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व्यंग्य:नोट बन्दी के साइड इफेक्ट

वीथिका            Dec 27, 2016


संजय जोशी सजग।
विज्ञान के मास्साब से नोट बन्दी पर चर्चा हुई तो कहने लगे कि प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के तृतीय नियमानुसार हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। नोट बन्दी भी एक क्रिया ही तो है। इस क्रिया की सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ इफेक्ट भी होना ही थे, जो हुए भी। जिसमे सुख और दुःख दोनों का मिश्रित प्रभाव रहा। अर्थ चेतना अपने शीर्ष पर थी। हर कोई अपने -अपने फंडे देकर अंदर से विचलित और बाहर से एक रहस्यमयी मुस्कान से दूसरे के काले धन की पोल खुलने की ख़ुशी झलका रहा था।

परिवार का मुखिया भी के घर में छुपे धन के प्रकट होने से अभिभूत और मस्त हो रहे है थे,बच्चों,महिलाओं ने आगे होकर अपने-अपने बड़े नोट सरेंडर कर दिए और अपनी बचत करने की आदत और क्षमता का परिचय दिया, जिससे मुखिया सम्पट भुल गए कि, आये दिन रुपयो की कमी का रोना रोकर मुझे बेवजह परेशान करते रहे और मैं कमाता रहा और ये छिपाते रहे। स्त्रियों की बचत करने की ललक का प्रकटीकरण राष्ट्रीय स्तर पर हो गया। महिलाओं की बचत शक्ति को देखते हुए वित्तमंत्री की पोस्ट अब किसी महिला के लिए ही आरक्षित कर देना चाहिये।


मास्साब कहने लगे कि क्रय शक्ति का कम होना ,पत्नी बच्चे की फरमाइश में कमी,मांगने वालो को पुराने नोट में उधारी चुकाने की आत्म प्रेरणा का जागृत होना ,जो उधार देने में हिचकते थे वे आगे होकर उदारता से उधारी में माल दे रहे है ,न्यूज़ चैनलों की टीआरपी का अचानक बढ़ जाना। सब मुद्दे भूलकर इसी मुद्दे में अपना अपना ज्ञान पेल रहे है ,कइयो को नोकरी से मुक्ति और कुछेक को ओव्हर टाइम से मुक्ति और वस्तु विनिमय चलन भी चला। भावनात्मक प्रभाव से न तो शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट महसूस हो रहा है। नोट और छुट्टे के चक्कर में दिन—रात छोटे लगने लगे हैं।

हम सब महान हैं सहनशीलता ,और इंतजार करने की क्षमता हर मनुष्य में पहले से ही मौजूद है उसमे और बढ़ोतरी के सकेत दिख रहे है। राजनीति में विरोधी भी एकजुट हो गये शायद इनकी एकता को बल मिले ?समर्थक अंदर ही अंदर जल भून रहे है। बोल बिगङने ,रोना धोना ,सहलाना और पुचकारने की क्रिया में अचानक बढ़ोतरी क्रिया की प्रतिक्रिया ही तो है। सब एक दूसरे को काला धन वाला मान रहे है और अब मन ही मन सोच रहे है की अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे।

मास्साब बताने लगे कि -देश का बच्चा-बच्चा अर्थ के महत्व को समझने लगा है और हर कोई अपने आप को अर्थज्ञानी समझने लगा। साहित्यिक,सांकृतिक आयोजन में कमी,शादियों में मित्व्यवित ,न बुलाने का गम और न जाने का गम, न मान न मनुहार,उपहारों के आदान प्रदान में दिखावे में कमी,कार की जगह की जगह टू व्हीलर ,होटल की जगह घर का खाना अच्छा लगने लगा और कई इफेक्ट हुए अर्थ संकट में सब मनमोहक मुस्कान लिए दिख रहे हैं। तकलीफ होने के बाद भी तकलीफ का रोना न रोना। जिनका सफेद है वो भी नकदी के लिए मोहताज हैं।

काले धन वाले अभी भी कुछ और फायदे की उम्मीद में टकटकी लगाये हुए हैं। 50-50 तक तो पहुँच ही गए हैं। परेशान तो वो हैं जिनके खाते ही नही,असाक्षर,देहाड़ी मजदूर,उनको कौन समझे? कौन सुने? और कौन सहायता करे ? यह यक्ष प्रश्न है मैंने कहा कि मास्साब चिंतन और मंथन करने वाले आप और हम दुखी ही हो सकते हैं उससे क्या होगा? नोटबन्दी से क्या—क्या होता है ? देखते जाइये ऊंट किस करवट पर बैठता है? सेलेरी डे ,वीक में भी कैश बैंको में ऊंट के मुह में जीरा साबित हो रहा है।



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