पुण्य प्रसून बाजपेयी।
युवा हिन्दुस्तान की जो आवाज दिल्ली में देशद्रोह बनाम देशभक्ति की हवा में घुमड़ रही है। जिस अंदाज में छात्र-छात्रायें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर कश्मीर और नक्सल मुद्दों के आसरे छात्र संघर्ष के नाम पर छात्रों से ही टकरा रहे हैं। ये तौर तरीके छात्र आंदोलन का ऐसा चेहरा है जो सत्ता बदलने से ज्यादा सत्ता बरकरार रखने की गूंज है क्योंकि इससे पहले इस तरह की आवाज कभी सुनी देखी नहीं गई। याद कीजिये लोकतंत्र पर करप्शन की छाया पड़ी थी तो जेपी ने 1974 में छात्र आंदोलन के जरिये गुजरात से लेकर बिहार तक जो लकीर खींची, उससे डरी सत्ता ने देश पर इमरजेंसी थोप दी। लेकिन छात्र ही थे, जिन्होंने सत्ता पलट दी। 1985 में असम में करप्शन और गैरकानूनी तरीके से बांग्लादेशी घुसपैठ के मामले ने तूल पकड़ा तो कालेज के छात्रों के आंदोलन ने असम की सत्ता पलट दी। और कालेज परीसर से सीधे महंत और फूंकन सरीखे छात्र सीधे विधानसभा पहुंच गये।
1989 में वीपी सिंह ने आरक्षण के जरीये छात्रो को अगडी और पिछडी जाति में बांटा तो छात्र आंदोलन से निकले छात्रो ने सत्ता पर भी कब्जा किया। और देश के चुनावी समीकरण जातीय राजनीति तले घसीटते दिखे। 2011 में करप्शन पर नकेल कसने के लिये लोकतपाल का सवाल अन्ना ने उठाया तो बड़ी तादाद में राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र यूनियन के छात्रों ने एक नयी लकीर तिरंगे तले ही खींच दी। और संसद को भी नतमस्तक होकर लोकपाल पर विधेयेक पास करना पड़ा। तो 2017 में दिल्ली की सड़कों पर छात्रों का ये नजारा कोई नया नहीं है।
पहली बार छात्र जिन सवालों से जुझ रहे हैं और जिन सवालों पर छात्रों में ही टकराव है उसने तीन सवाल तो पैदा कर ही दिये हैं। पहला क्या छात्र राजनीति का दायरा अब देश के लोकतांत्रिक मूल्यों से टकराने को तैयार हैं। दूसरा, क्या कानून व्यवस्था ने काम करना बंद कर दिया है या उसका नजरिया बदल गया है। तीसरा, राजनीतिक सत्ता की विचारधारा के दायरे में ही सारे संसाधनों को लाने का प्रयास हो रहा है। यानी छात्र आंदोलन को लेकर मौजूदा दौर में ही राजनीति कैंपस के भीतर घुसी है, जिस दौर में भारत सबसे युवा है। और युवा भारत का मतलब चुनाव के लिये छात्रों को राजनीतिक हथियार बनाने की मशक्कत भी है और छात्रों के आसरे देश के मुद्दो से ध्यान बंटाना भी है। क्योंकि तिरगें तले छात्रों का ये प्रदर्शन सिर्फ विरोध भर नहीं है बल्कि राष्ट्रप्रेम की वह लकीर है जो चेता रही है कि देशप्रेम दिल ना रखे बल्कि खुले तौर पर नारों की शक्ल में बताये तभी आप देशद्रोही नही होंगे।
तो तस्वीरें साफ बताती है कि बीते तीन बरस से जो सवाल छात्रों को संघर्ष के लिये सडक पर ले आये। वह ना तो शिक्षा को लेकर थे। और ना ही छात्रों के भविष्य के साथ होते खिलावाड को लेकर। सारे सवाल छात्रो को बांटते हुये उठे जेएनयू में उठे। पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में उठे। हैदराबाद में वेमुला की खुदकुशी के बाद उठे।हर सवाल को चाहे अनचाहे ,अभिव्यक्ति के सवाल से लेकर हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम सेक्यूलरिज्म तले लाया गया। यानी संविधान के तहत जिन सवालो को उठाकर छात्र आंदोलन अभी तक सत्ता को चेताते थे और छात्रो की भूमिका राजनीतिक सत्ता से बडी हो जाती थी। लेकिन पहली बार छात्र आंदोलन ही राजनीतिक सत्ता के दायरे में सिमटते दिखे। तो नया सवाल ये भी है कि क्या हर मुद्दे पर सियासी खामोशी या राजनीतिक दलों की आपसी सहमति पहली बार छात्र आंदोलन को ही डिरे्ल कर चुकी है। क्योंकि कश्मीर का सवाल देशद्रोह से जुडा है लेकिन पीडीपी-बीजेपी की सत्ता वहा खामोश है। बस्तर का सवाल नक्सली हिंसा से जुड़ा है तो छत्तीसगढ़ और केन्द्र में एक ही पार्टी की सरकार है तो वह खामोश क्यों है।
