जिन दो शब्दों पर हमेशा बखेड़ा खड़ा होता है वे गैर संवैधानिक हैं

खरी-खरी            Feb 05, 2017


संजय रोकड़े।
आज हमारे देश में दो शब्दों को लेकर समाज में एक बड़ी भ्रांति फैली हुई है। पहला हिंदू और दूसरा दलित। ये दोनों शब्द समाज की संरचना में दो विपरित ध्रुव के वाहक के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है। दो अलग-अलग ध्रुवों की पहचान के चलते ही ये दोनों शब्द न केवल समाजगत बाधाओं में उलझे हुए है बल्कि समय-समय पर विवाद के रूप में भी सामने आए है। इसके इतर इन शब्दों की समाज के अलग-अलग वर्ग और दायरों में (दलित-गैर दलित ) अपना स्थान है। दलित शब्द की पहचान भारत के संदर्भ में ख्यात है तो हिंदू शब्द की पहचान हिंदुस्तानी संदर्भ में। ऐसा मेरा मानना नहीं है बल्कि यह समाज में प्रचलित मान्यताओं के आधार पर अपनी पहचान बनाए हुए है।

हालांकि यह एक सच भी हो सकता है क्योंकि आज हमारा देश दो वर्ग व दो विचारधाराओं में बंटा हुआ है। एक विचारधारा उस भारत की पक्षधर है जो गरीबी, गैर बराबरी, सामाजिक समानता और सामाजिक न्याय की पक्षधर है वो है- दलित। दूसरी विचारधारा है जो जातिगत आधार पर इंसान को इंसान नही बल्कि ऊंच- नीच ,जातिगत भेदभाव के दायरे मे बांध कर रखती है वो है-हिंदू।

बहरहाल इस वक्त हम उस विवाद में नही पड़ना चाहते हैं कि कौन सी विचारधारा क्या है। कौन सी मानवीय और कौन सी गैर मानवीय है। पर यह जरूर जान लें कि आज देश में जिन दो शब्दों को लेकर समय-समय पर बखेड़ा खड़ा होता रहा है असल में वह दोनों शब्द संवैधानिक है ही नहीं। हिंदू शब्द तो भारत का भी नही है। यह फारसी है। इन दोनों शब्दों को संविधान में कहीं भीस्थान नही मिला है। इसे दूसरे शब्दों में कहे तो ये दोनों शब्द असंवैधानिक है, फिर भी ये दो शब्द आज समाज में न केवल व्यापक स्तर पर प्रचलित है बल्कि इनके साथ लोगों की भावनाएं भी अलग-अलग तरीके से जुड़ी हुई है।

हम इस वक्त इन दोनों शब्दों के साथ जुड़ी विवादस्पद स्थिति के बारे में नही बल्कि इनकी उत्पत्ति के संबंध में कुछ तथ्यात्मक सूचना को जानने-समझने का प्रयास करते हैं। पहले हम हिंदू शब्द और उसके साथ जुड़ी धार्मिकता के बारे में जानते है। आज हमारे देश में जो हिंदू शब्द व्यापक स्तर पर प्रचलित है वह न केवल असंवैधानिक है बल्कि वह भारत का शब्द भी नही है। हिन्दू असल में फारसी का शब्द है। इसी कारण इसका जिक्र न तो वेद में है न पुराण में न उपनिषद में न आरण्यक में न रामायण में न ही महाभारत में। स्वयं दयानन्द सरस्वती इस बात को कबूल चुके है कि यह मुगलों द्वारा दी गई गाली है। बता दे कि सन 1875 में ब्राह्मण दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की थी न कि हिन्दू समाज की। आज इसके बारे में अनपढ़ ब्राह्मण भी जानता है कि हिंदू शब्द नही बल्कि मुगलों द्वारा दी गई गाली है। इसी के चलते ब्राह्मणों ने स्वयं को हिन्दू कभी नहीं कहा।

आज भी वे स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं लेकिन सभी शूद्रों को हिन्दू कहते हैं। जब शिवाजी हिन्दू थे और मुगलों के विरोध में लड़ रहे थे तब भी वे तथाकथित हिन्दू धर्म के रक्षक थे। बावजूद इसके पूना के ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र मान कर राजतिलक करने से इंकार कर दिया था। हालांकि इस काम को अंजाम देने के लिए घूस का लालच देकर ब्राह्मण गागा भट्ट को बनारस से बुलाया गया था। हिंदू का सच को उजागर करने के लिए गगाभट्ट ने अपने ग्रंथ गागाभट्टी में इस बात को लिख कर यह स्वीकार तो किया कि शिवाजी विदेशी राजपूतों का वंशज है लेकिन राजतिलक के दौरान मंत्र पुराणों के ही पढ़े गए वेदों के नहीं। तो शिवाजी को हिन्दू तब भी नहीं माना। ब्राह्मणों ने मुगलों से कहा हम हिन्दू नहीं हैं बल्कि तुम्हारी तरह ही विदेशी हैं। इसी के चलते सारे हिंदुओं पर जजिया लगाया गया लेकिन ब्राह्मणों को इससे मुक्त रखा गया। सन 1920 में ब्रिटेन में वयस्क मताधिकार की चर्चा शुरू हुई थी।

