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उन अगड़ों को इतिहास कैसे विश्लेषित करेगा, जो कांग्रेस राज में मलाई मारते रहे और अब मोदी की हॉं में हॉं

खरी-खरी            May 05, 2019


हेमंत कुमार झा।
आज जो लोग नरेंद्र मोदी के एक से एक गलत और गलीज़ बयान पर अपने समर्थन की हुआं-हुआं के साथ उत्तर भारत की राजनीतिक जमीन को वैचारिक रूप से बंजर बना रहे हैं, एक जमाने में वही और उनके बाप-दादे राजीव गांधी के बड़े मुरीद हुआ करते थे। उनमें से बहुतों को याद होगा कि जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तो उनके बापों ने, दादाओं ने, नानाओं ने श्राद्ध के दौरान सिर के बाल मुड़ाए थे और बहुत सारे लोगों ने तो बाकायदा श्राद्ध का भोज भी आयोजित किया था।

मोदी का अनर्गल भक्ति-गान अनवरत गाने वाले इन तमाम लोगों में से बहुतों को याद होगा कि एक जमाने में कांग्रेस ही उनके बाप-दादों की राजनीतिक पनाह गाह थी और उसी की सत्ता की छतरी तले उन्होंने स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की स्थापना और जमींदारी उन्मूलन के बावजूद क्रूर सामंती जुल्मों का सिलसिला कायम रखा था।

बिहार और यूपी में कांग्रेसी राज्य सरकारों के संरक्षण में ग्रामीण क्षेत्रों में दलितों और पिछड़ों के अमानवीय शोषण और जुल्म की इंतेहा पार करने वाले लोगों के बेटे-पोतों को आज इंदिरा गांधी का पोता और राजीव गांधी का बेटा, जो एआईसीसी का अध्यक्ष है, पप्पू नजर आता है और तमाम अंतर्विरोधों के उजागर हो चुकने के बावजूद नरेंद्र मोदी उनका हृदय सम्राट है तो इसके पीछे सवर्ण वर्चस्ववाद की लुप्त होती लकीरों को गाढ़ा बनाए रखने की आत्महंता कोशिशों के सिवा और कोई महत्वपूर्ण कारक नहीं है।

आर्थिक नीतियों के धरातल पर कांग्रेस और भाजपा में खास अंतर नहीं, लेकिन बिहार-यूपी में राजनीतिक समर्थन का सामाजिक आधार, जो कांग्रेस से छिटक कर भाजपा के पाले में आ गया है, उसका कारण नीतियां तो बिल्कुल नहीं हैं।

कारण है बिहार में लालू और यूपी में मुलायम का उदय। इन दोनों के उभार ने अगड़ों में जिस असुरक्षा भाव को जन्म दिया, उसे भुनाने में कांग्रेस पीछे जबकि भाजपा आगे हो गई। इसके कई ऐतिहासिक कारण हैं, जिनमें राजीव गांधी की असामयिक मौत और नरसिंह राव की कांग्रेस का लालू-मुलायम के प्रति अपेक्षाकृत नरम रुख प्रमुख हैं।

महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कैसे बिहार-यूपी में कांग्रेस ने अपना अगड़ा आधार खोया और कैसे भाजपा इस पर काबिज होती गई। महत्वपूर्ण यह है कि अटल युग की समाप्ति और उसके दस वर्षों बाद मोदी युग की शुरुआत के बाद भारतीय राजनीति और सत्ता-तंत्र ने नैतिक पतन की जो कलंकित गाथा लिखी, अधिकांश अगड़े उसके ऐसे विचारहीन गायक बन कर रह गए, जैसे मध्यकाल में एक से एक अधम शासकों की यशगाथा चारण लोग गाते थे।

आश्चर्य होता है कि कभी देश के स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाने वाले और भारत को मजबूत लोकतंत्र का वैचारिक आधार देने वाले अगड़े सामाजिक समुदाय के नेताओं के वारिसान भी आज नेहरू का चरित्र हनन करने वाली झूठी कहानियों, जिसे निहित राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित कोई आईटी सेल प्रोमोट करती है, को सोशल मीडिया पर फॉरवर्ड कर ग़लीज़ आत्मतुष्टि का अनुभव करते हैं।

