डॉ. रजनीश जैन।
सत्यार्थी जी का सम्मान चोरी हो गया... चोर ले गये। वे अमेरिका में थे। किसी सेमीनार में गये होंगे। ...लगातार सम्मानित होने की चाह कभी खत्म नहीं होती। सेमीनारों में भाषण देने से नया कुछ निकले या नहीं तुष्टि का भाव बना रहता है।...और इधर चौर्यकला के उस्तादों ने उनके बंगले में सेंध लगा दी। लौट कर सत्यार्थी जी ने बताया आठ दस ठौ सम्मान थे सब ले गये। उन्होंने उन देशों के नाम भी गिनाये जहाँ से ये सब मिले थे। उनमें भारत नामक देश और उसका मध्यप्रदेश नामक राज्य नहीं था। ये वे स्थान हैं जहाँ से सत्यार्थी जी को कभी सम्मान नहीं मिला बल्कि उससे बड़ा कुछ मिला। उन्हें यहाँ प्रचुर मात्रा में वह मटेरियल मिला जिस पर काम करके उनके सम्मान की कई मंजिला इमारत खड़ी हुई।यानि बच्चे,जो यहाँ इफरात हैं। भारतवर्ष की उत्पादन क्षमता के राष्ट्रीय प्रतीक बच्चे न होते और विपदा में न पड़े होते तो सत्यार्थी सम्मानित नहीं होते ?
इसके लिऐ सत्यार्थी जी को भारत भाग्यविधाता और अपना मध्यप्रदेश का अभिनंदन करना चाहिऐ। सड़कों पर लावारिस छोड़ने, बंधुआ मजदूरी कराने, भीख नशा और चोरी के दलदल में बच्चों को ढकेलने से अगर हम इंकार कर देते तो सत्यार्थी के पास सम्मान होते क्या? हम बच्चों की सुरक्षा के कड़े कानून और संस्थाऐं इसीलिऐ ही नहीं बनाते ताकि सत्यार्थियों को सम्मान मिले। हमारी सरकारों और तदनंतर ...समाज के पूरे उद्यम इसी दिशा में होते हैं कि बच्चे देश का नाम रोशन न कर पाऐं ताकि सत्यार्थी जी को देश का नाम रोशन करने का लगातार अवसर मिले।
सम्मान मिलना और चोरी होना भारत में आम है। हमारी सँस्कृति में फल की इच्छा करना व्यर्थ बताया गया है। सम्मान भी एक तरह का फल है जिसे अकेले नहीं खाना चाहिऐ। चोरों ने सम्मान चुरा कर सम्मान की असारता और क्षणभंगुरता का संदेश दिया है।...सम्मान तो आनी जानी माया है ,आज है कल नहीं है। फिर सम्मान अमूर्त है उसे सिर्फ महसूसो ।...जो चोरी गये उन्हें रैप्लिका ही मानो यानि प्रतिकृति, देशी भाषा में नकल। कालेबाजार में बेचकर कोई अपना पेट भर रहा होगा। यही उसकी सार्थकता है। ...रविंद्र नाथ टेगौर का सम्मान चोरी गया , उससे उनकी रचनाओं का एक अक्षर नहीं बदला। यही ज्ञात हुआ कि देश में सम्मान के भूखे लोग किसी भी तरह पेट भरेंगे। सम्मान बेचकर किसी का पेट भरता है तो सत्यार्थी जी का क्या जाता है। जो चुरा ले गये वे भी कभी बच्चे थे, इस विश्वगुरू देश के महान नागरिक बन कर उन्होंने सत्य का गूढ़ अर्थ जान लिया कि ...'जब तक जिओ मौज करो,...सम्मान बेच कर घी पिओ।'
सत्यार्थी जी ने चौर्यकला के पारंगतों से विनम्र निवेदन किया है कि यह सम्मान मेरा नहीं हमारे देश का है इसलिए वापस लौटा दें। सत्यार्थी बच्चों के बीच काम करते—करते खुद भी बच्चों जैसे हो गये हैं। वे शायद नहीं जानते कि ऐसा बोलकर उन्होंने चोरों का रहा सहा ग्लानिबोध भी मिटा दिया। वे समझ गये कि सबसे बड़े सम्मान वाला खुद ही कह रहा है सम्मान राष्ट्रीय संपत्ति है। जब उनका सम्मान देश का सम्मान था तो चोरों ने तो लंबी परंपरा का ही पालन किया है, सम्मान और राष्ट्रीय संपत्ति बेचकर खाने की परंपरा यहाँ पुरानी है। तब तो और सुविधा हो जाती है जब बेचा गया सम्मान देश का हो...।
लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
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