ऋचा अनुरागी।
यादों के उड़न खटोले को जितना उड़ाओ उतनी ही यादें स्वर्णिम आसमान मे रंग- बिरंगे पंखों के साथ उड़ती नज़र आती है। यादों का संसार अनंत और बहुत रंगीन है ,इस बार गुलाल भरे आसमान से आप सबको अनुरागी जी के रंगीन आँगन में ले चलती हूँ ।
मैं होली खेलने से जितना दूर रहती थी ,पापा को होली खेलना उतना ही पंसद था ।होली की तैयारी माँ कई दिनों पहले से करने लगती थी। रंग-गुलाल,मीठा-नमकीन,ठंडाई और पान ।माँ हर छोटी बड़ी चीज का ख्याल खुद रखती,रखे भी क्यों न ,माँ के प्यारे देवरों यानी अनुरागी जी की पूरी मित्र मंडली होली खेलने अनुरागी निवास पर एकत्र होती थी। होली के होलियारों में भोपाल के साहित्यकार, पत्रकार,समाज सेवी,डॉ.,और प्रतिष्ठित लोगों का जमावड़ा रहता था।
दुष्यंत अंकल,शरद जोशी अंकल, फज़ल ताबिश,शेरी भोपाली चाचा,ताज साहब,मधुर अंकल,भगवत रावत अंकल, सोमदत्त गर्ग अकंल,दिलजीत सिह रील,सम्पत चतुर्वेदी, सतीष चतुर्वेदी चाचा, डॉ.बलवापुरी,डॉ.ठंडन,डॉ. एम. पी.सिह और भी बहुत सारी महान आत्माऐं अनुरागी तन-मन लिये एकत्रित होती और खूब रंग जमता ।
माँ के हाथों से बनी स्पेशल ठंडाई,भांग की स्पेशल बर्फी-कचौड़ी,मंगौड़े और नाना प्रकार के व्यंजनों के साथ गुजिऐ शेप वाले पान। इस दिन हम सब बच्चों को भी पान मिलता था ,किसका पान ज्यादा रचा इसकी होड़ रहती थी। सरदार जी रील अंकल के गले में ढ़ोलक लटका होता और सब मिलकर फाग गाते,गीत गाते ,हर आने वालों को पहले रंग डालते फिर गले लगाते ।रंग और भंग दोनों मिल कर काम दिखाते।
एक बार पापा के मुंहबोले बेटे शंकर दीक्षित को भंग प्रसादी चढ़ गई ,फिर तो भाभी जी परेशान माँ से आकर शिकायत कर रही अपने लाड़ले को देखो मचिस की तीलीयों का ढेर लगा रखा है कहे जा रहे हैं ज़रा मनीष को बुलाओ मैं मचिस की तीली से इसकी पिटाई करूंगा और मजाक रात भर चलता रहा ।"हम सब का प्यारा मनीष आज पत्रकारिता के आकाश का चमकता सितारा है ।
होली के पावन पर्व का प्रसाद एक बार मेरे पतिदेव डॉ. जैन ने भी लिया और इसका बेहतरीन लुफ़्त भी उठाया,पापा अनुरागी जी के घर करीने से जमी सन् 55-60तक की मेग्जिनस् धर्मयुग,कदंबनीऔर पुरानी पत्रिकाओं का ढ़ेर लगा कर डॉ.जैन विराजे थे पन्नों को उलट- पुलट कर रहे थे सबसे एक ही सवाल क्या महादेवी वर्मा की शादी हुई थी और वे कई घंटों महादेवी की शादी की तस्वीरें खोजते रहे ।
एक बार यूं हुआ कि पापा को जो भक्त भांग भेजते थे वे किसी कारण वश नही भेज पाऐ ,पापा के पास कोई पिछले साल की तौला भर भांग बची रखी थी, बकौल रामप्रकाश अंकल -कविवर दुष्यंत कुमार का नियम था कि लिकर कंज्यूम करने से पहले भांग पाक का बेस बनाते थे ।वे धुलेडी के सबसे अर्ली विजिटर्स मे से थे।उस बार भी वे आये एन धुलेंडी के दिन अनुरागी जी अफसुर्दा हाल थे। दुष्यंत जी ने वज़ह पूछी उन्होंने बताया तोला भर भांग से क्या होगा ?दुष्यंत जी बोले मेरे लिए तो तोला भर काफी है।
