सिंहस्थ: महाकाल-कालभैरव की अर्चना-वन्दना में समर्पित शिप्रा का उल्लेख मंत्रोच्चार में नहीं आता

वीथिका            Apr 25, 2016


स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी। भारतीय संस्कृति की अनेक विशिष्टताओं में प्रकृति के प्रति सम्मानीय और पवित्र भावना एक विशिष्ट गुण के रूप में मूल्यांकित होती आयी है। पर्वत, वन, नदियाँ- ये सब भारतीय जन-जीवन से अत्यंत निकटतम सम्बन्ध रखते हुए पवित्र तथा समादरित तथा पूज्य रहे हैं। फिर, जहाँ तक भारत की नदियों का सवाल है, वे अपने उत्स से लेकर संगत तक के क्षेत्रों की जीवन-रेखा ही रही आयी हैं। इसीलिये आज भी परम्परा से बँधा हुआ भारतीय मानस प्रतिदिन स्नान करने के समय मंत्रोच्चार के रूप में जिन सात प्रमुख पवित्र नदियों का स्मरण करता है, उनका उल्लेख निम्नांकित छन्द में हुआ है- गंगेच यमुनेचैव गोदावरि सरस्वती नर्मदे सिन्धु, कावेरि जलेदस्मन सन्निध कुरु। लेकिन आश्चर्य यह है कि इस छन्द का रचयिता मध्यप्रदेश मालवा की महिमामयी जीवन-रेखा क्षिप्रा अथवा सिप्रा को कैसे भूल गया? कारण जो भी हो किन्तु पवित्र क्षिप्रा न केवल मालवा के लिये बल्कि सारे भारत के लिये आज भी महान तथा पवित्र तीर्थ-स्वरूपा है और कुंभ तथा सिंहस्थ के समय तो वह लाखों भक्तों के लिये अनिर्वचनीय श्रद्धा और पूजा की पवित्रतम प्रतीक बन जाती है। पौराणिक उल्लेख पुराणों में इसका उल्लेख रूप विशेष से ब्रह्म पुराण तथा स्कंद पुराण में किया गया है। स्कंद पुराण में इस स्रोतस्विनी की महान गाथा का उल्लेख विशेष रूप से 'आवन्त्य खंड'' में हुआ है। आगे चलकर बौद्ध, जैन ग्रंथों में भी इसका उल्लेख हुआ है। क्षिप्रा अथवा कि सिप्रा की भौगोलिक उत्पत्ति कुछ भी हो किन्तु पौराणिक आख्यानों में इसकी उत्पत्ति की विभिन्न कथाएँ मिलती हैं। दरअसल, महाकाल वन अथवा अवन्तिका क्षेत्र में प्रवाहित यह उत्तर-वाहिनी नदी आज भी अपने तटों पर अनेक पवित्र तीर्थ तथा ऋषि-मुनियों के साधना-स्थलों को समेटे हुए है, किन्तु जहाँ तक उसकी उत्पत्ति का प्रश्न है, इसके संबंध में अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है। स्कंद पुराण के अवन्ति खंड के 69वें अध्याय तथा उसी पुराण के अन्य तीन अध्यायों में इस नदी के चार नाम पाये जाते हैं- क्षिप्रा, ज्वरध्नी, पापध्नी और अमृत संभवा। इन विवरणों में महर्षि व्यास और सनत्कुमार के प्रश्नोत्तर के रूप में क्षिप्रा की उत्पत्ति का जिस प्रकार उल्लेख किया गया है, उसके अनुसार 'एक बार शिवजी ब्रह्म के कपाल को लेकर भिक्षा माँगने निकले किन्तु त्रिलोक में उन्हें कहीं भिक्षा नहीं मिली। अंतत: उन्होंने बेकुण्ठ पहुँचकर भगवान विष्णु से भिक्षा की याचना की तब भगवान विष्णु ने अपनी तर्जनी अंगुली ऊपर दिखलाते हुए कहा- 'शिव, मैं भिक्षा तो तुम्हारी दे रहा हूँ, ग्रहण करो''। भगवान की अंगुलि दिखलाने को शिवजी सहन नहीं कर सके और तुरंत अपने त्रिशूल से उन्होंने उसमें आघात कर दिया जिससे रक्त की धारा बह निकली और उनके हाथ में रखा सारा कपाल शीघ्र ही भर गया और उसके चारों ओर रक्त की धारा बह निकली। वही धारा क्षिप्रा नदी के रूप में परिणित हुई। इस प्रकार, त्रिलोक को पवित्र करने वाली नदी शीघ्रता से वेकुण्ठ से प्रादुर्भूत हुई ओर तीनों लोकों में उसकी प्रसिद्धि हुई''। (पं. दयाशंकर दुबे तथा पं. रामप्रताप त्रिपाठी द्वारा रचित 'क्षिप्रा की महिमा से'') यद्यपि क्षिप्रा की उत्पत्ति के बारे में उपर्युक्त प्रसंग की सर्वाधिक लोक-श्रुत है किन्तु स्कंद पुराण में ही उसकी उत्पत्ति के विषय में अन्य कथाओं का भी उल्लेख हुआ है। इन कथाओं के अनुसार क्षिप्रा की उत्पत्ति बराह अवतार के रूप में भगवान विष्णु के ह्नदय से हुई। एक अन्य कथा के अनुसार, उज्जैन में दीर्घकाल तक तपस्या करने के पश्चात अभिनायक ऋषि ने