यानी जो मुद्दे कैपस में देशद्रोह है वह अदालत और पुलिस प्रशासन की नजर में देशद्रोह क्यों नहीं है। और देशद्रोह के सवाल पर क्या कानून अपना काम नहीं कर पा रही है या फिर दुनियाभर में राजनीतिक धाराये जो पूंजीवाद या कहे मार्केट इकनामी के फेल होने से उभरी है उसमे राष्ट्रवाद सबसे आसान शब्द है । तो क्या छात्र भटक रहे है या फिर शिक्षा को नौकरी से जोडने के चक्कर में इतना फ्रोफशनल्जिम कैपस में समा चुका है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कालेज के प्रिंसिपल तक को लग रहा है कि छात्रों को राजनीतिक शिक्षा दी नहीं जा सकी। क्योंकि ये गजब संयोग है कि छात्रों के संघर्ष के बीच सोमवाल यानी 27 जनवरी को छात्रों के बीच खुद पर्चा बांटने रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजेन्द्र प्रसाद पहुंचे। सेंट स्टीफन्स कालेज में पढ़ाई करने के बाद 1985 में जब रामजस कालेज को बतौर प्रिंसिपल के पद को राजेन्द्र प्रसाद ने संभाला तब इनकी उम्र महज 33 बरस की थी।
बीते 32 बरस के दौर में रामजस को डीयू का एक बेहतरीन कालेज बना दिया। लेकिन अपने काम के आखरी दिन [ 28 फरवरी 2017 को रिटायर हो गये। रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजनेद्र प्रसाद ने जरुर महसूस किया कि छात्र दुनिया के उस मिजाज को समझ नहीं पा रहे हैं जो देशप्रेम की हवा तले सत्ता पलट रही है और छात्र उसके लिये औजार बन रहे है। इसलिये ्पने पर्चे में उन्होने साफ साफ लिखा कि देशभक्ति की हवा4 तले शिक्षा को खत्म ना होने दें। सियासी औजार बनकर उस राजनीतिक धारा को मान्यता ना दें जो छात्रो की पढाई के ही खिलाफ है। तो जो जिक्र रामजस कालेज के प्रिसीपल कर गये उसको छात्र ही समझ नही पा रहे है। क्योंकि अमेरिका में भी तो ट्रंप के आने के बाद से राष्ट्रप्रेम की हवा तले ही भारत के एक इंजिनियर की हत्या अमेरिकी ने कर दीं और आज जब हत्या का विरोध के लिये भारतीय समेच कई देशो के लोग जुटे तो सभी ने माना कि अमेरिका के मौजूदा हालात में पहचान छुपा कर ही रहा जा सकता है। क्योकि बकायदा वहां हिन्दुस्तानियो के लिये हिन्जुस्तीनी संस्धाओ ने एडवाइजरी जारी की सार्वजनिक जगहो पर मातृभाषा में बात ना करें। अकेले ना घूमे, समूह में रहें।
तो क्या दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश में भी नया खतरा संविधान को खारिज कर नस्लीय हिंसा का हो चला है या फिर जिन आर्थिक हालातो से अमेरिका गुजार रहा है उसमें राष्ट्रवाद की थ्योरी ही मौजूदा ट्रंप सत्ता का सबसे बेहतरीन हथियार है। तो क्या जिन सवालो को अमेरिकी राष्ट्रवाद तले ट्रंप के दौर में देखा जा रहा है वही सवाल भारत में भी राष्ट्रवाद के दायरे में मौजूदा वक्त में देखा जा रहा है । क्योकि छिटपुट ही सही लेकिन अखलाख की हत्या हो। या कैराना में पलायन का सवाल । या पिर गुजरात में दलितों के खिलाफ उत्पीडन का मामला। तीनों हालात अल्पसंख्यक और समाज के कमजोर तबको के खिलाफ ही उभरे। और अमेरिका में जिस तरह अब आतंकवाद के नाम पर सात देशो को वीजा देने से रोका गया। नस्लीय हिसां का खुला नजारा अमेरिका में अल्पसंख्यक भारतीयो को डरा रहा है। 4 करोड से ज्यादा अप्रवासियों के सामने पहचान छुपाने का संकट मंडरा रहा है। यानी देशभक्ती की लकीर कानून व्यवस्था को ही कमजोर कर देती है। या कहे कानून व्यवस्था हाथ में लेने की देशभक्ति को सत्ता की मान्यता मिल जाती है। ये सवाल इसलिये क्योकि अमेरिका में भी ट्रंप की राजनीति अलिखित राष्ट्रप्रेम को मान्यता दे रही है और दिल्ली में भी देशभक्ति का नारा पुलिस को मूक दर्शक बना रहा है।
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