गाँव के लोगों की सबसे बड़ी ताकत है उनका आत्मसम्मान। तो वो चैरिटी क्यों लें।वहां भिखारी नहीं होते
वीथिका
Aug 08, 2015
मल्हार मीडिया
किसी को पुराने कपडे देकर आप ये मत सोचिये कि आपने उस पर अहसान किया है बल्कि उसका अहसान मानिये कि उसने आपकी उस चीज को स्वीकार किया जो पहले आपके मन से उतरा फिर तन से उतरा। यह कहना गूंज संस्था के संस्थापक अंशु गुप्ता का। अंशु गुप्ता ने ये बात एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में कहीं थीं। अंशु कहते हैं "मैने कभी कपड़े को चैरिटी से जोड़कर नहीं देखा। गाँव के लोगों की सबसे बड़ी ताकत है उनका आत्मसम्मान। तो वो चैरिटी क्यों लें। आप किसी को थोड़ी देर भूखा बिठा दो तो वो बैठ लेगा लेकिन अगर किसी को कहें कि अपनी शर्ट उतार दे तो वो नहीं करेगा। मैने कपड़े की अवधारणा को विकास से जोड़ा।"अंशु यह भी कहते हैं कि आप नोटिस करिये गांव में आपको भिखारी नहीं मिलेंगे। भिखारी शहरों में होते हैं।
अपने काम के लिए इस साल मैग्सेसे पुरस्कार जीतने वाले अंशु गुप्ता का कहना है कि उन्होंने अपनी संस्था का काम बिना सरकारी मदद के सिर्फ लोगों के सहयोग से चलाया है और कपड़े को सम्मान से जोड़कर एक नई सोच विकसित करने की कोशिश की है।
अंशु गुप्ता ने कॉरपोरेट की नौकरी छोड़कर 1999 में एनजीओ गूंज की स्थापना की थी। इसमें उनका साथ दिया पत्नी मीनाक्षी गुप्ता ने। दोनों ने मिलकर महिलाओं के लिए सैनिट्री पैड पर भी काम किया है जो गरीब महिलाओं को आसानी से मिल सकें.
बीबीसी के हैंगआउट में अंशु की पत्नि मीनाक्षी गुप्ता ने कहा, "ये सपना और सोच दरअसल अंशु की थी। हमने देखा कि महिलाओं के पास माहवारी के दिनों में साफ़ कपड़े नहीं होते।. वो गंदा से गंदा कपड़ा इस्तेमाल करती हैं। राख मिट्टी तक इस्तेमाल करती हैं। उनको समझ नहीं होती कि ये स्वास्थ्य का मुद्दा बन सकता है। तब हमने सोचा कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए और उन्हें साफ़ कपड़ा मुहैया करवाया जाए।"
अंशु गुप्ता ने कहा कि उनकी टीम ने कभी रिश्वत का सहारा नहीं लिया। उनका कहना था, "दिक्कत काम में होती है जब आप तय कर लेते हैं कि आप रिश्वत नहीं देंगे। हमारे ट्रक रोक लिए जाते हैं लेकिन हम रिश्वत नहीं देते। कोई कितने दिन हमारा ट्रक सड़क पर रोके रखेगा। आख़िर हमें जाने की अनुमति मिल जाती है।"
कैसे बना गूंज
अंशु गुप्ता ने 1999 में गूंज संस्था की स्थापना की थी। यह एनजीओ गरीबों के लिए वस्त्र उपलब्ध कराने के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गूंज की शुरुआत और गरीबों के लिए कपड़े इकट्ठा करने की शुरुआत अंशु गुप्ता ने एक गरीब बच्ची के कहने पर की, उस बच्ची ने कहा था कि ठंड के दिनों में हमारे पास कपड़े नहीं होते, तो मैं अपने पिताजी से चिपककर सो जाती हूं, तो उनके बदन से मुझे गर्मी मिल जाती है। दिक्कत तब होती है, जब वे करवट बदलते है। अंशु गुप्ता को तब लगा कि कपडे हमारी कितनी बड़ी जरूरत है और यह हर एक शख्स को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होनी चाहिए। गूंज की शुरुआत अंशु गुप्ता ने अपनी पत्नी मीनाक्षी के साथ मिलकर की थी और वर्तमान में यह संस्था करीब-करीब सौ टन सामग्री जरुरतमंदों के लिए हर महीने इकट्ठा करके वितरित करती है।
अंशु गुप्ता का एनजीओ शहरी इलाकों से लोगों के गैरजरूरी कपड़े, जूते, खिलौने, फर्नीचर, किताबें और दूसरी वस्तुएं इकट्ठा करता है। उन तमाम वस्तुओं को उनके आकार, प्रकार के हिसाब से वर्गीकृत किया जाता है और फिर जरुरतमंदों की मदद के लिए ग्रामीण इलाकों में भेज दिया जाता है। ग्रामीण महिलाओं के लिए गूंज हर महीने करीब दो लाख नैप्कीन बनाती और भेजती है, ताकि महिलाओं को अपने नियमित मासिक धर्म के दौरान अस्वच्छता का सामना न करना पड़े। यह सारा सामान ग्रामीणों को नि:शुल्क नहीं दिया जाता, बल्कि उन्हें उसके लिए सोशल वर्क करना होता है। जैसे सड़कों के गड्ढे भरना, कुएं खोदने में मदद करना और हस्तउद्योग के छोटे-मोटे उत्पाद तैयार करना। 21 राज्यों में गूंज संस्था के सहयोगी के रूप में 250 ग्रुप काम कर रहे है। इसके 10 कार्यालय है और 150 पूर्णकालिक कर्मचारी और हजारों स्वयंसेवक।
वर्तमान में गूंज का सालाना कारोबार करीब चार करोड़ रुपए है। करीब एक लाख रुपए रोज। इसमें से आधा पैसा उन्हें संस्था द्वारा उत्पादित सामग्री से मिलता है और बाकी सहयोग राशि के रूप में। अंशु गुप्ता बिना किसी की सलाह के अपना काम करते रहते है। उनका नारा है ‘लगे रहो’।
इनपुट बीबीसी और एनडीटीवी
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