौल हमारे यहां अभी नहीं बन पाया है। कुछ महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य के लिए घरेलू हिंसा बर्दाश्त करती हैं।
इस सारी समस्या के समाधान के लिए महिलाओं को शिक्षित,सशक्त और आत्मनिर्भर बनना चाहिए। सरकारी पहल पर नौकरी से लेकर कारोबार तक में उनकी भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन सबसे बढ़कर परिवार के प्रति हमारी धारणा बदलनी चाहिए।
परिवार स्वतंत्र मनुष्यों का आपसी रिश्ता है। महिला कोई प्रस्तर प्रतिमा नहीं, जिसके भीतर किसी के साथ कोई कुछ भी कर गुजरे। इसलिए जहां भी उत्पीड़न देखें,शिकायत करें। यह सोचकर चुप न बैठें कि कल कोई आपकी या आपके परिवार इज्जत भी चौराहे पर उछाल जाएगा। बोलिए,अपनी—अपनी खातिर
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