याद-ए-अनुरागी:समय काल से परे यह अनुरागी कविता

वीथिका            Mar 15, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी। आज हम जिस परिवेश में रह रहे हैं या रहने को मजबूर हैं,जिन बातों को सुनना ,देखना नहीं चाहते वे ही बातें रोज-रोज हमारे सामने आती हैं। हमारे चारों ओर जिस तरह का माहौल बना हुआ है या बनाया जा रहा है फिर वह चाहे न्यूज चैनल हों, अखबार हों,भाषण,सभाऐं हों घूम फिर कर बातें वही हैं।कहीं बलत्कार कहीं लूट हत्या डकैती,मार काट आगजनी, हडताल,विद्रोह और सबसे अधिक हर तरह के नेताओं का बड़बोलापन। हालात यह हो गये हैं कि अब निगेटिव न्यूज में से पॉजिटिव न्यूज खोजने का व्यवसाय चल पड़ा है। संस्कृति से अध्यात्म से परिपूर्ण देश समाज जो अपनी सभ्यता अपने आदर्शों के कारण दुनियाभर में पहचाना जाता हो ,जहाँ गौतम ,महावीर, गाँधी घर—घर पूजे जाते हों ,वहाँ ऐसा क्या हो गया कि जिधर नज़र उठाओ बस सब कुछ निगेटिव है। अनुरागी जी की एक कविता में उन्होंने लिखा था,कि इस सब की वज़ह क्या है? दरअसल उनकी कविताएं अक्सर लम्बी होतीं हैं और इसके पीछे कवि का चिंतन समाज को समझाने की कोशिश रहती थी। मैनें उन्हें कंठस्थ इसका पाठ करते कई बार सुना। जान पड़ता था मानो वे अथाह वेदना में आक्रोशित हों जनमानस को झकझोर रहे हों। उनकी भावभाँगिमा से स्पष्ट नजर आता था कि वे भारतीय मानस को चेता रहें हों। उनके बारे में बहुत वरिष्ठ सहित्य मनीषियों ने लिखा है,मेरी कलम साधन,उनके बारे में कुछ लिख सके ,सूरज को दिया दिखाने सी बात है पर मल्हार मीडिया पर लिखने का ममता ने हुक्म सुनाया सो हिम्मत कर बैठी दुस्साहस करने का। आज आप सब से पापा अनुरागी जी की कविता मझली पीढ़ी साझा कर रही हूँ ,आप उनकी बात समझ सकेंगे वह बात जो समय काल से परे होकर आज भी कालजयी है:—

rajendra-anuragiमझली पीढ़ी की व्यथा

बस के सहज-सुलभ घर्षण हों जिनकी यौन-तुष्टि के संबल उनका क्या कौमी कैरेक्टर उनमें कैसा आत्मा का बल

असली भूखें रहे उपेक्षित नकली प्यासे दाँत निपोरें इनमें कहाँ,कौन-सा मधुरस इनसे कैसे नाता जोड़े

इन्हें सौपना है विध्यापति उसके वर्णन सिंगार के इनको कालिदास देना है उसके सब रंग ऋतुसंहार के

कैसे सौपे जा सकते हैं इनको गीता वाले अक्षर कैसे ये पहचान सकेंगे तुलसी-सूर-कबीरा के स्वर

इनको पन्त-निराला दोगे इन्हें महादेवी सौपोगे ये तो चौकेगे ही आखिर हाल देख तुम भी चौकोगे

ये है प्यारो, अगली पीढ़ी ये है अपने कर्मो का फल ये सब अपनी ही भूलें हैं अपने बरस बरस के माडल

अब ये घर को खोद रहे हैं तुलसी चौरा भी खोदेगे तुमने जहाँ जुही बोई थी जँगली थुहर वहाँ बो देंगे

इनको तोड-फोड प्यारी है अब ये हर विधान तोड़ेगे तुमने इन्हें कहाँ छोड़ा है अब ये तुम्हें कहाँ छोड़ेगे

तुमने इनको बेकारी दी अनियोजन की लाचारी दी तुमने इन्हें दिया अँधियारा अँधियारी दुनियाँदारी दी

ग़लत तुम्हारे तौर-तरीके तुमसे ही ये बच्चे सीखे अब तुम मोड़ नही पाओगे गलत भीड़ में चरण किसी के

क्योंकि तुम्हारे चरण गलत हैं सबके सब आचरण गलत हैं जीवन तो हतभागो आज तुम्हारे मरण गलत हैं

तुम रिश्वत खा कर जीते हो फोकट रोज शाम पीते हो जितना रोज फाड़ लाते हो उसका आधा भी सीते हो

अधिकारों की टेर लगाते खुद कितना कर्तव्य निभाते तुमने कभी खोलकर देखे अपने दुहरे-तिहरे खाते

आजादी का मतलब क्या है तुमने कभी स्वयं भी खोजा या जब जिसकी तूती बोले तब हर उसके पीछे हो जा

बाकी सब जाएँ गड्ढे में केवल अपना मात्र भला हो उसको क्या समाज से मतलब जो इस साँचे से निकला हो

पहले तो ये साँचा तोड़ो अपने पाँव स्वयं तुम मोड़ो ये खुद रस्ते पर आएँगे तुम तो इनका रस्ता छोड़ो

इनके भी सपने जवान हैं इनको भी दुती की तलाश है इनको भी जीवन प्यारा है इनको भी रोशनी चाहिये पर तुमको जितनी काफी थी अब उससे सौ गुनी चाहिये क्योंकि सफर इनका बेढब है जाने कहाँ -कहाँ जाना है जाने किन -किन नक्षत्रों की मिट्टी खोद टोह लाना है परती को धरती करना है नदियों को कंगन देना है हर सपने के राजकुँअर को किरणों का स्यंदन देना है

इनको अपने सपने मत दो दो तो ठोस धरातल भर दो इन्हें इबारत में मत बाँधो मुक्त कंठ दो, सातों स्वर दो ।



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