अनुरागी जी ने पूछा बाकी सब का क्या होगा?दुष्यंत जी के दिमाग में स्कीम बन चुकी थी। बोले तेरे दर से भांग का कोई सवाली खाली हाथ नहीं जायेगा।दुष्यंत जी और अनुरागी जी ने इस तोले भर के भांग पाक का सेवन किया। मैं जब पहुँचा तो दोनों महाकवि चने की भाजी को सूंट-सूंट कर ढ़ेर लगा रहे थे। कुछ देर बाद चना भाजी पाक को भांग पाक की तरह तला गया।
इसके बाद हुरियारों ने वाकायदा उसे भांग पाक की तरह खाया। सतीष चतुर्वेदी, नर्मदा प्रसाद त्रिपाठी, महेन्द्र कुमार मानव, जगदम्बा प्रसाद त्यागी, अंबा प्रसाद श्रीवास्तव,सोमदत्त गर्ग, प्रेम त्यागी ,चारू चौधरी बटुक चतुर्वेदी ,राजेन्द्र जोशी आदी आदी जाने कौन कौन ने चना भाजी उर्फ भांग भाजा का पाक खाया। एक दुसरे को देखते हुये सबने साझा आकलन किया कि किसको कितना नशा हो रहा है।
कौन हंसे जा रहा है, कौन पैर हिलाता ही जा रहा है ,कौन एक टक देखे जा रहा है,कौन घास के तिनके एक के बाद एक उखाड़ने में लगा है। कौन गाये जा रहा है । परस्पर आंकलन ने सबके दिमागों को कन्फ्यूज कर दिया कि सब नशे में हैं। इस रूबरू को रचने में दुष्यंत -अनुरागी जी की प्रमुख भूमिका थी। कुछ टेका मैं भी लगा रहा था।
पहले जब भी यह घटना याद आती तो हंसी से लोट-पोट कराते हुए याद आई। मगर आज आंखें नम हैं। होली है और भोपाल का ताल खाली है। कोई गुलाल होली खेल रहा है,तो कोई टिपकी होली। होली के तरल गायब हैं। कहीं इसलिए तो नहीं कि अब रंगों से सराबोर करने वाले आंगन का नायक नहीं है। यह याद गुजिया खाते रामप्रकाश अंकल की थी ।
इन दोस्तों की मस्ती का हाल यह था कि दुष्यंत त्यागी अंकल की बिल्ली की शादी विठ्ठल भाई पटेल अंकल के बिल्ले से होना तय हुई ,अनुरागी जी गवाह बने ,माँ विजया अनुरागी ने रिश्ता होने पर सबका मुंह मीठा कराया ।
धीरे-धीरे अनुरागी मित्रों ने दुनियां से अलविदा कहना शुरु कर दिया और अनुरागी आँगन की यह मस्ती कम होने लगी। अनुरागी जी सदा हरहाल में उत्सव के लिये पहचाने जाते थे सो दोस्तों की यादों को उन्होने बरकरार रखा ।बस होली की जगह रंगपंचमी और आँगन उनकी बेटी श्यामू -हेंमत का था हम उम्र दोस्तों की जगह बाल-गोपालों ने ले ली ,अब वे सा- शरीर नही पर होली में हमारे साथ होते हैं,उनके प्यारे अनुरागिणा: आज भी बदस्तूर उनके रंगों में रंगे जाते हैं,फाग गाते गुलाल उडाते हैं।
रंगों से रंगीन आसमान में "होली मुबारक हो" के कौमी एकता के नारे को गुंजाते हैं। आप सबको भी अनुरागिणा:परिवार की ओर से होली मुबारक हो ।
अनुरागी जी का एक गीत
रंग डार दे ।
रंग डार दे जवान,हर रंग-रसिया,
रंग डार दे ।
कश्मीरी केशर, गुआनी के गाल
केरल की गोरी आ पहुँची भोपाल
रंग डार दे ।
गरबा की घिरकी और भाँगडाई ढ़ोल
राणी, कसुम्बो न नैणों में घोल
रंग डार दे ।
भोजपुरी चुनरी मे पाटण का घेर
बीकानेरी मालनियाँ, लहँगा सकेर ।
. रंग डार दे ।
Comments