डॉ. रजनीश जैन।
जेएनयू में एक आत्महत्या हुई है। कल जब हम सब होली मना रहे थे तब मुथूकृष्णन नामक इस छात्र की पंखे से लटकी लाश को पुलिस उतार रही थी। दलित छात्र है, सुसाइड नोट अब तक नहीं मिला है। अगर मिल भी जाएगा तो मुझे यकीन है कि उसमें किसी एक व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जाएगा। छात्र तमिलनाडु के सेलम का रहने वाला महत्वाकांक्षी गरीब स्टूडेंट था जिसने अभावों में पलकर लगातार कई साल के एंट्रेस टेस्ट देकर अपना अप्रतिम लक्ष्य पा लिया था यानि अब वह जेएनयू में आधुनिक इतिहास विभाग से शोध कर रहा था। जेएनयू आने के पहले दिन उसने परिसर में लगी नेहरू की आदमकद प्रतिमा के सामने कुछ इस तरह फोटो निकलवाई जिसमें वह नेहरू के शरीर से बाहर निकलता प्रतीत होता है।...
वेमुला की मौत ने जिस दलित विमर्श को जिंदा किया है, उसकी एक चिंगारी मुथू पर भी जा गिरी और तब से इस प्रतिभावान संघर्षशील छात्र के जीवन को उस कुंठा ने घेर लिया जिसे इस देश के हर दलित ने कभी न कभी महसूस किया है। फर्क यह है कि देश के ज्यादातर दलित इस कुंठा को सहन करने के अपने देशज तरीकों से इसे बर्दाश्त करते हैं, लेकिन जेएनयू का छात्र इस जाल को तोड़ने के कारगर तरीके ढूंढ़ने में लग जाता है। दलित उत्पीड़न का इतिहास, समकालीन परिस्थितियाँ और इस बाबत भविष्य की संभावनाओं या आशंकाओं का मिलाजुला विश्लेषण जिस निष्कर्ष की ओर इन छात्रों को ले जाता है उस निष्कर्ष का नाम ही आत्महत्या है। असमानता के इस जाल को काटने की कोई भी युक्ति उन्हें इस व्यवस्था में संभव दिखाई नहीं देती। जिन शिक्षकों पर यह जिम्मा होना चाहिए उनके पास भी युक्ति नहीं है, वे बस भीतर की चिंगारी को हवा देकर दावानल बनाते हैं जिसमें अंततः छात्र का भविष्य, उसके परिवार की आशाऐं, सारे मानवीय रिश्ते और तदनंतर इस देश के भविष्य का कोई अंश... सब भस्म हो जाता है।
पर इस देश ने दलित चिंताओं के लिए अब कितना स्पेस छोड़ा है? ...इसे मुथू की आत्महत्या की पृष्ठभूमि में तलाशिए। यह पृष्ठभूमि आपको घटनाओं के एक सिलसिले की तरफ ले जाएगी। तस्वीरों में मुथू की वाल पर टके कुछ लम्हों को, जो कि लम्हे नहीं एक कालखंड हैं...आप देख रहे हैं। कुछ महीने पहले पोस्ट की गई तस्वीरें जिनमें रोहित वेमुला की आंदोलनरत माँ से खुद की माँ जितना जुड़ाव स्पष्ट होता है।...मौत से कुछ घंटे पहले 9 मार्च को एक छात्रा जिसे वह अपनी 'कम्यूनिटी सिस्टर' बता रहा है, के साथ फोटो। इसे आप अपनी समझ से दलित बहिन या समुदाय की बहिन भी कह सकते हैं। 10 मार्च को प्रातः 9;52 मिनट पर डाली गई लंबी पोस्ट में मुथूकृष्णन जेएनयू के प्रोफेसर सुखदेव थोराट के लैक्चर में प्रोजेक्टर पर दिखाई एक फिल्म का जिक्र करते हुए एक दलित जीवा के बेटे के साथ शहर की पब्लिक बस में हुए भेदभाव की कहानी कहता है।
