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याद-ए-अनुरागी:पहली मुलाकात में प्रणाम कागज पर लिख समर्पित किया महाकवि निराला को

वीथिका            Feb 07, 2017


ऋचा अनुरागी।

प्रणामाः सन्तु
महाप्राण निराला के प्रति

मधुऋतु के युवराज, मलय - वंदन लो!
नव पल्लव - रव - नमन सलय चंदन लो!

दुति - कर कनक - मढ़े रति केशर
निर्झर शिशिर - डरे छवि - नागर
मंगल - कलश धरे स्वन - सागर
जय अभिनव भव-नमन , प्रलय-अंजन लो!
मधुऋतु के युवराज, मलय - वंदन लो!

नव दर्शन उजरें चेतन - कन
जीवन - सुमन बिखेरें जन - जन
'नये पात' ' परिमल ' 'अर्चन' बन
लय -किसलय मनहरन वलय - बंधन लो!
मधुऋतु के युवराज, मलय-वंदन लो!

पापा महाकवि , महाप्राण 'निराला' जी से मिलने पहुंचे तो अपनी ओर से उन्होंने इस तरह अपना नमन उनके चरणों में समर्पित कर दिया। दर्शन करते हुये वाणी साथ नहीं दे रही थी, बस आँखों से दिल में महाकवि को बसा लेना चाहते थे। जानते थे कि उनके सम्मुख पहुँचते ही यह हाल होगा सो पहले से अपने प्रणाम कागज पर लिख लिये थे, जो समर्पित कर दिये।

माँ बताती हैं कि एक बार नरसिंग पुर कालेज में निराला जंयती मनायी जा रही थी। रात दस-साढ़े दस के करीब कुछ छात्र पापा के पास आये और बोले - सर, सारे गाँव में खोज लिया निराला जी की तस्वीर नहीं मिल रही है सोचा आपके पास तो जरुर होगी। एक पल भी गवाये पापा ने कहा- कल सुबह अपने साथ लेते आऊँगा। माँ हतप्रभ थी घर में निराला जी की कोई तस्वीर नहीं थी। छात्रों के जाने के बाद माँ पापा से कुछ कह पाती कि पापा ने माँ से कहा- जाओ मुझे कुछ कोयले के टुकडे ला दो और तुम आराम करो। माँ कोयला देकर सोने चली तो गई पर नींद नहीं आ रही थी इसी सोच में कि कहाँ से आयेगी निराला जी की तस्वीर? सुबह पाँच बजे जब माँ पापा की टेबल के पास पहुंची तो देखा पापा पापा कुर्सी पर सर टिकाए, निराला जी की बेहद खूबसूरत ब्लैक एन्ड व्हाइट तस्वीर सीने से लगाए शांतिपूर्ण सो रहे थे। दरअसल माँ से जो कोयला मांगा था उसी से उन्होंने इस सुन्दर दिल में बसे निराला को सफेद कागज पर उकेरा था, जो सचमुच अद्भुत था। इस तरह निराला जयंती साकार हो उठी।

यह ऋतु बसंती हर प्रकृति प्रेमी को सुहाती है, खासकर कवियों की तो मानो सबसे प्यारी ऋतु है और इसे वे अपनी सांसों में जी भर सहेज लेते हैं। इस प्यारे मौसम में फूलों-पत्तों और आमों के साथ ये सब भी बोराये से होते हैं, अपनी-अपनी कविताओ में अपनी-अपनी मस्ती में, अपनी ही फक्कड़ताई में। ओज, चिंता-चिंतन, पीड़ा की रचनाएं रचने वाला कवि अनुरागी बहुत कम लोग जानते हैं कि सुन्दर गीत भी रचता गुनगुनाता है और शायद वह इस ऋतु का ही कमाल है जो वे गाते:—

बाँसुरी बजाओ तुम, तुम देना ताल
लहरों में डूब-डूब हो पवन निहाल
प्राणों के ठाकुर के द्वार चढ़े भोग
आओं स्वर छन्दमयी बस्ती के लोग।

