रवीश कुमार।
प्रधानमंत्री का मोदी का करिश्मा बीजेपी से भी बड़ा है। मोदी का सब कुछ व्यक्तिगत है। बीजेपी का कुछ नहीं है। यूपी जीतने के बाद मोदी आर एस एस से भी बड़े हो जाएंगे। लुटियन दिल्ली को करेजा में रखकर चलने वाले पत्रकार कहने लगे हैं। उनके लिए हर हार-जीत में मोदी मिट जाते हैं या खिल जाते हैं। ब्रांड मोदी को ब्रांड बीजेपी से बड़ा बताने का उतावलापन मुझे समझ आता है। पत्रकारों पर असुरक्षा इतनी हावी है कि वे अपनी आलोचना और सराहना में मोदी और बीजेपी में फर्क करते रहते हैं। जैसे मोदी सबके मानस-संपादक हों। मुझे तो कभी मोदी, बीजेपी और संघ अलग नहीं लगे। अलग कैसे दिख सकते हैं। क्या आपने चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री के सीने से कभी कमल का निशान हटा हुआ देखा है। क्या आपने प्रधानमंत्री का ऐसा कोई मंच देख है जो बीजेपी का न हो। जहां बीजेपी का झंडा न हो। कार्यकर्ता न हों और नेता न हों। क्या आप वाकई बग़ैर बीजेपी के मोदी की कल्पना करते हैं या आप अच्छे से जान गए हैं कि मोदी बीजेपी के बग़ैर भी हैं।
लुटियन दिल्ली की पत्रकारिता सत्ता प्रमुख से ख़ौफ़ खाती है। इस ख़ौफ़ के कई रूप हो सकते हैं। मनमोहन सिंह के प्रति अति-आदर भाव भी एक रूप है और मोदी के प्रति अतिरिक्त समर्पण भाव भी एक रूप है। दिल्ली के इस केंद्र में अगर एक बार आप घुस गए तो बग़ैर मंत्री या महासचिव के संपर्क-संबंध के आप ख़ुद को ही कुछ महसूस नहीं करेंगे। लिखते-बोलते हुए संतुलन और समझौता एक आदत बन जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लुटियन दिल्ली में सत्ता स्थायी है। उसके ढांचे स्थायी हैं। इसलिए संपादकत्व इसी धुरी के आस-पास घूमता रहता है। किसी का हुए बग़ैर आप यहां नहीं टिक सकते हैं। टिकने का मतलब नौकरी से ही नहीं है, बल्कि सत्ता संबंधों में किसी कोने में टिके रहना भी नौकरी बचाने से कम नहीं क्योंकि उनका पूरा वजूद ही उसी से परिभाषित होता है। जब तक कोई पूर्व मंत्री या मौजूदा मंत्री हाय नहीं बोलता है,देखते ही अंग्रेज़ी नहीं बोल पड़ता है, तब तक वो इस भ्रम में रहता है कि भारत नहीं उगांडा भेज दिया गया है जहां उसे कोई नहीं पहचानता है।
मोदी और बीजेपी में फर्क करने वाले किस आधार पर ये फर्क करते हैं। क्या मोदी अपनी तमाम जीत को समेट कर किसी और दल में चले जायेंगे? क्या वे अपने जनसमर्थन को थैले में लेकर चलते हैं? क्या मोदी की कल्पना आप संघ और बीजेपी के बग़ैर कर सकते हैं? इसलिए ये विश्लेषण फालतू है कि मोदी बीजेपी से बड़े हैं। तो क्या ये मानते हैं कि जनता को उस बीजेपी में कोई भरोसा नहीं जिसके नेता मोदी हैं? यूपी जीत के सेहरा के चेहरा तो वही होंगे लेकिन उस जश्न में क्या संघ और बीजेपी के कार्यकर्ताओं की कोई भूमिका नहीं होगी। यूपी में मोदी के आने से पहले जीत की भूमिका बनाने गए संघ और बीजेपी के लोगों ने क्या यह सब बीजेपी के प्रति समर्पण और निष्ठा से नहीं किया होगा। बग़ैर बीजेपी और संघ के मोदी कुछ भी नहीं हैं। चाहे वे जितने भी बड़े ब्रांड हों।वे आज ब्रांड इसलिए हैं क्योंकि उनके साथ संघ और बीजेपी का ब्रांड है। बिहार,बंगाल,तमिलनाडू,तेलंगाना,दिल्ली और पंजाब में वो ब्रांड क्यों नहीं चला। क्या इन राज्यों में मोदी गए ही नहीं थे।
