हेमंत कुमार झा।
धर्मध्वजाधारियों के सम्मेलन में आह्वान किया गया कि अपने बच्चों के हाथों में आधुनिक हथियार दें।
सामने खड़े नौजवानों को मंचासीन 'संतों-बाबाओं' ने शपथ दिलाई कि धर्म आधारित राष्ट्र बनाने के लिये मरने और मारने को तैयार रहना है।
एक सन्तिन तो लाखों लोगों के 'संहार' के लिये नौजवानों के जत्थे बनाने को विकल थी।
जब ज़ाहिलों के हाथों में धर्म की ध्वजा हो और क्रिमिनल लोग मठाधीशों की भूमिका में हों तो ऐसे ही दृश्य उपस्थित होते हैं।
इसमें आश्चर्य की भी बात नहीं। ज़ाहिलों और अपराधियों से और कैसी अपेक्षा हो सकती है।
लेकिन,किसी वीडियो में नजर आया कि एक पदासीन मुख्यमंत्री इनमें से ही किसी एक ज़ाहिल के चरणों पर झुका है।
फिर सार्वजनिक मंच से नफरत और जनसंहार की बातें करने वालों पर एफआईआर का आदेश कौन देगा?
भारतीय राष्ट्र-राज्य की संवैधानिक संस्थाएं इतनी पंगु कैसे हो गईं कि ऐसी घटनाओं पर अब तक चुप्पी छाई है।
सुना है, कोर्ट को बहुत 'पावर' होता है कि वह स्वयं भी इन घटनाओं का संज्ञान लेकर कार्रवाई का आदेश दे सकता है।
यह भी सुना है कि पुलिस और प्रशासन के पदाधिकारीगण कानून और संविधान के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
फिर...इतना खौफ़नाक सन्नाटा क्यों?
क्या इसकी पृष्ठभूमि में यूपी के चुनावों को लेकर किसी राजनीतिक दल के हित जुड़े हैं?
इधर से कोई बाबा बोलेगा, "हम तो अपने धर्म के झंडे तले राष्ट्र बनाएंगे"...उधर से कोई मुल्ला चीखेगा,"मां का दूध पिया है तो बना कर देख लो"।
बाबा भी प्रायोजित...मुल्ला भी प्रायोजित। उनके चेले-चपाटे भी प्रायोजित।
फिर तो...कहां गई बेरोजगारी, कहां गए स्कूल-अस्पताल, कहां गई आर्थिक नीति पर बहसें।
माहौल ही अलग सा...भीतर ही भीतर सुलगता सा कुछ।
उसके बाद तो...
लो जी...अपनी तो बन आई। अब तो हम हैं, हमारी पार्टी है और वोटों की फसल है।
यह 21वीं सदी का भारत है।
सदी की शुरुआत में दुनिया के विचारक कहते थे कि नई सदी भारत की होगी।
दो दशक बीत चुके। हम सबसे अधिक कुपोषित हैं दुनिया में। इधर, हाल के वर्षों में ग्राफ में और नीचे ही आ गए हैं।
सबसे अधिक बेरोजगार भी हैं।
सबसे अधिक अनपढ़ों के मामले में भी हम शीर्ष पर हैं।
विकास के लाभों की बंदरबांट में लगा कारपोरेट समुदाय हमारी राजनीति के सूत्र अपने हाथों में ले चुका है।
तभी तो हमारी राजनीति बातें तो विकास की करती है लेकिन ऐसे कुचक्र रचती है कि नौजवान एक दूसरे को काटें, मारें।
राजनीति जानती है कि अगर नौजवानों को आपस में नहीं लड़ाया गया तो ये मिल कर बेरोजगारी से लड़ने को उठ खड़े होंगे।
रोजगार की जरूरत, इलाज की जरूरत, शिक्षा की जरूरत सबको है। लेकिन, बाबा लोग बता रहे हैं कि सबसे पहले धर्म आधारित राष्ट्र की जरूरत है।
ज़ाहिलों और अपराधियों को धर्म के नाम पर मंच पर स्थान मिलना, उनका कानून, संविधान, धर्म और इंसानियत की खुलेआम ऐसी की तैसी करना और इन सब पर जिम्मेदार लोगों की चुप्पी...शासन तंत्र की निष्क्रियता।
नई सदी के भारत की यात्रा अपना मार्ग भटक चुकी है।
उम्मीद देश के लोगों से है, नौजवानों और बच्चों से है, जो इन पाखंडियों की हकीकत से वाकिफ हो रहे हैं।
दौर बदलेगा...जल्दी ही। किसी देश और समाज के इतिहास में दस-बीस वर्षों की बिसात ही क्या है। पन्ने पलटेंगे तो नए दौर की कहानी सामने होगी।
लड़ाई किसी धर्म आधारित देश के लिये नहीं, असल लड़ाई तो इलाज और रोजगार के लिये होगी, रोटी और शिक्षा के लिये होगी।
होगी ही...क्योंकि हमारा अस्तित्व इन्हीं पर निर्भर है और, अब तो...अस्तित्व पर संकट है। पाखंड की राजनीति ने नई पीढ़ी को ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है जहां और कोई विकल्प भी नहीं, सिवाय पढ़ने के, लड़ने के।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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