रिचा अनुरागी।
यह यादें हैं,जो कभी भूले नहीं भूलती ,और जिन्हें मैं अपने जीवन के खूबसूरत लम्हों में शुमार कर सहेजना चाहती हूँ। शायद इसीलिए आप सबसे इन्हें साझा कर रही हूँ।
सन् 1985 की बात है,मेरे पति डॉ.अशोक जैन की पोस्टिंग नसरूल्ला गंज में थी। भोपाल में पापा अनुरागी जी के घर नीरज अंकल आये हुये थे ,वे मेरी याद करने लगे ,दरअसल मेरी नटखटता के कारण पापा के सभी दोस्तों की चहेती रही हूँ मैं। कुछ ही देर में वहाँ आकाशवाणी वाले मधुर अंकल,धूमकेतू भैया और कुछ मित्र मंडली एकत्र हो गई और आनन -भानन् में तय हो गया चलो ऋछू दीदी से मिलने नसरूल्लागंज चलते हैं।
अचानक चार -पाँच बजे शाम को दो एंबेसेडर कारें आकर बंगले पर आकर रूकती हैं और बाबू दादा की सूचना पर मैं भाग कर बाहर आती हूँ ,दरवाजे पर पिता और पिता तुल्य चाचाओं ,भाईयों को देख जो अनभूती मुझे हुई उसका वर्णन शब्दों में हो ही नहीं सकता ।
मेरे पतिदेव वहाँ ब्लाक मेडिकल ऑफिसर थे कैम्पस में ही घर था ,पलक झपकते ही पूरे गाँव में खबर फैल गई कि ये सब महान आत्माऐं हमारे गाँव में पधारी हुई हैं। देखते ही देखते चाहने वालों की भीड़ हमारे घर पर थी। गाँव वालो ने तय कर लिया कि आज रात कवि सम्मेलन होगा,ना किसी से आज्ञा ली और गाँव एवं उसके आसपास के लगे हुए गाँवों में जिसके पास जो साधन था दौड़ाने लगे।
बिजली की तरह खबर आसपास के गांवों में पहुँच चुकी थी। रात आठ बजे के आसपास गांव की युवा मंडली इन प्रबुद्ध मेहमानों को लेने आ पहुँची, नीरज अंकल तो नाराज क्योंकि उन्हें दूसरे दिन भोपाल से बंबई निकलना था,अब कमान धूमकेतू भैया के हाथ में थी और उन्होंने सबको समझाया कि सुबह—सुबह यहां से निकलेंगे और मैं वक्त पर आपको पहुंचा दूंगा।
ना टेलीफोन ना ही कोई सम्पर्क का ठीक-ठाक साधन पर सभी आश्चर्य चकित थे मंच भी तैयार और मैदान भी श्श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ ।
भुनसारे तक लोग उठने का नाम नहीं ले रहे थे बड़ी मुश्किलों से फिर आने का कवियों ने वादा कियाए तब कहीं जाकर उन्हें मुक्ति मिली पर अभी मुझसे छुट्टी मिलना शेष थी,बेटी थी इतने जल्दी कैसे जाने देती। सो दामाद साहब अड़ गये कि उनके हाथों से बनी मोटी रोटी और उड़द की स्पेशल दाल तो खानी ही होगी। डॉ.साहब आपनी तैयारी में थे और मैं अपनी में।
घर के विश्वसनीय कर्मचारियों को हिदायत दे दी गई कि गाडियों के ड्राइवरों को आधे घंटे घुमाकर नाश्ता-पानी करा कर लाओ ,तब मैंने अपना काम शुरू किया। हैंड ड्रिल मशीन की सहायता से सभी गडियों के टायर जख्मी कर दिये। मैं जो चाहती थी वह हो गया था। ना चाहते हुये भी नीरज अंकल को रूकना पडा आगे के प्रोग्राम सब टाँय—टॉंय फिस्स।
फिर डॉक्टर साहब के हाथ से बने मोटे टिक्कड़ यानी रोटियां,स्पेशल उड़द और मेरी बनाई हुई आइसक्रीम का सबने भरपूर आनंद लिया। फिर मजा ही मजा था एक पूरा दिन और रात मुझे मिली और इस रात रूकने का फैसला नीरज अंकल का था। जाते-जाते नीरज अंकल ने डॉक्टर साहब को गले लगाते हुए कहा,मेरी बेटी को यूं ही खुश रखना,इसकी नटखटता कायम रखना। जाते हुए पापा,और अंकल ने मेरा माथा चूमा दोनों की आँखें नम थीं और मैं ऐसे रो रही जैसे आज ही मेरी विदाई हुई हो।
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