मोदी ने कभी ख़ुद को पार्टी से ऊपर नहीं बताया। वे क्यों बतायेंगे और किसे बतायेंगे। आप ग़ौर से देखिये मोदी को। वे अपनी पार्टी को जीते हैं। वे हर समय बीजेपी की मुद्रा में रहते हैं। जो भी करते हैं बीजेपी के लिए करते हैं। उनका कोई विरोधी नहीं है। नहीं है तो नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी भाजपा के सम्मानित नेता हैं लेकिन अब वे जननेता नहीं हैं। उनके दो चार बयानों पर इतनी उम्मीद मत टिकाइये। वे पहले भी भीतरघुन्ना राजनीति करते थे,आज भी करते थे इसलिए उनकी आंखें हमेशा बंद रहती है। हमेशा मुट्ठियों को समेटते रहते हैं। आडवाणी साहसिक नेता नहीं रहे। जब भी पब्लिक में देखियेगा,मोदी आडवाणी का पर्याप्त सम्मान करते हैं।
जब मोदी के सामने बीजेपी में कोई नहीं है तो हम किस आधार पर मान कर चलते हैं कि बीजेपी के भीतर हर वक्त वे किसी न किसी जीत से किसी को साबित कर रहे हैं। लोग लिखते हैं कि हार गए तो बीजेपी के अंदर विरोध होगा। विरोध की हिम्मत कौन करेगा। इस तर्क से भी देखिये तो मोदी बीजेपी में सुप्रीम नहीं है। इस पार्टी में हारने के बाद जब पत्रकारों को मोदी अमित शाह के विरोध का डर दिख जाता है तो उन्हें मानकर चलना चाहिए कि मोदी बीजेपी से बड़े नहीं हैं। अलग नहीं हैं। जो इस पार्टी में मर-खप कर कार्यकर्ता से नेता बना है वो क्यों अपनी पार्टी से अलग बड़ा होना चाहेगा। वो जितना बड़ा होगा,अपनी पार्टी के लिए होगा। जब एक दिन बीजेपी और संघ के लोग काम करना बंद कर देंगे तो आपको क्या लगता है, मोदी इतने बड़े ब्रांड हैं कि जब वे रैली के लिए निकलेंगे तो उनका स्वागत आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता करेंगे। कौन पढ़ाता है इन पत्रकारों को ये सब। आपको लगता है कि राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह को सुनने हज़ारों की संख्या में जाते होंगे। जब मोदी हैं तो मोदी ही रहेंगे।
हम समझते हैं कि संघ,बीजेपी और मोदी के बीच अंतर्विरोध की रेखाएं उभरती रहती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई उन रेखाओं की दीवार बना दे और कह दे कि मोदी के सामने कोई कुछ नहीं है। सब उस दीवार की दूसरी तरफ हैं। हम इस तरह से क्यों सोचते हैं कि आर एस एस मोदी को हराना चाहता है। मोदी को कमज़ोर करना चाहता है। आर एस एस का ऐसा कौन सा काम है जो मोदी सरकार में नहीं होता होगा। रही बात मज़दूर संघ या किसान संघ जैसे संगठनों की तो इन्हें लेकर ज़्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। इनकी मज़दूरों के प्रति निष्ठा उस हद तक ही है कि सरकार को समस्या न हो। बल्कि समस्या उभार कर उसे दूसरी दिशा में ले जाने का काम करते हैं। एक भी मुद्दा इन संगठनों ने सरकार के सामने चुनौती के रूप में पेश नहीं किया है। इन सबको पता है कि मोदी सरकार उनकी अपनी सरकार है। इस सरकार से कुछ अंतर्विरोध हो सकते हैं,विरोध नहीं होगा। इसलिए हर चुनाव में आर एस एस मोदी को जीताने जाता है। क्या वे सिर्फ मोदी को जीताने जाते हैं?
