सबको अपना बचपन सबसे प्रिय होता है और फिर बचपन के इंद्रधनुष में अपने-अपने पंसदीदा रंग में पापा हों तो मानो सब मिल गया। मेरे लिये तो यही परम सत्य है। पापा के साथ बचपन में एक फिल्म देखी थी अशोक कुमार और सुमिता सन्याल की" आशीर्वाद "। उसका एक गीत मैं आज भी गुनगुनाती हूँ-
एक था बचपन एक था बचपन,छोटा सा नन्हा सा बचपन, बचपन के थे एक बाबूजी,अच्छे सच्चे बाबूजी टहनी पर चढ़कर जब फूल बुलाते थे....
इस गीत की हर पंक्ति मुझे पापा के इतने करीब ले जाती है कि फिर मुझे दूजा और कोई नही दिखाई देता। एक बार हम बहनें बहुत ही छोटी रही होंगी और हम होशंगाबाद से रेल से भोपाल आ रहे थे तभी बुदनी के घने जंगल में रेल पटरियों के साथ-साथ झाड़ियों पर दौड़ते हुये फूल भी नजर आने लगे उन्हें देख प्रज्ञा दीदी जिद कर बैठी पापा मुझे वे ही फूल चाहिए। पापा समझा रहे थे तभी वहाँ एक घाट आता है जहाँ आज भी ट्रेन धीमी हो जाती है। जैसे ही ट्रेन धीमी होने लगी तभी किसी ने ऊपर की सीट पर से ही चैन ऐसे खीच दी लगा किसी खिलौने की डोरी हो। जब तक पापा कुछ समझते कुछ लोग तो ट्रेन से नीचे थे साथ में कई और लोग भी थे ,कुछ ही देर में फूल हाथों में लिये वे ऊपर आये दीदी को फूल देकर बोले क्या बिटिया इत्ती सी बात के लिये रो ली। दीदी के साथ-साथ हमें भी फूल मिल गये।
पापा ने जब उनसे परिचय पूछा तो वे बोले-कविवर क्या करिए हमारा नाम जानकर। पापा बताते थे कि मैं हैरान था कि उन्हें मेरे बारे में कैसे पता था ?पापा जब भोपाल स्टेशन पर उतरने लगे तो उन्होंने बताया कि वे डाकू पूजा बब्बा हैं और पापा को कवि सम्मेलन में देखा-सुना था। पापा की रचना की एक पंक्ति सुना प्रणाम किया और ट्रेन चल दी । फूलों पर से बात चली तो बता दूं पापा को फूल बहुत पंसद थे और हमारी बगीया में खुश्बूदार फूलों की भरमार थी जिसमें दूर-दूर से लाये गये पौधे थे। जूही,चमेली,रातरानी,चम्पा गुलाब पलाश मोगरा और -भांति भांति के रंग-बिरंगे खुश्बू बिखेरते पुष्प हुआ करते थे ।रात पापा के सिरहाने और सुबह उनके रुमाल में फूल रखने के लिये हम सब तैयार रहते थे कि आज सबसे पहले कौन फूल रखता है ?हम सब का दिल रखने को पापा सब के फूल रखवा लेते और फिर हम सबके तकियों के नीचे सुबह जादूई फूल मिलते ।तरह-तरह के सुगंधित इत्र उनके सुन्दर से लकड़ी के ढ़ब्बे मे होते ।हर आने वाले को किसी भीनी सी खुश्बू से स्वागत करते ।उनकी प्यार रूपी खुश्बू आज भी हर दिल में महकती है । आज सन् 1984 का मिलिन्द चालीसगाँवकर का प्यारा सा खत अचानक पुरानी किताब में से झांकता हुआ नजर आ गया। लगा खत नहीं किताब में सूखा हुआ फूल हो और अपनी खुश्बू से वो मेरी यादों में शामिल होने चला आया हो। मेरा यह छोटा सा प्यारा भाई लिखता है -मई-जून की हवा भरी चांदनी रातों में छत और गार्डन में बिछी सफेद ठंडी चादरों की याद आ गई। सच में पापा के बगीचे में एक साथ बहुत सारे फोल्डिग पलंग बिछते थे फिर सफेद चादर और मच्छरदानी लगती थी तब हम सब तारों भरी रात में रात रानी की खुशबू भरी हवाओं में पापा से एक राज का बेटा लेकर -----वाली लोरी सुनते हुये सपनों में खो जाते थे।प्यारे भाई मिलिन्द मेरी यादों में शामिल होने के लिये शुक्रिया ।

यादों की बगिया में फूलों भरी झुरमुट से फिर झाँकने के लिये आप सबको ले चलूंगी । फिर वही गीत -- चलते-चलते जाने कब इन राहों में बाबूजी बस गये बचपन की यादों में होठों पर उनकी आवाज भी है सांसो में सौपा विश्वास भी है जाने किस मोड़ पर कब मिल जायेगे वो पूछेंगे बचपन का एहसास भी है ------
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