यूं तो इस बसंत ऋतु में पापा का भी जन्मदिन महाशिवरात्री के दिन ही आता है और शायद पापा की एक वजह इसे पसंद करने की यह भी हो सकती है कि उन्हें प्रकृति, फूल-फुलवारियों से बेहद प्यार था। घन्टों हमारे बगीचे में फूलों के बीच अपनी गोष्ठी जमाये रखते। यह मौसम, कवि सम्मलनों, कवि गोष्ठियों का होता और हर बरस हमें पापा के साथ देश भर के सुप्रसिद्ध गीतकारों - कवियों को सुनने का सुअवसर भी मिलता था। कभी नर्मदा के बीच मंच पर कविताओं और गीतों की स्वर लहरियाँ इठलाती तो कभी झाँसी के किले से कवियों के स्वर गरजते, कभी ग्वालियर में तानसेनी संगीत से हमजोली होती कवितायें अपनी मखमली धुन बिखेरती।

कल-कारखानों का शहर कानपुर भी कवितामय हो गुनगुनाने लगता, तो महाकाल की नगरी उज्जैनी हर-हर महादेव का उदघोष करती गीतोंमयी हो जाती। पूरे भारत में एक दौर हुआ करता था जब कवियों की गूंज गुंजायमान होती थी। मंच गरीमामय होता था अपने प्रतिष्ठित कवियों शायरों से। अपने बचपन में मैंने पापा के साथ मंच से श्री शिवमंगल सिंह सुमन, विरेन्द्र मिश्र, आनन्द मिश्र, मुकुट बिहारी सरोज, ताज भोपाली, कैफी आज़मी, नीरज, सोम ठाकुर, कृष्ण बिहारी नूर, जैसी अनेक महान हस्तियों को खूब सुना है और सबका स्नेह आशीष भी सहेजा है। कभी -कभी मंच के नीचे से अपनी पसंद की रचना की फरमाईश करतीऔर हद् तो तब होती जब किसी ओर कवि का गीत किसी और से सुनना चाहती। सोम ठाकुर अंकल की आवाज में विरेन्द्र मिश्र जी का गीत सुनती -

लौट आओ, सतरंगी श्रंगार की सौगंध तुमको
अनमना दर्पण निमंत्रण दे रहा है।

और वे बड़ी ही सहजता से सुना भी देते। तो कभी शेरी भोपाली चाचा की शेरवानी के पीछे पड़ जाती , चाचा अब तो नयी बनवा लो कित्ती पुरातत्वी लबादा पहने रहते हो। उनकी भी अपनी अलग पहचान थी जब कभी सुनने का अवसर आता तो बस लगता और सुनते रहो, बरस बीत गये पर याद हैं शेरी चाचा -

हमें तो शामे-ग़म में काटनी है, ज़िन्दगी अपनी
जहाँ वो हों वहीं ऐ चाँद ले जा चाँदनी अपनी

इन्हीं यादों में एक बहुत ही प्यारे शायर ,मुंह में पान ,अंगुलियों में चूना, रेश्मी सुनहरे गर्दन पर झूलते बाल बहुत गोरे ,हँसते-खिलखिलाते अब तक आप पहचान गये होगें, जी हाँ-

न कर शुमार कि हर शै गिनी नहीं जाती
ये ज़िंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती।

फ़ज़ल ताबिश, एक ऐसा नाम जो बेहद प्यारा इंसान और शायर। वे जब भी घर आते तो मैं उनके ही लिखे-

इस कमरे में ख्वाब रखे थे कौन यहाँ पर आया था
गुमसुम रोशनदानो बोलो क्या तुमने कुछ देखा है

गुनगुनाती और वे हँस कर मेरा माथा चूम लेते। सच कभी-कभी महसूस होता है ये सब महान हस्तियां मेरे पास हैं और है इनका अनंत प्यार भरा आशीष मेरे पास तभी कृष्ण बिहारी नूर अंकल यूं याद आये:—


कोई आया है ज़रुर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ नूर उजाला है बहुत



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