अच्छा है कि एग्ज़िट पोल की विश्वसनीयता कबाड़ हो चुकी है। चूंकि टीवी में कबाड़ ही चलता है इसलिए यही सब हर चुनाव में चलेगा। एग्ज़िट पोल के नतीजे ग़लत भी हो सकते हैं और सही भी। औसत ट्रेंड बीजेपी की बढ़त का ही इशारा कर रहे हैं। संख्या ग़लत हो सकती है मगर ट्रेंड अक्सर सही निकल जाते हैं। राजनीति को राजनीतिक कारणों से देखा समझा जाना चाहिए।कोई भी नेता उस राजनीति और राजनीतिक कारणों से ऊपर नहीं होता है। न वो ऊपर होता है न उसका ब्रांड ऊपर होता है। पत्रकार असुरक्षा में लिखने लगे हैं। उन्हें मोदी और बीजेपी दोनों की जीत स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। यूपी में भाजपा की जीत होती है तो यह सिर्फ ब्रांड मोदी की जीत नहीं है। सबकी है। ब्रांड मोदी भी बीजेपी के ही ब्रांड हैं। आम आदमी पार्टी के नहीं।
चुनावी नतीजों के आस पास बड़ी संख्या में पत्रकार कंफ्यूज़ हो जाते हैं। कि जनता का जनादेश तो ऐसा आया है अब कैसी रिपोर्टिंग करेंगे। जनता ने जनादेश पार्टी को दिया है, पत्रकार को नहीं दिया है। हो सकता है कि बीजेपी जीत जाए, लेकिन जीतने से पहले मोदी को बीजेपी से ऊपर बताकर उनके साथ सेटिंग की गुज़ाइश मत खोजिए। मोदी भी मुस्कुराते ही होंगे। कहते होंगे कि क्या पत्रकार हैं ये लोग। सारे तो ऐसे ही बिके हुए हैं, कुछ ऐसे हैं जो झुकने का रास्ता खोजते रहते हैं। एक नेता से ज़्यादा पत्रकारों की औकात कोई नहीं जानता। पत्रकार अपनी औकात भूल जाते हैं। आप चाहे जितने भी पत्रकार गिन लीजिए, कि ये मोदी भक्त हैं, वो चमचे हैं, वो सही है, मगर मोदी के दिल से कभी पूछियेगा, वो भी कहते होंगे कि ये पत्रकार नहीं हैं।
चमचों की फौज किसे नहीं चाहिए। हर विजेता के पास ऐसी फौज होती है। कल भी थी,आज भी है,आगे भी रहेगी। अंदाज़ा ही लगा सकता हूं, मगर वो भी पूरे विश्वास के साथ लगा रहा हूं कि एक घनघोर राजनेता के नाते मोदी ऐसे पत्रकारों का इस्तमाल तो करते हैं मगर इनकी इज़्ज़त नहीं करते होंगे। एक नेता अकेले में यही बोलता होगा कि ये लोग दौ कौड़ी के हैं। ये और बात है कि पत्रकार सीना तान कर घूमेगा कि हम मोदी के हैं। इसलिए मोदी को श्रेय देना है,दीजिए,कोई बुराई नहीं है। जीते हैं तो सेहरा उन्हीं के सर बंधेगा मगर ये मत कहिये कि वे बीजेपी या संघ से बड़े ब्रांड हैं। बीजेपी से भी ज़्यादा पोपुलर मोदी हैं। मोदी की लोकप्रियता जितनी बीजेपी की है,उतनी ही संघ की है और मोदी की भी है। वे जो भी ब्रांड है उसकी कल्पना बीजेपी और संघ के बग़ैर नहीं की जा सकती है। एक कविता आपकी नज़र कर रहा हूँ-
मैं क्या कर रहा था
जब
सब जयकार कर रहे थे?
मैं भी जयकार कर रहा था-
डर रहा था
जिस तरह
सब डर रहे थे।
-श्रीकान्त वर्मा
कस्बा से साभार।
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