रजनीश जैन।
होली पर कवि पद्माकर डिमांड में रहते हैं। बरसाने और ब्रज की होली का जैसा वर्णन वे करते हैं वैसा अन्यत्र देखने में नहीं आता। ज्यादातर गोपिकाओं और राधा की तरफ से उनके होली छंद हैं।
यहाँ देखिए...गुलाल और नंदलाल जब एक साथ ही आँखों में पड़ जाऐं तो उसकी आनंद भरी पीड़ा को राधा यूं व्यक्त करती हैं-
एकै संग हाल नंदलाल और गुलाल दोऊ,
दृगन गए तें भरी आनंद मढ़ै नहीं।
धोए धोए हारी पद्माकर तिहारी सौंह,
अब तो उपाय एकौ चित्त में चढ़ै नहीं।
कैसी करुं कहां जाऊं कासे कहौं कौन सुनै,
कोऊ तो निकारो जासों दरद बढ़ै नहीं।
ऐरी मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखन सों,
कढ़िगौ अबीर पै अहीर तौ कढ़ै नहीं।
भूल से अकेली ही बरसाने की फाग खेलने चले जाने के ताने पर एक गोपी बताती है कि वहाँ राधा और उनकी सखियों के साथ मस्ती करने की सोच कर गई थी लेकिन वहाँ ये हाल कराके लौटी हूँ-
आली ही गई हौं आज भूलि बरसाने कहूँ,
तापै तू परै है पद्माकर तनैनी क्यों।
ब्रज वनिता वै वनितान पै रचैहें फाग,
तिनमे जो उधमिनि राधा मृगनैनी यों,
छोरी डारी चूनरि चुचात रंग नैनी ज्यों।
मोहि झकझोरि डारी कंचुकी मरोरि डारी,
टोरि डारी कसनि बिथोरि डारी बैनी त्यों।
और महाकवि पद्माकर का यह छंद तो जैसे होली का आइकान बन चुका है जिसमें हुरियारों की भीड़ से पकड़ कृष्ण को राधा भीतर ले जाकर कैसी दुर्गति करती हैं-
फाग की भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै ले गई भीतर गोरी।
भाय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ।।
छीन पीतंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी।
नैननचाई,कह्यौ मुसक्याई, लला फिर आइयो खेलन होरी।
प्रस्तुति
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