पुण्य प्रसून बाजपेयी।
आसान है कहना कि 2014 में उगा सितारा 2019 में डूब जायेगा ये भी कहना आसान है पहली बार किसान-मजदूर-बेरोजगारी के मुद्दे सतह पर आये तो शहरी चकाचौंध तले विकास का रंग फीका पड़ गया।
ये कहना भी आसान है कि बीजेपी आंकड़ों के लिहाज से चाहे विस्तार पाती रही लेकिन अपने ही दायरे में इतनी सिमटी की मोदी-शाह-जेटली से आगे देख नहीं पायी।
ये भी कहना आसान है कि साल भर पहले काग्रेस की कमान संभालने वाले राहुल गांधी ने पप्पू से राहुल के सफर को जिस परिपक्वता के साथ पूरा किया उसमें काग्रेस के दिन बहुरने दिखायी देने लग गये। सबसे मुश्किल है अब ये समझना कि जिस लोकतंत्र की धज्जियां दिल्ली में उड़ायी गईं उसके छांव तले राजस्थान,छत्तीसगढ़ और मध्यप्रेदश कैसे आ गये?
अब क्या 2019 के फेर में लोकतंत्र और ज्यादा लहूलुहान होगा। क्योंकि जहां—जहां दांव पर दिल्ली थी वहा वहा सबसे बुरी हार बीजेपी की हुई। छत्तीसगढ़ में अडानी के प्रोजेक्ट है तो रुपया पानी की तरह बहाया गया। पर जनादेश की आंधी ऐसी चली कि तीन बार की रमन सरकार ही बह गई। मध्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल सरीखे शहरी इलाको में भी बीजेपी को जनता के मात दे दी।
जहां की सीट और कोई नहीं अमित शाह ही तय कर रहे थे और राजस्थान में जहां—जहां वसुंधरा को घुल चटाने के लिये मोदी-शाह की जोड़ी गई वहां—वहां वसुंधरा ने किला बचाया और जिन 42 सीटो को दिल्ली में बैठ कर अमित शाह ने तय किया उसमें से 34 सीटों पर बीजेपी की हार हो गई।
तो क्या वाकई 2014 की जीत के नशे में 2019 की जीत तय करने के लिये बीजेपी के तीन मुख्यमंत्रियो का बलिदान हुआ। या फिर काग्रेस ने वाकई पसीना बहाया और जमीनी स्तर पर जुडे कार्यकत्ताओ को महत्ता देकर अपने आलाकमान के पिरामिड को इस बार पलट दिया।
यानि ना तो पैराशूट उम्मीदवार और ना ही बंद कमरो के निर्णयो को महत्व। तो क्या बूथ दर बूथ और पन्ने दर पन्ने की सोच तले पन्ना प्रमुख की रणनीति जो शाह बनाते रहे वह इस बार टूट गया।
हो सकता है ये सारे आंकलन अब शुरु हो लेकिन महज चार महीने बाद ही देश को जिस आमचुनाव के समर में कूदना है उसकी बिसात कैसी होगी और इन तीन राज्यो में काग्रेस की जीत या बीजेपी के हार कौन सा नया समीकरण तैयार कर देगी अब नजरें तो इसी पर हर किसी की होगी।
हां, तेलंगाना में काग्रेस की हार से ज्यादा चन्द्रबाबू के बेअसर होने ने उस लकीर को चाहे अनचाहे मजबूत कर दिया कि कि अब गठंबधन की शर्ते क्षत्रप नहीं काग्रेस तय करेगी।
यानी जनादेश ने पांच सवालो को जन्म दे दिया है। पहला, अब मोदी को चेहरा बनाकर प्रेजीडेन्शिल फार्मेट की सोच की खुमारी बीजेपी से उतर जायेगी। दूसरा , मोदी ठीक है पर विकल्प कोई नहीं की खाली जगह पर ठसक के साथ राहुल गांधी नजर आयेंगे। तीसरा , दलित वोट बैक की एकमात्र नेत्री मायावती नहीं है और 2019 में मायावती के सौदेबाजी का दायरा बेहद सिमट गया। चौथा, महागठबंधन के नेता के तौर पर राहुल गांधी को खारिज करने की स्थिति में कोई नहीं होगा। पांचवा, बीजेपी के सहयोगी छिटकेगें और शिवसेना की सौदेबादी का दायरा ना सिर्फ बीजेपी को मुश्किल में डालेगा बल्कि शिवसेना मोदी पर सीधा हमला बोलेगी।
तो क्या वाकई काग्रेस के लिये अच्छे दिनो की आहट और बीजेपी के बुरे दिन की शुरूआत हो गई। अगर इस सोच को भी सही मान लें तो भी कुछ सवालो का जवाब जो जनता जनादेश के जरीये दे चुकी है उसे जुंबा कौन सी सत्ता दे पायेगी ये अपने आप में सवाल है।