ब्रिटेन में भी दलील दी गई कि वयस्क मताधिकार सिर्फ जमींदारों व करदाताओं को दिया जाए ,लेकिन लोकतन्त्र की जीत हुई। वयस्क मताधिकार सभी को दिया गया। देर सबेर गुलाम भारत में भी यही होना था। तिलक ने इसका पुरजोर विरोध किया। कहा तेली,तंबोली,माली,कूणबटों को संसद में जाकर क्या हल चलाना है। ब्राह्मणों ने सोचा यदि भारत में वयस्क मताधिकार लागू हुआ तो अल्पसंख्यक ब्राह्मण मक्खी की तरह फेंक दिये जाएंगे। अल्पसंख्यक ब्राह्मण कभी भी बहुसंख्यक नहीं बन पाएगें। सत्ता बहुसंख्यकों के हाथों में चली जाएगी तब सभी ब्राह्मणों ने मिलकर 1922 में हिन्दू महासभा का गठन किया। जो ब्राह्मण स्वयं को हिन्दू मानने कहने को तैयार नहीं थे वयस्क मताधिकार से विवश होकर हिंदू नामक पहचान को मोहताज हुए। यही वह हिन्दू शब्द है जो न तो वेद में है न पुराण में न उपनिषद में न आरण्यक में न रामायण में न ही महाभारत में। यानी मजबूरीवश ब्राह्मण स्वयं को हिन्दू मानने लगे और तभी से समाज में हिंदू शब्द प्रचलन में आ गया।

अब हम दलित शब्द की उत्पति के बारे में जानते है। ‘दलित’ शब्द आया कहां से, क्या आपके पास इसका जवाब है?क्या आपको पता है कि किसने इस शब्द को सबसे पहले इस्तेमाल किया? किसने इस शब्द को समाज के पिछड़े तबके से जोड़ा। जब यह शब्द संविधान में नही है तो फिर सामाजिक जनजीवन में यह इतना प्रचलन में कैसे आ गया। यह एक सच है कि दलित शब्द का संविधान में कोई जिक्र नही है। सन 2008 में नेशनल एससी कमीशन ने सारे राज्यों को निर्देश भी दिया था कि राज्य अपने आधिकारिक दस्तावेजों में दलित शब्द का इस्तेमाल न करें।

बहरहाल इस शब्द के सबसे पहले जिक्र पर सामाजिक वैज्ञानिक अलग-अलग मतों में बटे हुए है पर इस बात को लेकर सब एकमत है कि दलित शब्द गैर संवैधानिक है। आखिर इस शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल कब हुआ और किसने किया तो सामने आता है कि इस शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में पाया जाता है। इसके बाद 1921 से 1926 के बीच ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल ‘स्वामी श्रद्धानंद’ ने भी किया था। दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी। कभी-कभी ड़ॉ बाबा साहेब भीमराव अंंबेडकर भी दलित शब्द को प्रयोग में लाते थे लेकिन वे अक्सर डिप्रेस्ड क्लास शब्द का ही इस्तेमाल करते थे, अंग्रेज भी इसी शब्द का इस्तेमाल करते थे।

हालांकि इस शब्द को सामाजिक स्वीकारोक्ति दलित पैंथर्स नामक संगठन ने दी है। दलित पैंथर्स ने ही पिछड़ों को नया नाम दलित दिया था। सन 1972 में महाराष्ट्र में ‘दलित पैंथर्स’ मुंबई नाम का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाया गया था, आगे चलकर इसी संगठन ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके शुरुआती प्रमुख नेताओं में शामिल रहे है। माना जाता है कि इसका गठन अफ्रीकी-अमेरिकी ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया था। यहीं से ‘दलित’ शब्द को महाराष्ट्र में सामाजिक स्वीकृति मिली लेकिन अभी तक दलित शब्द उत्तर भारत में प्रचलित नहीं हुआ था। नॉर्थ इंडिया में दलित शब्द को प्रचलित करने का काम दलितों के आधुनिक मसीहा के रूप में पहचाने जाने वाले माननीय कांशीराम ने किया।

डीएसवाय जिसका मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। इसका गठन स्वंय कांशीराम ने ही किया था। अब महाराष्ट्र के बाद नॉर्थ इंडिया में पिछड़ों और अति-पिछड़ों को दलित कहा जाने लगा था। कांशीराम का नारा भी था कि ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़ बाकी सब ड़ीएस-फोर। काबिलेगौर हो कि सन 1929 में लिखी एक कविता में कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल किया था, जो इस बात की पुष्टि करता है कि ये शब्द प्रचलन में तो था लेकिन बड़े पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किया जाता था। सन 1943 में ‘अणिमा’ नाम के काव्य संग्रह में उनकी ये कविता छपी थी- दलित जन पर करो करुणा। दीनता पर उतर आये प्रभु, तुम्हारी शक्ति वरुणा। हालाकि दलित चिंतकों और सामाजिक वैज्ञानिकों का एक तबका ऐसा भी है जो यह मानता है कि ‘दलित’ शब्द दरअसल लोकभाषा के शब्द दरिद्र से आया है। किसी जाति विशेष से ये शब्द नहीं जुड़ा है इसलिए इसे स्वीकृति भी बड़े पैमाने पर मिली। बहरहाल हम ये जान ले कि ये दोनों शब्द संवैधानिक नही है बावजूद इसके समाज में अपना अहम स्थान रखते है।

लेखक से संपर्क:9827277518


नोट- लेखक मीडिया रिलेशन पत्रिका का संपादन करने के साथ ही समसामयिक विषयों पर भी लिखते हैं।

 

 



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