जब अपने नेत्र खोले तो उन्होंने अपने शरीर से दो स्त्रोतों को प्रवाहित होते देखा। उनमें से एक ने आकाश में चन्द्रमा का रूप धारण कर लिया और दूसरा क्षिप्रा के रूप में उज्जैन के निकट ही प्रवाहित हुआ। स्कंद पुराण में ही इस नदी की उत्पत्ति शिव के कमण्डल से बतायी गयी है। एक अन्य प्रसंग के अनुसार क्षिप्रा के कामधेनु से प्रगट होने का भी उल्लेख किया गया है। इन पौराणिक आख्यानों में क्षिप्रा की महान पवित्रता का महत्व तो रेखांकित होता ही है। स्कंद पुराण में वर्णित कथा के अनुसार सनत्कुमार ने क्षिप्रा के समान पुण्यदायिनी कोई अन्य नदी नहीं है। इसके किनारे क्षणभर में मुक्ति प्राप्त होती है। स्कंद पुराण के अनुसार ही पृथ्वी पर नैमिषारण्य तथा पुष्कर को उत्तम तीर्थ के रूप में उल्लिखित किया गया है किन्तु काशी से भी दस गुना महत्वपूर्ण महाकाल वन का क्षेत्र माना गया है। जहाँ से प्रवाहित होती है अमृत तुल्या क्षिप्रा, जिसके जल में स्नान करने से तथा जिसके तट पर नैमित्तिक कर्म करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है तथा अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। विविध रूपा क्षिप्रा पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार इस पवित्र नदी को वेकुण्ठ में क्षिप्रा, स्वर्ग में ज्वरध्नी, यमद्वार में पापध्नी तथा पाताल में अमृत सम्भवा के रूप में उल्लिखित प्रसंगों का भी विवरण दिया गया है। क्षिप्रा की महिमा नामक लेख में सर्वश्री दुबे और त्रिपाठी ने तत्कालीन क्षिप्रा के सौन्दर्य का जो विवरण दिया है वह भी उल्लेखनीय है- 'उस क्षिप्रा नदी का मनोहरतट कुश और घासों से सब कहीं आकीर्ण था----- मणि मुक्ता और मूंगों से जड़ित सीढ़ियाँ बनी हुई थीं----- सायंकाल और प्रात:काल ब्राह्मणों के झुण्ड के झुण्ड उसमें सन्ध्या वन्दनादि करते रहते थे''- मृगु और आंगिरा के क्षिप्रा के तट पर समाधिलीन होने का भी उल्लेख किया गया है। संक्षेपत: यह कि पुराणों में इस नदी को अत्यंत पवित्र रूप में स्थापित किया गया है। इतिहास के आइने में महाकाल वन क्षेत्र में प्रवाहित होने के कारण क्षिप्रा मालवा क्षेत्र के रोमांचकारी इतिहास की साक्षी रही है। उज्जयिनी अथवा अवन्तिका को अपनी जलधारा से पवित्र करती हुई यह नदी आज भी महाकालेश्वर और कालभैरव की अर्चना-वन्दना में समर्पित है। पौराणिक युग में इसी के निकट रहते थे ऋषि सान्दीपनि, जिनके आश्रम में भगवान कृष्ण ने शिक्षा प्राप्त की थी। इसके निकट ही है भर्तृहरि की साधना स्थली। शताब्दियों से यह स्त्रोतस्विनी चण्ड प्रद्योत, महासेन, विक्रमादित्य, रुद्रसेन, क्षत्रपवंशीय राजाओं तथा अनेक राजवंशों के उत्थान-पतन की मूकदर्शिका रही। महान पराक्रमी परमारों ने इस नदी के तट पर स्थित उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया। मुगलकाल के अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों की भी वह साक्षी रही और फिर भारत के ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के समय तथा रियासतों के विलीनीकरण के पूर्व तक सिन्धियावंश के शासकों द्वारा भी यह समादरित रही। इस पवित्र नदी के तट पर स्थित कालियादह का भव्य भवन तथा अन्य महत्वपूर्ण स्थान और प्रसंग इसकी ऐतिहासिक महिमा को आज भी प्रतिष्ठित किये हुए हैं। