याद-ए-अनुरागी:तेरे घर जो खाना खाये उसका तू मशकूर हो ,सुकरात का जूठा ज़हर दो

वीथिका            Apr 05, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी।

तेरे घर जो खाना खाये उसका तू मशकूर हो , अपनी रोटी खा रहा वो तेरे दस्तरख़ान पर । नगर सेठ का एक बेटा अपनी विरासत में मिली दौलत को छोड़ कर निकल पड़ता है,एक अलग जोत जलाने। हाँ यह जरुर है उसने पुरखों की जमीन-जायदाद, धन-दौलत को छोड़ा था पर अपने पुरखों की दरियादिली-नेकनामी और अपने पिता की मेहमान नवाज़ी को धरोहर समझ अपने साथ ले आया था।

एक फक्कड़ कवि ,प्रतिभाशाली युवक जब अपनी अर्द्धांगिनी, जो स्वयं भी एक पूंजीपति परिवार की बेटी और नगर-सेठ की बहू हो से पूछता है तुम्हें इस पीली माटी अर्थत सोना और विलासिता भरी जिन्दगी चाहिए या मेरी फक्कड़ जिन्दगी और कलम-धर जीवन चाहिए। तब वह शिव की पार्वती बन उसके साथ हो-ली।

यहाँ से शुरू होती है अनुरागी जीवन की तीसरी अहम् पारी। पापा ने तो कभी उन बातों का जिक्र नहीं किया पर माँ गाहे-बागाहे पापा की संघर्ष गाथा सुनाती हैं। नरसिंहपुर कालेज की स्थापना और फिर कई-कई महिनों बगैर रूपयों के घर, चलाना,जिस पर दो-चार साथियों का भोजन ,विद्यार्थियों का चाय-नाश्ते का इंतजाम करना सब माँ का काम था।

माँ सबसे छुपकर मुंह अंधेरे उठकर पुआर की भाजी या कुछ इसी तरह की साग-भाजी तोड़ लाती और अपनी पाक हुनरता से सबको परोसती। उस दौर में नाना और नानी ने भी अपने खुद्दार दामाद के स्वाभिमान को बरकरार रखने की कोशिश की। हम बच्चों को वे किसी ना किसी बहाने से अपने साथ ले जाते अनाज यह कहकर रख जाते कि घर के खेत का है और पास ही तो है सो मिलने आ रहे थे तो लेते आये ,उन्होंने कभी अपनी बेटी-दामाद को झुकने नहीं दिया। पापा की मेहमान नावाज़ी बदस्तूर चलती रही। पर एक दिन यह कालेज साजिशों के चलते बंद हो गया तो फिर होंशागाबाद कालेज की शुरुआत हुई तो सरकार ने इसे लेने की ठानी जो इन्हें पसंद ना था छोड़ कर चल दिये। बब्बा जी के एक चाहने वाले,जाजु सा. इन्हें भोपाल ले आये और सूचना प्रसारण विभाग में अफसर हो गये और अब तो उनके दोनों हाथ खुल गये माँ ने कभी नहीं पूछा कितनी तन्खा है? ऑफिस के क्लर्क को एक दिन अनायास ही माँ मिल गईं तब माँ को उन्होंने बताया कि साहब अपनी आधी तन्खा तो यहाँ काम करने वाले लोगों को बांट देते हैं,जो भी साहब से अपनी जरूरत बता कर दु:खी होता है साहब मुझसे खुद की तन्खा से रुपया दिलवा देते हैं। जिसमें कुछ तो हर बार लेते हैं। एक बार तो पापा अपनी नीलम की कीमती अँगूठी तक दे आये ,जब माँ ने पूछा तो बता भी दिया कि उसे जरुरत थी मुझे मालूम था कि तुम्हारे पास भी घर पर पैसा नहीं है सो उसकी जरुरत देखते हुये अपनी अंगूठी दे दी। कवि सम्मेलनों से लौटने पर उनके गर्म कपड़े कभी उनके शरीर पर नहीं होते वे रास्तें में जो ठिठुरता मिल जाता उसे दे आते। हम भाई बहन अपना बिस्तर किचिन में लगा लेते और बाहर से आये विद्यार्थी हमारी टेबल पलंग पर कब्जा जमाये होते। माँ पहले की ही तरहें सुबह से रात तक सबके भोजन और छोटी-छोटी जरुरतों का ख्याल रखती। पापा ने माँ से अन्दर आ कर कभी नहीं पूछा कि तुम्हारी रसोई में क्या है ,वे बाहर से ही अपनी अन्नपूर्णा को आवाज लगाते विजू देखो यह प्यारे भाई आये हैं कुछ हो जाये और इसी कुछ हो जाये में माँ समझ जाती। भोजन का वक्त हो तो भोजन नाश्ते का समय हो तो नाश्ता माँ को इन्हीं कारणों ने हर-कुछ से बहुत कुछ बनाने में माहिर बना दिया पापा के घर से भरे पेट भी कोई बगैर खाये नहीं जा सकता था। अंतिम समय में भी उन्होंने हम सबको फोन पर ही चटपटी चाट खाने को आमंत्रित किया ,स्वयं छप्पन भोग से रस-मलाई लेकर आये सब को खिलाया खूब लाड़ किया और अलविदा कह दिया। आज भी माँ की पाक कला और पापा की मेहमान नवाजी को उनके चाहने वाले याद करते हैं।

rajendra-anuragiसुकरात का जूठा ज़हर दो

तुम मुझे मत दो , तुम्हारे कीमती पत्थर मुझे मत दो। तुम मुझे मत दो , तुम्हारी बस्तियों में घर मुझे मत दो, मुझे अब आ गया है उदधि मे राहें बना लेना , तुम मुझे मत दो, तुम्हारे कृपा के लंगर मुझे मत दो, अगर दे ही रहे हो दो, मुझे सुकरात का जूठा ज़हर दो, सूर के जैसी नजर दो। सुजाता की खीर के दो भाग कर दो, बदन का फटा चीवर दो, अगर दे ही रहे हो दो, निगाहों में दवा भर दो,                                                                                                    मुझे तुम मसीहा कर दो ।



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