राघवेंद्र सिंह।
एक कहावत है अच्छी बातें तो बुरे लोग भी करते हैं। इसलिये आदमी बातों से नहीं अपने कर्मों से पहचाना जाता है। यह कहावत राजनैतिक, सामाजिक, प्रशासनिक से लेकर मीडिया कर्मियों पर भी लागू होती है। यह इसलिये इन बिरादियों के लोगों से भी माफी के साथ आज की बातें। हमारा फोकस फिर सियासत पर है क्योंकि देश को दिशा देने के काम में यही सबसे बड़े ठेकेदार हैं। रावण ने भी सीता जी का हरण साधु बनकर किया था। गुरू का स्थान भी गोविंद के पहले था, डाक्टर को भगवान के बाद दूसरा भगवान माना जाता था और मीडिया को महाभारत के संजय और विदुर की तरह सही बात बताने और सच दिखाना वाला माना जाता था। हम यहीं से अपनी बात शुरू कर रहे हैं।
पिछले दिनों नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की क्षेत्रीय बैठक में जो कुछ कहा गया वह सब बहुत अच्छा था लेकिन कहने वाले और कराने वालों के आचरण पर नजर डालें तो वही निकलकर आता है, अच्छी बातें तो बुरे लोग भी करते हैं। हमेशा लोग कामकाज से ही जाने जाते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जल, जंगल और जमीन का जिक्र करते हुये बताया कि बंदर, भालू जंगल छोड़- छोड़ कर बाजार और शहरों में आने लगे हैं क्योंकि हमने उनके घरों को उजाड़ दिया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी अन्य राज्य को लेकर इसका जिक्र नहीं कर रहे हैं। उन्हाेंने कहा कि साल एेसा पेड़ जाे पानी छाेड़ता है।
अमरकंटक से मंडला तक साल के पेड़ अगर सूख जायें ताे समझाे नर्मद जी संकट में अा जायेंगी। सूख जाएंगी, खत्म हो जाएंगी। यहां साल के पेड़ सूख रहे हैं अाैर किसी काे इसकी चिंता नहीं है। इनको बचाने के लिये कोई शाेध नहीं कर रहा है। जाहिर है कि यह एहतियात उन्होंने मध्यप्रदेश को लेकर बरता होगा क्योंकि एनजीटी के क्षेत्राधिकार में मध्यप्रदेश भी आता है और अक्सर राजधानी भोपाल के केरवा पहाड़ी और कोलार क्षेत्र में शेर, तेंदुए की आमद आम हो गई है।
अक्सर शहर और गांव के लोगों से रात तो क्या दिन में भी जंगल महकमा इन इलाकों में जाने से रोकने की एडवाइजरी जारी करता है। यहां हम बता दें कि कोलार और केरवा इलाके में बस्तियों के साथ शिक्षण संस्थान भी खुल गये हैं। याने अब गाय बैलों के साथ आम आदमी भी शेर, तेदुए की शिकारगाह में आ गया है। मुद्दा यहीं से शुरू होता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने भावुक और संवेदनशील स्वभाव के अनुरूप एनजीटी के निर्णयों की जमकर तारीफ की। उन्होंने जो कहा उसका लब्बोलुआब यह है कि ट्रिब्यूनल की सक्रियता से भोपाल हिल स्टेशनों की तरह सुंदर बना हुआ है। यहां जंगल और नदियां एक तरह से सुरक्षित हैं। इन बातों से अलग दूसरी तस्वीर भी है। मसलन हम भोपाल का ही जिक्र करें तो एनजीटी ने बड़ी झील को बचाने के लिये निर्देश दिये थे। उनके पालन में हफ्तों नहीं महीनों बीत गये हैं लेकिन सरकार और प्रशासन का काम दीवार धकाने जैसा साबित हुआ है। मिसाल के तौर पर भोपाल के बीचोबीच आये स्लाटर हाउस को हटाने के निर्देश दिये थे लेकिन सरकारी जलेबी नहीं इमरतीनुमा कोशिशों के चलते अभी तक वह टस से मस नहीं हुआ है।
जबकि एनजीटी ने नगर निगम, मुख्य सचिव तक को निर्देश दिये थे। मगर समूची कार्यवाही एनजीटी को थकाने वाली साबित हुई। ऐसे ही बड़ी झील को कहते तो भोपाल की लाइफ लाइन हैैं लेकिन इसका दम घोंटने के लिये रिटर्निंग वाल कैचमेंट एरिया में बनाने के बजाय झील की अंदर ही बना दी गई। यह बात पिछले साल बारिश की है। वह तो अच्छा हुआ कि बरसात इतनी हुई कि झील ने खुद अपनी हद तय कर ली।
नतीजा यह हुआ कि रिटर्निंग वाल पानी में डूब कई और बड़ी झील कई मीटर दूर तक निकल गई। इस पर खुद मुख्यमंत्री ने झील किनारे घूम कर रिटर्निंग वाल तोडऩे के निर्देश दिये थे। मगर एनजीटी और सीएम के आदेश सुरक्षित स्थान पर रखे हुये हैैं और समस्या का भी बालबांका नहीं हुआ है। ऐसी ही कहानी जो मुनारें झील के बाहर लगनी थी वे भी झील के भीतर लगा दी गईं। उन्हें भी एक साल से ढूंढा जा रहा है। मगर महापौर, चीफ सेक्रेटरी और चीफ मिनिस्टर की बातों के बावजूद उन्हें ढूंढा नहीं जा सका है। यानि झील का गला घोंटने वाली सरहद न तो तोड़ी गई है और न ही मुनारें मिली हैं। आगे इसकी कोई संभावना भी नजर नहीं आती है।
