सब बे -अकल करते नकल

वीथिका            Mar 25, 2015


संजय जोशी 'सजग' बांकेलाल जी समाचार पत्र में नकल की खबर पढ़ आहत हुए जा रहे थे और बार बार पेपर जोर -जोर से झटक रहे थे मैंने पूछा कि सुबह -सुबह क्या संकट आ गया बहुत विचलित दिख रहे हो वे कहने लगे एक पुरानी लोकोक्ति है नकल में भी अकल लगानी पड़ती है पर फिर भी अच्छे -अच्छे धरा जाते है तो यह दर्शाता है कि यह तो बेअकल है और यदि अक्ल का काम करने की कूबत होती तो नकल ही क्यों करते ? अपनी अकल का सदुपयोग करते पर क्या करें हमारी अकल तो गई घांस चरने जब से मनुष्यता पर पशुता हावी है और नकल पर नकल जारी है कौन असली है कौन नकली है भेद करना किसी भी साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं । परीक्षा के समय में नकल का समाचार पड़कर मन दुखी होता है कि मेहनत करने वाले का क्या कसूर रहता है कि नकल को अपना जन्म सिद्द अधिकार समझने वाले प्रतिभाओं के लिए स्पीड ब्रेकर बनकर इठलाते है और वे बेचारे मायूस हो कर सब सहते है । वे आगे कहने लगे इस कला को बढ़ावा देने में अर्थ की अहं भूमिका है अर्थ बिना सब व्यर्थ समझने वालों के लिये इसकी आड़ में रोज नए तरीकों पर रिसर्च करने की कमी नहीं है तभी तो व्यापम जैसे घोटाले के कारण प्रतिभाओं का दमन हो जाता है और अरमान दफन l रोज रोज नए तरीके समाने आ रहे है मतलब नकल में अकल लगाने वालों की कमी नही है फिर भी चोर की दाढ़ी में तिनका रह ही जाता है और अपराधियों की पहचान कर सजा मिलने में वर्षों लग जाते हैं और नकल में अकल लगाने वाले अपना काम निरंतर जारी रख कर समाज में नासूर तरह काम करते रहते है l बचपन में हम बंदर को नकलची बंदर कहा करते थे की नकल तो केवल बंदर करते है अब पता चला की बंदर के दूसरे गुण मनुष्य में नही है पर नकल का । बांकेलाल जी कहने लगे कि शिक्षा ही क्या हर क्षेत्र में इसका बोलबाला है पाश्चात्य सभ्यता की नकल तो भारतीय संस्कृति का क्षरण कर शर्मसार कर ही रही है इस नकल से राजनीति भी अछूती नहीं है एक दूसरे के मुद्दे ,वादें और प्रोग्राम की नकल कर फूले नहीं समाते हैं हमने नकल के दलदल में फंस कर जीवन शैली को बर्बादी की ओर धकेल दिया है खाने -पीने ,रहन सहन ,आचार विचार, व्यवहार ,समाजिक ताने बाने को विदेशी रंग में रंग कर आधुनिक और विकास शील होने दम्भ भर रहे है । नकल की प्रवृति ने कुछ इस तरह जकड़ रखा है कि हर चीज नकली और बनावटी लगने लगी है रिश्तों को निभाने की मजबूरी में ,अंदर से कुछ और बाहर से कुछ और नजर आते है और नौटंकी की नकल कर अपने आप को धन्य मानते है । नकल की इस लाइलाज बीमारी और मानवता के दुश्मनों ने दवाइयों को भी नही छोड़ा वहां भी नकल की भरमार है l सब बे -अंकल है करते नकल. मैंने कहा बांकेलाल जी आपकी चिंता जायज है पर इसके पीछे अति धन कमाने की लालसा ,एक दूसरे से ऊँचा दिखना और बिना मेहनत के बहुत कुछ पाने की तमन्ना ही इसकी जड़ है और जड़ काटने का नाटक कर उसे पानी देकर जनता की आखों में धूल झोंकना ही तो चल रहा है । हर तरफ है नकल का बोलबाला


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