अनामिका।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने एक सफल जीवन जीने का जो मंत्र दिया, एक रास्ता बनाया, उस पर चलकर हम एक नये भारत के लिये रास्ता बना सकते हैं। यह रास्ता ऐसा होगा जहां न तो कोई जात-पात होगा और न ही अमीरी-गरीबी की खाई होगी। समतामूलक समाज का जो स्वप्र बाबा साहेब ने देखा था और उस स्वप्र को पूरा करने के लिये उन्होंने जिस भारतीय संविधान की रचना की थी, वह रास्ता हमें अपनी मंजिल की तरफ ले जायेगा। उनकी प्रतिष्ठा भारतीय समाज में देश के कानून निर्माता के रूप में है। भारत रत्न से अलंकृत डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अथक योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। बाबा साहेब सपन्न परिवार से नहीं थे और न ही किसी उच्चकुलीन वर्ग में जन्म लिया था। वे अपने जन्म के साथ ही चुनौतियों को साथ लेकर इस दुनिया में आये थे लेकिन इस कुछ कर गुरजने की जीजिविषा ने उन्हें दुनिया में वह मुकाम दिया कि भारत वर्ष का उनका आजन्म ऋणी हो गया।
14 अप्रेल 1891 जन्में डॉ. अम्बेडकर ने अपने कार्यों से भारत का इतिहास लिख दिया. यह वह समय था छुआ-छूत का मसला शीर्ष पर था और ऐसे में बाबा साहेब जैसे लोगों को आगे बढऩा बेहद कठिन था लेकिन कभी ‘कभी हार नहीं मानूगां’ के संकल्प के साथ उन्होंने सारे कंटक भरे रास्ते को सुगम बना लिया। कहते हैं, जहाँ चाह है वहाँ राह है। प्रगतिशील विचारक एवं पूर्णरूप से मानवतावादी बङौदा के महाराज सयाजी गायकवाङ़ ने भीमराव जी को उच्च शिक्षा हेतु तीन साल तक छात्रवृत्ति प्रदान की, किन्तु उनकी शर्त थी की अमेरिका से वापस आने पर दस वर्ष तक बङौदा राज्य की सेवा करनी होगी। भीमराव ने कोलम्बिया विश्वविद्यालय से पहले एम. ए. तथा बाद में पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। ‘भारत का राष्ट्रीय लाभ’ विषय पर उनके इस शोध के कारण उनकी बहुत प्रशंसा हुई। उनकी छात्रवृत्ति एक वर्ष के लिये और बढ़ा दी गई। चार वर्ष पूर्ण होने पर जब भारत वापस आये तो बङौदा में उन्हे उच्च पद दिया गया किन्तु कुछ सामाजिक विडंबना की वजह से एवं आवासीय समस्या के कारण उन्हें नौकरी छोङक़र बम्बई जाना पङ़ा।
बम्बई में सीडेनहम कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए किन्तु कुछ संकीर्ण विचारधारा के कारण वहाँ भी परेशानियों का सामना करना पङ़ा। इन सबके बावजूद आत्मबल के धनी भीमराव आगे बढ़ते रहे। उनका दृढ़ विश्वास था कि मन के हारे, हार है, मन के जीते जीत। 1919 में वे पुन: लंदन चले गये। अपने अथक परिश्रम से एम.एस.सी., डी.एस.सी. तथा बैरिस्ट्री की डिग्री प्राप्त कर भारत लौटे। 1923 में बम्बई उच्च न्यायालय में वकालत शुरु की अनेक कठनाईयों के बावजूद अपने कार्य में निरंतर आगे बढते रहे। एक मुकदमे में उन्होने अपने ठोस तर्कों से अभियुक्त को फांसी की सजा से मुक्त करा दिया था। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने निचली अदालत के फैसले को रद्द कर दिया। इसके पश्चात बाबा साहेब की प्रसिद्धि में चार चाँद लग गया।
डॉ. आंबेडकर की लोकतंत्र में गहरी आस्था थी। अपने कठिन संघर्ष और कठोर परिश्रम से उन्होंने प्रगति की ऊंचाइयों को स्पर्श किया था। अपने गुणों के कारण ही संविधान रचना में, संविधान सभा द्वारा गठित सभी समितियों में 29 अगस्त, 1947 को ‘प्रारूप-समिति’ जो कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण समिति थी, उसके अध्यक्ष पद के लिये बाबा साहेब को चुना गया। संविधान सभा में सदस्यों द्वारा उठायी गयी आपत्तियों, शंकाओं एवं जिज्ञासाओं का निराकरण बड़ी ही कुशलता से किया गया। उनके व्यक्तित्व और चिन्तन का संविधान के स्वरूप पर गहरा प्रभाव पङ़ा। समाज में समरसता का जो भाव उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से दिया, वह हिन्दुस्तान के इतिहास की थाती है।
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि सही मायने में प्रजातंत्र तब आएगा जब महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलेगा और उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिए जाएंगे। उनका दृढ़ विश्वास कि महिलाओं की उन्नति तभी संभव होगी जब उन्हें घर परिवार और समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा। शिक्षा और आर्थिक तरक्की उन्हें सामाजिक बराबरी दिलाने में मदद करेगी। आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने महिला सशक्तीकरण के लिए कई कदम उठाए। सन् 1951 में उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में पेश किया। हालांकि उनके तमाम प्रयासों के बाद भी कुछेक लोगों के विरोध के चलते यह बिल पास नहीं हो पाया। लेकिन महिलाओंं को सशक्त बनाने की पहल उन्होंने जो उस समय की थी, आज वह साकार होती दिख रही है।
बाबा साहब कहते थे कि -मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता , समानता, और भाईचारा सिखाये। अगर धर्म को लोगो के भले के लिए आवशयक मान लिया जायेगा तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा। उन्होंने जो कहा, उसका निर्वाह जीवन भर किया। आज भले ही बाबा हमारे बीच नहीं हैं लेकिन एक आदर्श समाज की रचना करने का जो पथ वे आलौकित कर गये हैं, वे भारत को नित विकास के पथ पर आगे बढ़ाते रहेंगे।
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