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याद-ए-अनुरागी:घर चलाने और कर्जा चुकाने कृषिमंत्री ने की जेवर गिरवी रखने की बात

वीथिका            Jan 03, 2017


ऋचा अनुरागी।
बचपन में अगर संस्कारों की घुट्टी पिला दी जाये तो वह जीवनभर साथ रहती है। मैं अपने से दो पीढ़ी पहले वालों की बात करुं तो शायद उन्होंने और उनके बुजुर्गों ने उन्हें यह आदर्शों और संस्कारों वाली घुट्टी जरूर पिलाई थी, तभी देश की आजादी और उसके बाद भी निस्वार्थ देश प्रेम की भावना उनमें साफ झलकती थी। उनका अपना एक निज आदर्श चरित्र होता था तब ना भ्रष्टाचार होता था न भाई भतीजावाद। पर आज वो सब कहीं गुम हो गया है, यहाँ हर तरफ लूट मची है। हाल ही में नोटबंदी के दौरान करोड़ों इधर-उधर किये गये। धनकुबेरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा वो तो जैसे थे वैसे ही हैं, अलबत्ता आम जन का पैसा बैंकों में पहुँच गया। बात से भटकने से पहले मैं मूल मुद्दे पर आती हूँ।

मैं बात कर रही थी निज आदर्श चरित्र की। कल ही एक बहस के दौरान कुछ विद्वानों का मानना था कि भ्रष्टाचार तो जिसे भी जितना अवसर मिलता है वह कर ही लेता है यदि आपको हमको भी अवसर मिले तो हम भी कर लेंगे। जिसे इसका अवसर नही मिलता बस वही भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी के खिलाफ भाषण देने लगता है। मुझे पापा याद आ गये। संविद की सरकार थी मध्य प्रदेश में, पापा कृषि और सूचना प्रसारण मंत्री कुंवर फतेहभानू सिंह जी के सूचना अधिकारी तो थे ही पर साथ ही वे उन्हें, और ये उन्हें बराबर का सम्मान और प्यार किया करते थे। दोनों की दोस्ती की चर्चाऐं जग विख्यात थी।

उस दौरान मध्यप्रदेश की कृषि पर घनघोर संकट आन पड़ा ,फसलों पर इल्ली का प्रकोप हुआ और सरकार ने तय किया कि फसलों पर हेलीकॉप्टर से कीटनाशक दवाओं का छिड़काव कराया जायेगा। सरकारी घोषणा के साथ ही काम करने वालों का आना-जाना शुरु हो गया। एक दिन कभी क्रोध और ऊंची आवाज में ना बोलने वाले पापा की जोर की आवाज सुनाई दी हम सब दौड़कर ड्राईंगरुम में पहुंचे तो माज़रा हमारी बाल बुध्द की समझ से परे था। ड्राईंगरुम से लेकर बाहर बागीचे के गेट तक नोट बिखरे थे और पापा एक सूटकेस पर लात मरते हुए जोर से बोले -गेटआऊट और एक व्यक्ति हकबकाया सा जल्दी-जल्दी नोट बटोर रहा था। कुछ ही मिनटों में वह नौ-दो-ग्यारह हो गया। उस दिन हम पहली बार रिश्वत शब्द से परिचित हुऐ और जाना यह कितना गंदा शब्द है।

दरअसल वह व्यक्ति पापा को रिश्वत देकर हेलीकॉप्टर से दवाईयों के छिड़काव का काम लेना चाहता था। उस दिन पापा बहुत दुखी रहे, भोजन भी नहीं किया,शाम जब फतेहभानू अंकल घर आये, तब पापा लगभग बिफरते हुए बोले भाई मुझे दुख इस बात का ज्यादा है कि उसने ऐंसा सोचा भी कैसे कि मैं राजेन्द्र अनुरागी रिश्वत ले सकता हूँ ? उन्हें आत्मगिलानी नहीं होती। जब प्रदेश के किसानों,हमारे अन्नदताओं पर मुसीबत आन पड़ी है। इस कठिन समय में भी इन्हें स्वयं का मुनाफा नजर आ रहा है लानत है ऐसे लोगों पर। फतेहभानू अंकल पापा को समझाते रहे, देर रात फिर दोनों ने भोजन किया। तो क्या पापा को भ्रष्टाचार करने का यह मौका नहीं मिला था ? तब उन्होंने क्यों ठुकरा दिया?