मसलन, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों सत्ता धाटे के साथ काग्रेस को मिल रही है। यानी सत्ता पर कर्ज है। तीन राज्यो में किसान-मजदूर-युवा बेरोजगार बेहाल है। तीनों राज्यों में उघौगिक विकास ठप पड़ा है। तीनों राज्यों में खनिज संसाधनों की लूट चरम पर है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो संघ के स्वयसेवकों की टोलियां का कब्जा सरकारी संस्थानो से लेकर सिस्टम के हर पुर्जे पर है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि मोजूदा दौर में जो खटास राजनीतिक तौर पर उभरी वह सिर्फ बयानबाजी या राजनीतिक हमले भर की नहीं रही। बल्कि सीबीआई और इनकमटेक्स के अधिकारियो ने काग्रेसी पर मामला भी दर्ज किया और छापे भी मारे।
कांग्रेस को फाइनेन्स करने वाले छत्तीसगढ़ के 27 और मद्यप्रदेश के 36 लोगो पर दिल्ली से सीबीआई और इनकमटेक्स के छापे पड़े। यानी राजनीतिक तौर तरीके पारंपरिक चेहरे वाले रहे नहीं हैं।
तो ऐसे में सत्ता परिवर्तन राज्य में जिस तल्खी के साथ उभरेगें उसमें इस बात का इंताजार करना होगा कि अब काग्रेस के लिये संघ का मतलब सामाजिक सांस्कृतिक संगठन भर नहीं होगा । लेकिन बात यही नहीं रुकती क्योकि मोदी भी समझ रहे हैं और राहुल गांधी भी जान रहे है कि अगले तीन महिने की सत्ता 2019 की बिसात को तय करेगी। यानी सत्ता चलाने के तौर तरीके बेहद मायने रखेंगे।
खासकर आर्थिक हालात और सिस्टम का काम करना। मोदी के सामने अंतरिम बजट सबसे बडी चुनौती है। तो कांग्रेस के सामने नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र को पटरी पर लाने और ग्रामिणो के हालत में सुधार तत्काल लाने की चुनौती है।
संयोग से इनकी तादाद सबसे ज्यादा उन्ही तीन राज्यो में है जहां काग्रेस को जीत मिली है। फिर भ्रष्ट्रचार के मुद्दों को उठाकर 2014 में जिस तरह बार बार मोदी ने काग्रेस को घेरा अब इन्ही तीन राज्यो में भृष्टाचार के मुद्दों के आसरे कांग्रेस बिना देर किये बीजेपी को घेरेगी।
मध्यप्रदेश का व्यापम घोटाला हो या वसुंधरा का ललित मोदी के साथ मिलकर खेल करना या फिर रमन सिंह का पनामा पेपर। इस रास्ते को सटीक तरह से चलाने के लिये तीनों राज्यों में जो तीन चेहरे कांग्रेस सबसे फिट है उसमें मध्यप्रदेश में कमलनाथ, तो राजस्थान में सचिन पायलट और छत्तीसगढ़ में भूपेश बधेल ही फिट बैठते हैं।
ये तिगड़ी काग्रेसी ओल्ड गार्ड और युवा को भी बैलेंस करती है और बघेल के जरीये रमन सिंह या छत्तीसगढ़ में अडानी के प्रोजक्ट पर भी लगाम लगाने की ताकत रखती है। पर इस कड़ी में आखरी सवाल यही है कि अब शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा का क्या होगा।
या फिर मोदी - शाह की जोडी अब कौन सी बिसात बिछायेगी या फिर मोदी सत्ता कौन सा तुरुप का पत्ता देश के सामने फेकेगीं जिससे उनमें है।
ये मई 2019 तक बरकरार रहे। या फिर भाजपा के भीतर से वाकई कोई अवाज उठेगी या संघ परिवार जागेगा।
लेकिन ध्यान दें तो कोई विकल्प अब बीजेपी के भीतर नहीं है। मोदी के बाद दूसरी कतार के नेता ऐसे हैं जो अपना चुनाव नहीं जीत सकते हैं या फिर उनकी कोई पहचान किसी राज्य तो दूर किसी लोकसभा सीट तक की नहीं है।
मसलन, अरुण जेटली, धर्मेन्द्र प्रधान, पियूष गोयल या निर्मला सीमारमण और इस कडी में हारे हुये मुख्यमंत्रियो को अमित शाह कौन सी जगह देगें ये भी सवाल है।
यानि जनादेश ने साफ तौर पर बतलाया है कि जादू या जुमले से देश चलता नहीं और मंदिर नहीं सवाल पेट का होगा। सिस्टम गढ़ा नहीं जाती बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के जरीये चलाना आना चाहिये। शायद इसीलिये पांच राज्यों के जनादेश ने मोदी को लोकतंत्र के चौराहे पर ला खड़ा किया है।
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