शीराज़ हसन , बीबीसी
दक्षिण एशिया के महान कहानीकार सआदत हसन मंटो जिन्होंने ग़ालिब के शेर का सहारा लेकर ख़ुद अपने बारे में कहा था "लौह-ए-जहां पर हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूं मैं."जीवन भर वह मुश्किलों के शिकार रहे लेकिन उन्होंने उर्दू साहित्य का दामन अपनी कहानियों से मालामाल कर दिया.
पाकिस्तान की सरकार ने उनकी मौत के पचास साल बाद उनकी महानता को स्वीकार करते हुए उन्हें सितारा-ए-इम्तियाज़ से सम्मानित किया लेकिन मंटो को आज भी वह स्थान नहीं मिला जिसके वे असल में हक़दार थे.
सआदत हसन मंटो अफ़साना लिखते हुए ख़ुद एक अफ़साना बन गए और यह अफ़साना शायद अभी भी अधूरा है.लाहौर में हॉल रोड के पास स्थित लक्ष्मी मेन्शन में मंटो ने अपने जीवन के अंतिम साल गुज़ारे थे. इस घर में उन्होंने कुल सात साल, आठ महीने और नौ दिन बिताए.दुकानों से घिरे लक्ष्मी मेन्शन के इस घर के बाहर आज भी सआदत हसन मंटो के नाम की तख़्ती लगी हुई है लेकिन सरकारी काग़ज़ों में अब यह घर उनकी मिल्कियत नहीं रही.
मंटो की बड़ी बेटी निगहत पटेल इसी घर में रहती थीं लेकिन अब उनका परिवार इस घर को बेचकर किसी दूसरी जगह जा चुका है.बीबीसी से बात करते हुए निगहत पटेल ने कहा कि यह पूरा इलाक़ा अब मार्केट में तब्दील हो गया है, जहां अब आने जाने में भी मुश्किल होती थी. उनके अनुसार इसी वजह से उन्हें यह घर छोड़ना पड़ा.
निगहत पटेल ने बताया कि विभाजन के बाद जब वह इस घर में आईं तो वह एक साल की थीं और मंटो की मौत के समय उनकी उम्र नौ साल थी, उन्हें अफ़सोस है कि वे अपने पिता के साथ ज़्यादा समय नहीं बीता सकीं और उनकी स्मृति में भी अपने पिता की धुंधली-धुंधली यादें हैं.उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में मंटो को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे और न ही सरकार ने इस ओर ख़ास ध्यान दिया.लक्ष्मी मेन्शन में पुराने रहने वाले लोग मंटो के बारे में जानते हैं.
मंटो के घर के पास रहने वाले डॉक्टर अब्दुर्रज़्ज़ाक का कहना था, "हमारे सामने वाले घर में रहते थे मंटो. मैं उन्हें अक्सर देखता था, घर से निकलते थे और तांगे पर बैठकर जाया करते थे."इसी जगह रहने वाले तारिक़ ख़ुर्शीद ने कहा, "यहीं उनका घर था. उनके परिवार के साथ अच्छे संबंध थे."निगहत पटेल कहती हैं, "लक्ष्मी मेन्शन राजनीतिक गढ़ था लेकिन अब इस इलाक़े में केवल कारोबारी कामकाज़ होता है और अब सुना है कि मंटो का घर भी गिरा दिया जाएगा. सब कुछ ख़त्म हो गया."
घर बिकने की बात कहते-कहते निगहत पटेल की आंखें भर आई.उनके मुताबिक़ जब काराोबारी गतिविधियां धीरे-धीरे लक्ष्मी मेन्शन के घरों को निगल रही थीं तो उन्हें अंदेशा हुआ कि वह उस घर को खो देंगी. फिर वही हुआ. उसके चारों ओर बाज़ार फैल गया और यह इलाक़ा रहने के क़ाबिल न रहा.
उन्होंने बताया कि जब ख़रीदार मकान ख़रीदने का सौदा तय करते थे तो उनका ज़्यादा ज़ोर इस बात पर रहता था कि "मंटो तो इस घर में केवल सात साल रहा है." यह बात सुनकर उन्हें बहुत दुख होता.निगहत को लगता है कि वो ख़रीदार ये बात मकान की क़ीमत कम कराने के लिए कहते थे.
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