जीवा का बेटा पुल के नीचे से काली पालीथिन में सूखी मछलियां खरीदकर बस से वापस लौटता है। चार सड़कों से गुजरने के बाद भी उसकी सीट पर कोई दूसरा यात्री नहीं बैठता। लोग बस में जगह न होने पर खड़े होकर यात्रा कर रहे हैं पर आग्रह के बाद भी उसकी सीट कोई साझा नहीं करता। यहाँ तक कि बस से उतरते हुए वह निगाह डालता है तो पाता है कि खाली हो जाने पर भी उस सीट पर कोई बैठने तैयार नहीं। अपनी पोस्ट में मुथू लैक्चर के सारांश की तरह अपना आखिरी पैरा लिखता है। जहाँ समानता को नकारा जाता है वहाँ सभी चीजों को नकार दिया जाता है। हर जगह भेदभाव...पीएच डी/ एम फिल के इंटरव्यू और वायवावोसी में भेदभाव,...। यहां हर काम में समानता का निषेध है। प्रो थोराट की सिफारिशों का निषेध। छात्र यदि एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लाक पर प्रदर्शन करना चाहें तो उसका निषेध। हाशिए पर पड़े तबके की शिक्षा का निषेध।समानता को नकारे जाने का मतलब है हर चीज को नकार दिया जाना।"
मुथूकृष्णन के दिमाग में चल रही इस उथल—पुथल के एक रात पहले चुनावों के एग्जिट पोल आ चुके हैं जिसमें सभी चैनल भाजपा की बढ़त और मायावती की बसपा को दुर्गति की ओर बता रहे हैं। असमानता पर पोस्ट डालने के अगले दिन चुनाव के नतीजे घोषित जिसमें केसरिया पताका लहराने और बसपा की ऐतिहासिक पराजय के साथ केसरिया होली शुरू हो चुकी है। चैनल और सोशल मीडिया मोदी को इतिहास पुरूष निरूपित कर रहे हैं। ऐसे में मायावती का बयान आता है...'ईवीएम ने दूसरी पार्टी के वोट को स्वीकार ही नहीं किया। ये चुनाव रद्द कर बैलट से चुनाव करा लें तो असली नतीजे कुछ और होंगे।' उधर सोशल मीडिया और चैनलों पर मायावती के बयान का उपहास उड़ाते नेता और ट्रोलर गैंगें। तरह तरह की तस्वीरें सोशल मीडिया पर बह रही हैं। मायावती और सोनिया के चेहरे बर्तनधोने वाली बाइयों की तस्वीरों पर मार्फिंग कर दिए गए हैं...वगैरह।
इधर जेएनयू के दलित छात्र का 12 मार्च बीत रहा है। केसरिया होली, ढोल ढमाके और...खबरें ...पर्रिकर होंगे गोवा के सीएम, मणिपुर में भाजपा सरकार बनाने का दावा पेश करेगी। यानि सबसे ज्यादा सीट वाले दल को समर्थन जुटाने का हक नहीं,...राजनैतिक सहमति से नहीं सरकार में होने की ताकत और प्रलोभन से सरकारें बनेंगी।...बसपा एल्यूमिनेट हो चुकी है, कांग्रेस मुक्त भारत की ओर अंतिम चरण उठाया जाना बाकी है।
यह 12 मार्च की आधी रात का कोई वक्त होगा या हो सकता है 13 मार्च की सुबह का हो। मुथू सिर्फ एक रंग केसरिया की होली को फेस नहीं करना चाहता। वह पंखे से लटक जाता है। वह और नहीं लड़ सकता,उसकी तरफ से लड़ाई खत्म। जेएनयू के प्रोफेसर थोराट ने आगे का रास्ता नहीं बताया था...सिर्फ ग्लानि, क्लेष और कुंठा जगाई थी। इस नेगेटिव ऊर्जा से उसको थीसिस लिखना थी, पीएचडी करना थी, हास्टल और कैंपस में सर्वाइव करना था, नौकरी ढूंढ़ना थी, गांव का परिवार संभालना था और भी बहुत कुछ करना था...।
मुथू की लाश मर्चुरी ले जाई गई है। पैनल पोस्टमार्टम होगा। और इधर चुनाव का एकल पोस्टमार्टम करते मोदी जी के भाषण में 'न्यू इंडिया' की नींव रखी जा रही है। " लोकतंत्र में यह अकल्पनीय विजय राजनैतिक पंडितों को सोचने को मजबूर कर रही है। पेड़ ज्यादा फल लगने से और ज्यादा झुक जाता है। कोई इमोशनल इशू नहीं...अब गरीब विकास और राष्ट्र निर्माण चाहता है...।"
Comments