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है इस पवित्र स्त्रोतस्विनी के तट पर लगने वाला कुंभ और सिंहस्थ का मेला। कहा जाता है कि जब अमृत कुंभ के लिये सुरों और असुरों में छीनाझपटी हुई थी तथा जब अमृत कुंभ को लेकर जयंत आकाशमार्ग से उड़ा था तथा उसकी चार बूंदे पृथ्वी पर गिरी थीं। उनमें से एक बूंद क्षिप्रा के निकट गिरी। अतएव प्रति बारह वर्ष में एक बार कुंभ का महान पर्व अत्यन्त प्राचीनकाल से इस नदी के तट पर होता आ रहा है। किन्तु सिंह राशि पर बृहस्पति के आने पर यह महान सांस्कृतिक पर्व सिंहस्थ के रूप में आयोजित होता है। एक माह का यह महान पवित्र धार्मिक तथा सांस्कृतिक समारोह क्षिप्रा के तट पर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विभिन्न भाषा-भाषी श्रद्धालुओं के सांस्कृतिक संगम का रूप धारण कर भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धांत-विविधता में एकता को रूपायित करता आ रहा है। क्षिप्रा का भौगोलिक पक्ष इस पवित्रतम् स्त्रोवस्विनी की उत्पत्ति के बारे में पौराणिक उल्लेख जो भी हों, किन्तु भौगोलिक रूप से इस उत्तर वाहिनी नदी का उद्गम विन्ध्याचल पर्वत माला की कोकरी टेकड़ी है। यह स्थान इंदौर से 11 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। उत्तर-पश्चिम दिशा में 60 किलोमीटर की दूरी तक प्रवाहित होते हुए लगभग 56 किलोमीटर तक उज्जैन जिले की परिधि रेखा अंकित करते हुए उज्जैन में प्रविष्ट होकर इस जिले में लगभग 93 किलोमीटर प्रवाहित होती है। क्षिप्रा की कुल भौगोलिक लम्बाई लगभग 125 कि.मी. है। इसके किनारे काफी नीचे है, किन्तु महिदपुर और आलोट के बीच इसके किनार पहाड़ी ओर ऊँचे हैं। क्षिप्रा की सनातन नदियों प्रमुखत: खान और गंभीर है। खान उज्जैन शहर के कुछ पहले तथा गंभीर महिदपुर के पास क्षिप्रा में मिल जाती है। इसके बाद क्षिप्रा उज्जैन जिले से बाहर निकलकर रतलाम, मंदसौर तथा भीलवाड़ा जिलों की सीमा रेखा पर चम्बल नदी में मिल जाती है। क्षिप्रा तीरे वैसे तो क्षिप्रा के तट पर स्थित उज्जैन एक सर्व-विख्यात स्थान है, किन्तु उज्जैन जिले के कालीदेह, भैरोगढ़, महिदपुर आदि स्थान भी क्षिप्रा के तट पर स्थित होने के कारण उल्लेखनीय हैं। कालीदेह उज्जैन से 8 किलोमीटर दूर क्षिप्रा के बाँये तट पर स्थित है। स्कंद पुराण में इस स्थान का नाम ब्रह्मकुण्ड था। इस स्थान पर स्थित ऐतिहासिक कालियादह का भव्य भवन मालवा के सुल्तान नसीरुद्दीन द्वारा बनवाया गया बताया जाता है। उज्जैन से 9 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भैरोगढ़ में एक अत्यंत प्राचीन वट-वृक्ष है, जिसकी महिमा प्रयाग के अक्षय वट के समान ही बतायी जाती है। भैरोगढ़ में स्थित कालभैरव का मंदिर आज भी तांत्रिकों की साधना-स्थली बना हुआ है। उज्जैन जिले की तहसील का मुख्यालय महिदपुर क्षिप्रा के दाहिने किनारे पर स्थित है। पौराणिक उल्लेख के अनुसार यह हरसिद्धि विशाल क्षेत्र में स्थित है। सन् 1887 में जब सिंहस्थ मेले में हैजा का आक्रमण हुआ था तो लगभग 5000 साधुओं ने यहीं ऐतिहासिक स्नान का अनुष्ठान सम्पन्न किया था। वस्तुत: क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित अनेक ग्राम और कस्बे पर्वों के समय मेले और तीर्थ का रूप धारण कर लेते हैं, किन्तु उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर निर्मित नरसिंगघाट, रामघाट, गंगाघाट और छत्रीघाट तो वर्षभर श्रद्धालु भक्तों की पूजा-अर्चना के केन्द्र बने रहते हैं। इसी पवित्र नदी के तट पर महान वीर योद्धा दुर्गादास राठौर की समाधि बनी हुई है। क्षिप्रा में स्नान-अर्चना करने के साथ ही यात्री महाकालेश्वर, हरसिद्धि देवी, बड़े गणेशजी, भर्तृहरि की गुफा, सान्दीपनि आश्रम, मंगलनाथ वेधशाला, बिना नींव की मस्जिद, कालभैरव, अंकपात आदि पौराणिक कथा ऐतिहासिक स्थानों का दर्शन लाभ करते हैं। मालवा की महिमामयी जीवन-रेखा पुण्य सलिला क्षिप्रा के जल को प्रदूषण मुक्त करने के लिये मध्यप्रदेश सरकार द्वारा क्षिप्रा शुद्धिकरण योजना के विचाराधीन होने का भी समाचार है, किन्तु इस समाचार से परे आज भी क्षिप्रा कल्मष नाशिनी और कल्प वृक्ष के समान वरदायिनी के रूप में भारत की आबाल-वृद्ध जनता द्वारा पूज्य और वन्दनीय है।


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