भाजपा में यह दम नहीं है, क्योंकि अब यह सम्भव ही नहीं है कि सवर्णों के सामाजिक प्रभुत्व को राजनीतिक-संवैधानिक संरक्षण दिया जा सके। वह कांग्रेस का ही दौर था, नेहरू, इंदिरा और राजीव का ही दौर था जब संपन्न और शक्तिशाली अगड़े थाना, पुलिस, कानून को अपनी जेब में रखते थे, सत्ता के संरक्षण में बूथ कैप्चर कर दलितों, पिछड़ों के वोटों की खुलेआम डकैती करते थे, कानून की अवहेलना कर गरीब कृषि मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी तक नहीं देते थे।

यहां यह उल्लेखनीय है कि सवर्णों में भी मुट्ठीभर शक्तिशाली समुदाय ही इन तरीकों से राज करते थे। बाकी तो, नाम के ही सवर्ण थे, जो जिंदगी और गरीबी से जूझते-जूझते असमय ही बूढ़े हो जाते थे। संपन्न, शक्तिशाली लोग, जो संख्या में अति सीमित थे, उन्हीं की मुट्ठियों में असीमित शक्ति थी।

यह शक्ति उन्हें तत्कालीन सत्ता से मिलती थी और जाहिर है, वह कांग्रेसी सत्ता ही थी। इसके बदले वे सत्ता को समर्थन देते थे और सवर्णों की बहुसंख्यक निर्धन जमात वोट देने के मामले में शक्तिशाली जमात का अंध अनुसरण करती थी।

पहले कांग्रेस के मामले में सवर्णों का बहुसंख्यक निर्धन तबका जिस तरह अपने संपन्न तबकों का समर्थन करता था, उसी तरह अब भाजपा के मामले में कर रहा है। सोचने, समझने की जरूरत ही नहीं।

तो... जिसे रंगदारी कहते हैं न, तो सवर्णों का शक्तिशाली समुदाय जो रंगदारी कांग्रेस राज में कर गया, अब उसका स्वप्न भी देखना सम्भव नहीं। दौर बीत चुका है, दौर बदल चुका है। आप मोदी-भाजपा राग गाते रहिये, बीता दौर नहीं लौटने वाला।

अब जमाना जगजीवन राम, बालेश्वर राम, बलिराम भगत और रामलखन सिंह यादव जैसों का नहीं है, जो अपनी सामाजिक जड़ों के राजनीतिक प्रतिनिधि से अधिक महज़ राजनीतिक प्रतीक थे। अब जमाना बरास्ते कांशीराम, मुलायम और लालू...मायावती, अखिलेश और तेजस्वी का है जिनमें किसी भी वर्चस्ववाद को चुनौती देने का सामाजिक, राजनीतिक दमखम है।

राजीव गांधी की मौत के 28 वर्ष बीते। इन बीते वर्षों में उनके और कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों ने उन पर एक से एक कमेंट किये होंगे, लेकिन कल नरेंद्र मोदी ने जो कमेंट किया उसके घटियापन की मिसाल मिलनी मुश्किल है। गौर करने की बात है कि यह एक वर्त्तमान प्रधानमंत्री का एक स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री पर कमेंट है, जो अपने दौर में मोदी से अधिक लोकप्रिय थे और जिनकी जीत का रिकार्ड तोड़ने से मोदी मीलों दूर रह गए।

इतिहास राजीव गांधी की राजनीतिक शख्सियत और उनके दौर की मीमांसा कर रहा है। मोदी भी इतिहास की परतों में गुम होने वाले हैं, संभवतः आगामी 23 मई को ही। इतिहास उनका भी निर्मम विश्लेषण करेगा। करेगा ही। लेकिन, मोदी की भक्ति में जवाहरलाल नेहरू और राजीव गांधी की गरिमा को भूल जाने वाले उन अगड़ों को इतिहास किस तरह विश्लेषित करेगा, जो कांग्रेस राज में मलाई मारते रहे थे...यह सोचने की बात है।

 


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