आगे देखें तो सरकारें गुड गवर्नेंस की बातें करती हैं। मगर होता उसके उलट है। स्कूल शिक्षा का स्तर उठाने की बात होती है, परिणाम में गिरता हुआ दिखता है। अस्पतालों में मरीज का इलाज और दवा देने की बात होती है लेकिन न डाक्टर होते हैं न दवाएं मिलती हैं। इसी तरह खेती को लाभ का धंधा बनाने की बात होती है और वह बनता है मौत का धंधा। एनजीटी के और आदेश की बातें करें नर्मदा समेत नदियों से रेत निकालने और पहाड़ को खोदने से रोकने की लेकिन होता है इसके खिलाफ। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने कहा था कि रेत की चोरी रोकने के लिये अब नदियों के हरेक घाट पर तो हथियारबंद लोगों की तैनाती नहीं की जा सकती। सरकार ऐलान कर चुकी है कि मरीजों के इलाज के लिये अस्पतालों में डाक्टर नहीं मिल रहे हैं। इसका मतलब अब जिसको जैसे इलाज कराना हो वह खुद तय कर ले।
इसी तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने भाषणों में अक्सर कहती थीं गरीबी हटायेंगे। बाद में विरोधियों ने इसमें सुधार किया और कहा इंदिरा जी ने गरीबी तो नहीं गरीब को जरूर हटा दिया। ऐसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बातें करते हैं कि न खाऊंगा न खाने दूंगा। लेकिन भाजपा शासित राज्यों में ही देखें तो वहां लोग खा भी रहे हैं और खाने भी दे रहे हैं और लोग देख रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के नारे के खिलाफ आचरण करने वालों का कुछ नहीं बिगड़ रहा है। इस तरह की बातें के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं लेकिन बात वही है कि अच्छी बातें तो बुरे लोग भी करते हैं। सही मायने में आदमी आचरण, व्यवहार और कर्मों से ही जाना जाता है।
आडवाणी जी...किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के पितृपुरुष या भीष्मपितामह जो उचित लगे उसी हिसाब से मान सकते हैं। मगर यह अपने जमाने का लौहपुरुष इन दिनों लाचार पुरुष की भाव भंगिमा में क्यों नजर आते हैं। भाजपा के जन्म से लेकर इसके उत्कर्ष तक सक्रिय रहे आडवाणी को पार्टी ने पीएम इन वेटिंग भी बनाया था।
हम यहां बता दें कि जनसंघ से लेकर जनता पार्टी और भाजपा में आडवाणी पार्टी के प्रमुख पदों पर एक से अधिक बार रह चुके हैं। वर्ष 77 में मुरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री बने थे उसके बात अटल जी की सरकार में उप प्रधानमंत्री तक रहे। विभाजन के बाद आडवाणी जी का व्यक्तित्व संघर्ष करने वाले लीडर के रूप में उभरा, मगर अब वे भाजपा को दो सीट से दो सौ तक पहुंचाने वाले फाइटर लीडर के रूप में नजर नहीं आते। हर जगह उनकी उपस्थिति होती है मगर वे असहाय और लाचार दिखते हैं।
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष जैसे सभी पद भर चुके हैं। ऐसी हालत में उन्हें कोई नई भूमिका चुननी चाहिये। उनके सीचें हुये पौधों में नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, वैकेया नायडू, सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, प्रकाश जावड़ेकर से लेकर कुछ ऐसे भी हैं जो राज्यों में मुख्यमंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं। ऐसे में आडवाणी समाज सेवा के लिये कोई नया काम चुनकर कोई उदाहरण पेश कर सकते हैं। भाजपा के ही नाना जी देशमुख ने 60 की उम्र में राजनीति से रिटायरमेंट लेकर चित्रकूट विश्वविद्यालय जैसा ऐसा संस्थान बनाया जो देश के साथ दुनिया में मशहूर है। उनके लिये एक मशहूर शायर निदा फाजली की गजल की यह लाइनें काफी हैं...
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता।
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता।
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है।
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता।
कभी बुझा सका है भला कौन वक्त के शोले।
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता...
देश की सियासत और समाज में जो घट रहा है उसके लिये मशहूर कवि ओमप्रकाश आदित्य की कालजयी रचना...
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं
गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है
जवानी का आलम गधों के लिये है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिये है
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिये है
ये संसार सालम गधों के लिये है
पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके
मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं
गधों की तरह झूमना चाहता हूं
घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो
यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी है
ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है
जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है
मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं
नशे की पिनक में कहां बह गया हूं
मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था !!
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