एक और घटना मुझे याद आ रही है, एक बार पापा को सूचना प्रसारण विभाग में वाहन प्रमुख (व्हीकल इंचार्ज) बना दिया गया। दो-चार दिनों में ही पापा कमिश्नर के पास पहुंच गये, और बोले -आपने मुझे कहाँ फंसा दिया? मै लिखने पढ़ने वाला इंसान, आपकी यह व्यवस्था मुझसे नहीं संभाली जायेगी। कमिश्नर हँसते हुये बोले-अनुरागी जी इस पोस्ट के लिए लोग लालाइत रहते हैं। रिश्वत देकर, पावर लगा कर इसे हासिल करते हैं और आप दो दिन में ही ? पापा ने कहा, मैं इसके काबिल नहीं और ना ही मुझे यह पोस्ट चाहिए और पापा वहाँ से मुक्त हो गये। इसके बाद माँ को ऑफिस के लोगों ने ही बताया कि इस पोस्ट पर रहने वाले लाखों कमाते हैं और अनुरागी जी ने इसे छोड़ दिया। माँ हँसते हुए उनके मजे लेती। असल में माँ भी तो पापा जैसी ही थी और दोनों ने बचपन में एक सी घुटी पी थी।

आज यादों में विचरते हुए फतेहभानू अंकल की स्मृतियाँ चली आईं हैं तो उन्होंने भी यही पापा वाली बचपन की घुट्टि पी थी ,सो एक दिन यह राज कुंवर पापा के पास एक बैग लेकर आ गए और पापा से बोले - अनुरागी जी यहाँ बंगले का खर्च कुछ ज्यादा ही है और मुझे जो तन्खा मिलती है उसमें तो घर का हिसाब-किताब कुछ जम नहीं पा रहा है आज पी.ए. साहब ने बताया है कि कुछ उधारी भी हो गई है घर से भी बहुत रुपये मंगवा चुका हूँ। फिर बैग से राजघराने के कीमती जेवरात निकाले और बोले अब आप इन्हें बिकवा दें तो अच्छा होगा। माँ और पापा एक दूसरे को देख रहे थे और दोनों ही सोच रहे थे कि जब एक कृषि मंत्री अपने घर के जेवर बेच कर घर का खर्च चलाने की बात करता है तो उसकी ईमानदारी को सलाम किया जाना चाहिए।

पापा ने जेवर रख लिए और उन्हें विदा किया और फिर उनके पी.ए. निगम अंकल को बुलवाया सारा हिसाब समझा और माँ ने उसे पूरा करवाया। कुछ दिनों बाद पापा फतेहभानू अंकल के साथ उनके घर गये तो वहाँ उन्होंने वो जेवर वापस किए और कहा अब इन्हें मंत्री जी को न दें। यह राज परिवार की धरोहर है कृपया यहीं सुरक्षित रखें। यह है एक ईमानदार कृषि मंत्री की कहानी। पापा के साथ रहते हुए उन्होंने शिकार करना छोड़ दिया, मांस-मदिरा को त्याग दिया। पर मेरे यह आदर्श अंकल कहीं गुम गये हैं और मुझे उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पा रही है ,जबकी वे बाद में कांग्रेस से सांसद भी रहे हैं ,और हमारे गूगल महाराज भी उनके बारे में कोई जानकारी नहीं रखते। आज आदर्श और नेक इंसानों का शायद यही हाल है।

इस समय मैं गुजरात में साबरमती आश्रम में हूँ , पापा और उनके दोस्तों की याद आना स्वाभाविक है। यह आदर्श हमारे जीवन को एक नयी राह दिखाते हैं और हमें कभी पथ-भ्रष्ट नहीं होने देते। आज जब समूचे विश्व को गाँधी के मार्ग पर चलने की आवश्यकता है और हमें भ्रष्टाचार मुक्त भारत की। तब गाँधी और उनके अनुयायियों की जरुरत महसू होती है। पापा की एक कविता यहाँ गुजरात में घुमते हुये याद आ रही है....

 

ये कैसा संन्यासी रे बाबा
ये कैसा संन्यासी !
छोटे घर को छोड़ बन गया
बड़े विश्व का वासी, रे बाबा
ये कैसा संन्यासी!
ना पहिने ये वसन गेरुआ
ना तन भसम रमाए।
फिर भी निर्विकार बैठा है
मोहन-जोत जगाए।
दीन-कुटी हैं काबा इसका
हरिजन का घर काशी, रे बाबा
ये कैसा संन्यासी!
बापू बन आशीष लुटाए,
नेता बन कर राह दिखाए,
सबको प्रेम-पंथ पर लाकर
हिल-मिलकर जीना सिखलाए।
जन-जन के मन जागे चेतन-
सहज-जोत अविनाशी, रे बाबा
ये कैसा संन्यासी!

यह एक बहुत लम्बी कविता है और रुपक रुप में है जिसका कुछ अंश ही मुझे याद है। यहाँ साबरमति के आश्रम में से आप सबको नव वर्ष की मंगल कामनाएं , आने वाला वर्ष हम सबको सच्चाई के मार्ग पर चलने का हौसला दे।सत्यमेव जयते।

 



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