पुण्य प्रसून बाजपेयी।
कॉरपोरेट-उद्योगपतियों को धन देंगे। उससे कारपोरेट-कारोबारी धंधा करेंगे। मुनाफा अपने पास रखेंगे। बाकि टैक्स या अन्य माध्यमों से रुपया सरकार के खजाने तक पहुंचेगा। कॉरपोरेट-उद्योगपतियों की तादाद ज्यादा होगी तो उनमें सरकार के करीब आकर धन लेने से लेकर लाइसेंस लेने तक में होड़ होगी।
इस होड़ का लाभ सत्ता में बैठे लोग उठायेंगे, कोई मंत्री, कोई नौकरशाह। सत्ताधारी पार्टी के नेता। या फिर डील कभी बड़ी हो गई तो वह पीएम के स्तर तक पहुंचेगी।
यह क्रोनी कैपटलिज्म होगी। और बाकि हालात में बाजारन्मुख इक्नामी। यानी बाजार में जिस चीज की मांग उसी अनुरुप उनसे जुड़ी कंपनियों को लाभ। कमोवेश हर क्षेत्र में इसी तरह जिस कारपोरेट को काम करना है करें। सरकार बैंकों के माध्यम से कारपोरेट-उघोगपतियों को कर्ज देगी, कर्ज लेकर वह ज्यादा इंटरेस्ट रेट पर लौटायेंगे तो, बैंक भी फलेंगे फूलेंगे। जनता को बैंकों में रकम जमा करने पर ज्यादा इंटरेस्ट भी मिलेगा।
यानी देश इसी तरह चलता रहेगा। कोई बड़ी फिलोस्फी या थ्योरी इसमें है नहीं कि इक्नामी अगर बाजार के लिये खोल दी जाये तो कैसे कारपोरेट-उगोगपति ही देश की जरुरतो को पूरा करेंगे। और कैसे इन्फ्रास्ट्र्कचर से लेकर।
शिक्षा-हेल्थ-घर-रोजगार तक में यानी हर क्षेत्र में भागीदारी होगी। लेकिन कोई कड़ी टूट जाये या फिर कई कड़ियां टूट जाये तो क्या होगा। सरकार अपने पसंदीदा कारपोरेट को लाभ पहुंचाने लगें क्योंकि वही कारपोरेट चुनाव में होने वाले खर्च में साथ देता है।
कॉरपोरेट बैंक से कर्ज लेकर धन वापस ना करें और सरकार बैंकों को कह दें कि वह अपने दस्तावेजों से कर्जधारक कारपोरेट-उघोगपतियो का नाम हटा दें। उसकी एवज में कुछ रकम सरकार बैंकों को देगी। बैंक रुपये का अवमूल्यन करने लगे, यानी जनता का जमा सौ रुपया बरस भर बाद 75 रुपये की कीमत का रह जाये।
यानी एक तो जमा रकम पर इंटरेस्ट रेट कम हो जाये, दूसरी तरफ महंगाई या वस्तुओं की सीमित आपूर्ति बाजार में वस्तुओंं के दाम बढ़ा दें और इस पूरी प्रक्रिया में सरकार-सत्ता खुद को हाशिये पर पड़े तबके से जोडने के लिये टैक्स का पैसा कल्याणकारी सोच के नाम पर बांटने लगे।
या फिर दो जून की रोटी के लिये तरसते 70 फिसदी आबादी के घर में चूल्हा-रोटी-बैंक अकाउंट की व्यवस्था कराने में ये कहकर लग जाये कि देश तो यही है। तो जिस कारपोरेट को 100 खरब का लाभ हुआ उसने सरकार के कहने पर एक खरब हाशिये पर तबके के बीच बांट दिया। या फिर जिस 30 फीसदी के लिये सिस्टम बनाकर बाजार अर्थव्यवस्था सोची गई।
उसी 30 फीसदी के उपर कमाई के सारे रास्ते तले बोझ इतना डाल दिया जाये कि वह चिल्लाये तो 70 फीसदी गरीबों का रोना रोया जाये। या फिर कारपोरेट जो पंसदीदा है उसके लिये देश के तमाम खनिज संसाधनों की लूट के रास्ते खोल दिये जायें।
लूट के अक्स में विकास का राग ये कहकर गाया जाये कि जो उपभोक्ता दुनिया के किसी भी हिस्से से भारत को देखे उसे यहां की वही जमीन दिखायी दे जिसपर चल कर वह भी लूट में शामिल हो सकता हो।
यानी भारत को हथियार चाहिये या बिजली, कोयला चाहिये या चीन बुलेट ट्रेन टाहिये या छोटे हवाई जहाज। सबकुछ बाहर से आयेगा। पूंजी उन्ही की। काम उन्हीं का, उत्पाद उन्हीं का, सरकार सत्ता सिर्फ उसके एवज में टैक्स लेगी। अगर जितना लगाकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां काफी ज्यादा कमा रही हैं तो फिर किसी आने दिया जाये या किसे रोका जाये?
