अमेठी से ममता सिंह।
आज महिला दिवस की तमाम बधाइयों , विमर्शों , नारों , शोरगुल के मध्य मुझे अपने स्कूल में घटी एक घटना याद आ गयी.....हुआ यूँ कि......एक रोज मैंने तमाम बच्चों से पूछना शुरू किया कि .... वो बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं ? उनके क्या ख्वाब हैं ? .....पहले बच्चे शरमाये.....फिर एक - एक करके लगभग सबने कहा ...... आपकी तरह टीचर बनना चाहते हैं.....बताती चलूँ कि मेरा विद्यालय उच्च प्राथमिक विद्यालय है जहाँ कक्षा 6 से 8 की पढाई होती है.....अतः बच्चे दस वर्ष से अधिक आयु वाले हैं.....
एक जैसा उत्तर देने वालों की भीड़ में एक लड़की खड़ी हुई और बोली .... मैं पुलिस में जाना चाहती हूँ.....मैं प्रसन्न कि चलो कोई तो खुद से और अलग सोच वाला बच्चा मिला ....मैंने पूछा बेटा तुम क्यों पुलिस में जाना चाहती हो ?
उससे मैं किसी फ़िल्मी डायलॉग की उम्मीद कर रही थी....पर उसके जवाब ने मुझे हिला दिया.....
उसने कहा मैम मैं पैंट पहनना चाहती हूँ.....मेरे घर - गाँव में लड़कियों को पैंट नहीं पहनने देते .....पुलिस की नौकरी में पैंट पहनना जरुरी होता है......इसलिए मैं पुलिस में जाना चाहती हूँ....मैं सुनकर सन्न रह गयी.....
कइयों को यह बात सुनकर हंसी आएगी.....पर जरा ठहर कर सोचने पर यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि.....जिस देश.....समय...सभ्यता....समाज में बच्चियों के कपड़ों पर यूँ निगाह रखी जाय ...बजाय उनके सपनों......ख्वाहिशों पर निगाह रखने के.....तो उसकी कितनी तरक्की होगी ?.....
बच्चियों के कपड़ों पर फतवे जारी करने वाले.....उनके कपड़ों के मापदंड तय करने वाले समाज के ठेकेदारों ने क्यों नहीं ऐसा समाज विकसित किया जहाँ हमारी बच्चियां मनमुताबिक कपडें पहन सकें.....अपना कैरियर चुन सकें.....
आखिर क्यों नहीं हर दिन महिला दिवस होता.....क्यों नहीं हर रोज उनके हक़ - हुकूक ....ख्वाबों-ख्वाहिशों की बातें की जातीं.....क्यों नहीं बच्चियां बिना डर कहीं आ जा सकतीं.....जब गन्दगी - हैवानियत मर्दों के दिल - दिमाग में है तो समाज और धर्म के ठेकेदार क्यों नहीं उन्हें ताले में रखते.....नन्हीं बच्चियों को कैद करना कहाँ का न्याय है....
फेसबुक - व्हाट्सएप्प पर महिला दिवस की तमाम बधाइयों के बीच जाने कितने नन्हें मासूम ख्वाब इस बरस भी अनदेखे....अनचीन्हे रह जायेंगे......
Comments