राकेश दुबे|
यह कैसा विरोध है ? देश का एक हिस्सा प्रलय जैसी आपदा से जूझ रहा हो और आप उसमें किसी प्रकार का रचनात्मक सहयोग करने के बजाय विदेश चले जाये । लेकिन क्या जरूरी है, विदेश में ऐसा कुछ न कहें या करें जिससे देश की शान और मान कम हो।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जब भी विदेश दौरे पर जाते हैं, कोई ना कोई विवादित बयान जरूर देते हैं। जर्मनी के हैम्बर्ग में बुसेरियस समर स्कूल में छात्रों को संबोधित करते हुए राहुल ने देश में उन्माद की हिंसा (मॉब लिंचिंग) की बढ़ती घटनाओं को बेरोजगारी से जोड़ दिया। राहुल का ये बयान कुछ ऐसा ही है, जैसे कहा जाता है कि देश की बढ़ती जनसंख्या की वजह बेरोजगारी है। पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को इस बारे सचेत रहने की जरूरत है।
अपने बयान में, 'राहुल गांधी ने जर्मनी में आतंक और आइएसआइएस को सही ठहराने की कोशिश की उसकी जद में वे भ्रष्टाचार को मानते हैं।
उनके पिता राजीव गांधी ने ही कहा था कि १०० पैसा भेजने पर आम आदमी के पास केवल १५ पैसा ही पहुंचता है। बीच का ८५ पैसा बीच के लोग ही तो खाते है , आखिर उस वक्त बीच के लोग कौन थे ? और अब कौन है एक यक्ष प्रश्न है ? दोनों सरकारें इन लोगों को नहीं खोज सकी हैं।
भ्रष्टाचार तब भी विषय था अब भी विषय है | देश के नेताओं को देश के बाहर ऐसे जुमले उछालने की जगह देश में ही कुछ काम करना चाहिए।
राहुल गाँधी ने जर्मनी में यह भी कहा कि देश में बेरोजगारी के बढ़ने की वजह से लोगों में गुस्सा है और उसी का कारण ये हिंसक घटनाएं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ साल भारत सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था में नोटबंदी का फैसला किया और एमएसएमई के नकद प्रवाह को बर्बाद कर दिया, जिससे अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोग बेरोजगार हो गए। बड़ी संख्या में छोटे व्यवसायों में काम करने वाले लोगों को वापस अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा, इससे लोग काफी नाराज हैं।
उनके अनुसार माब लिंचिंग के बारे में जो कुछ भी हम सुनते हैं वो इसी का परिणाम है। तो सवाल यह है कि जिम्मेदार प्रतिपक्ष ने भारत में क्या किया ? क्या प्रतिपक्ष ने कोई देश ब्यापी आन्दोलन खड़ा किया। नही, तो फिर विदेश जाकर ऐसे मुद्दों को उठाना कहाँ तक ठीक है ?
देश को दिशा देने में वे मोदी सरकार को अक्षम मानते हैं, विदेश में दिए गये उनके या किसी अन्य के प्रवचन से देश को कोई दिशा नहीं मिल सकती देश में कुछ करने की जरूरत है ।
सबसे पहले सरकार की विदेश में आलोचना करने के स्थान देश में कुछ काम करें और यह काम इतना ठोस होना चाहिए कि जन सामान्य को समझ आने लगे कि देश यहाँ से आगे जायेगा।
अभी तो सिर्फ दोनों और से आलोचना होती कोई पिछली बातों को दोहरता है तो किसी के बोल भारत में नहीं विदेश में फूटते हैं। यह देश के मान के लिए यह घातक है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन पतित्रका के संपादक हैं।
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