ये अधिकार सत्ता-सरकार के हाथ में होगा, तो फिर क्रोनी कैपटलिज्म का दूसरा चेहरा कमीशन के तौर पर भी उभरेगा और लाभ देकर लाभ उठाने के रास्तों की दिशा में भी जायेगा। यानी चाहे अनचाहे सत्ता सरकार है कौन और जनता के नुमाइन्दों को कैसे देखा जाये? ये सवाल आपके जहन में आना चाहिये।
क्योंकि अगर सरकार खुद को इस भूमिका में ले आये कि जनता ने उसे पांच बरस के लिये चुना है और पांच बरस तक उसकी हर थ्योरी पर जनता की मुहर है तो फिर सत्ता खुद को लाभ के पद से जोडेगी ही। खुद को मुनाफा कमाने वाली मशीन मानेगी ही।
यानी सरकार जिससे जुडे उसे मुनाफा, जो सरकार-सत्ता से जुडे उसे मुनाफा। चूंकि इक्नामी को देखने समझने का नजरिया ही जब राष्ट्रीय स्तर पर मुनाफा बनाने का हो चला हो तो फिर सत्ता खुद को कैसे मानेगी। या फिर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी भी खुद को कैसे देखेगी? उसे लगेगा कि अगर वह माधुरी दीक्षित के घर गये तो माधुरी दीक्षित को लाभ। माधुरी दीक्षित को लगेगा सत्ता खुद चलकर उनके घर पहुंची है तो उन्हें भी लाभ। क्योंकि सत्ता ही साथ है तो फिर कोई भी सिस्टम या सिस्टम के तहत कोई भी संस्थान कैसे खिलाफ में पहल कर सकता है?
सत्ता चूंकि हर संस्थान का प्रतीक है। यानी जिसकी सत्ता उसके सारे सस्धान वाली फिलास्फी जब उपर से नीचे तक चल पड़ी हो तो फिर न्यायपालिका हो या विधायिका। यानी मामला अदालत का हो या किसी संवैधानिक संस्था का। निर्णय तो सत्तानुकूल रहेंगे ही और सत्ता को सत्ता में बने रहने के लिये हर क्षेत्र का साथ चाहिये। जो सरकारी हैं, संवैधानिक हैं, वह तो साथ खड़े होंगे ही। जो प्राइवेट हैं जब उन्हें भी जानकारी मिल जायेगी कि सत्ता के साथ रहे तो मुनाफा और सत्ता साथ रही तो डबल मुनाफा। तो होगा क्या?
हर स्कूल, हर अस्पताल, हर बिल्डर, हर दुकानवाला, हर तरह के धंधेवाला तो चाहेगा कि वह सत्ताधारियों तक कैसे पहुंचे या कैसे सत्ताधारी उसके दरवाजे तक पहुंच जाये। जो पैसे वाला होगा वह खर्च करेगा। जो समाज को प्रभाव करने वाला होगा वह अपने प्रभाव का प्रयोग सत्ता के लिये शुरु कर देगा।
जब सब तरफ सत्ताधारियों तक पहुंचने या नतमस्तक होने की होड़ हो जायेगी तो फिर सत्ताधारी खुद को पारस से कम तो समझेंगे नहीं। उन्हें लगेगा ही कि जिसे छू दिया वह सोना हो जायेगा। तो फिर क्या होगा। कमोवेश हर संस्थान और हर संवैाधानिक पद भी सत्ता की चौखट पर पड़ा होगा।
सत्ता तय करेगी आज इसके दरवाजे पर चला जाये या इस दरवाजे वाले को अपनी चौखट पर खडा किया जाये तो वह करेगा। जनता-सत्ता के बीच संवाद बनाने वाली मीडिया भी फिर सत्ता की होगी। सत्ता उन्हीं के दरवाजे पर जायेगी या उन्हीं को अपने दरवाजे पर बुलायेगी जो सत्ता के सामने नतमस्तक को कर सवाल पूछे।
फिर एक दिन सत्ता सोचेगी जब सब कुछ वहींं है या वह नहीं तो फिर दूसरे को मुनाफा भी नहीं तो फिर सत्ता तय करेगी अब इस कौन कौन से दरवाजे को बंद कर दिये जाये और चूंकि चुनावी लोकतंत्र ही जब सेवकों के नाम पर मुनाफा देने-बनाने वाले धंधे में खुद को तब्दील कर लेता है तो फिर इस लोकतंत्र का सिरमौर यानी राजा क्या सोचेगा?
वह चाहेगा हर जांच उसके अनुकूल हो, न्याय उसके अनुकुल हो, सिस्टम उसके लिये हो और चौथा स्तम्भ भी उसका हो। फिर राजा को जनता ने चुनाव है तो राजा की मनमर्जी जनता की मर्जी तो बतायी ही जा सकती है। तो फिर निर्णय होंगे जो वस्तु दुनिया के बाजार में सस्ती है उसे देश में महंगा कर दिया जाये।
दुनियाभर की सैर करते हुये देश को बताया जाये कि दुनिया कैसी है। शिक्षा-दीक्षा की परिभाषा पूजा-पाठ में बदल दी जाये। खान-पान के नियम कायदे धर्मयोग से जोड़ दिया जाये।
वैचारिक सोच को राजधर्म के साये तले समेट दिया जाये। जो विरोध करें या फिर सवाल करें उसके दरवाजे पर कोई सत्ताधारी ना जाये। क्योंकि सिस्टम तो मुनाफे वाला है और मुनाफे का मतलब सत्ता के सामने नतमस्तक होकर कमाना है।
तो जब पारस ना जायेगा तो लोहा लोहा रह जायेगा उसकी कोई कीमत ही नहीं होगी। फिर पांच बरस बीतने पर कोई दूसरा पारस होगा, उसके दूसरे चेहरे होंगे, पर सिस्टम तो यही होगा। सत्ता जिसकी चौखट पर या जो सत्ता की चौखट पर वही रईस बाकि सब रंक।
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