असली सवाल डिगरी का नहीं, उन्हें छिपाने का है, धोखाधड़ी का है

खरी-खरी            Jan 25, 2017


डॉ.वेद प्रताप वैदिक।

नौकरशाही के बड़े से बड़े अफसर कठपुतलियों की तरह नाचने लगते हैं, इसका ताजा उदाहरण अभी सामने आया है। उन्हें कोई नेता इशारा करे या न करे, वे नाच दिखाना शुरु कर देते हैं, यह गणित लगाकर कि नेता गदगद हो जाएंगे और उन्हें कोई मलाईदार पद मिल जाएगा। मुझे पता नहीं कि नरेंद्र मोदी और स्मृति ईरानी ने सूचना अधिकारियों को कोई इशारा किया या नहीं, लेकिन यह सच है कि सूचना के अधिकार (आरटीआई) के अंतर्गत इन दोनों की डिग्रियों के सच को छुपाया जा रहा है। जिस सूचना अधिकारी ने दिल्ली विश्वविद्यालय और माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से कहा है कि मोदी और ईरानी की डिग्रियों की सूचना उन लोगों को दी जाए, जो उन्हें मांग रहे हैं, उस अधिकारी से केंद्रीय सूचना आयोग ने यह अधिकार छीन लिया है। उस अधिकारी का नाम है- मदभूषणम् श्रीधर आचार्युलु !

संयोग की बात है कि आचार्युलु बाकायदा नौकरशाह नहीं हैं। उन्होंने अपना जीवन शुरु किया- पत्रकारिता से! वे ‘उदयम’ नामक तेलुगु अखबार में काम करते थे। वे हैदराबाद के राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे हुए हैं। वे सूचना के अधिकार के विशेषज्ञ हैं। वर्तमान पद पर उनकी नियुक्ति पिछली सरकार के दिनों में हुई थी लेकिन उन्होंने स्वयं कहा है कि वे हमेशा भाजपा को वोट देते रहे हैं, वे वैष्णव हैं और गोरक्षा के पक्षपाती हैं। उन्होंने केजरीवाल-सरकार की नाक में दम कर दिया है और उन्होंने सोनिया गांधी को भी नोटिस थमा दिया था। आचार्युलु का कहना है कि मोदी और ईरानी ने जो शपथ-पत्र दिए हैं, उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है लेकिन यदि मोदी ने बीए और ईरानी ने मैट्रिक पास की है तो उनकी डिगरियां दिखाने में संकोच क्यों किया जाना चाहिए?

आचार्युलु का तर्क बिल्कुल ठीक है। इसके अलावा मेरा सवाल यह भी है कि मोदी यदि बीए फेल हैं और ईरानी मैट्रिक-फेल हो तो भी क्या फर्क पड़ता है? उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा? बादशाह अकबर और टीपू के पिता हैदर सुल्तान तो अंगूठा-टेक ही थे। हमारे ज्यादातर नेता, जिन पर कुछ न कुछ डिगरियां होती हैं, वे भी क्या सचमुच सुपठित और विचारशील होते हैं? और जिन पर बड़ी-बड़ी डिगरियां होती हैं, उनमें से कई कितने गये-बीते निकल जाते हैं? यहां असली सवाल डिगरी का नहीं, उन्हें छिपाने का है, धोखाधड़ी का है। सही सवाल पूछनेवाले अफसर को दबाने की बजाय बेहतर यह होगा कि दोनों लोग सही-सही बात बेखौफ होकर उगल दें। आचार्युलु को दबाने से सरकार और आयोग, दोनों की बदनामी हो रही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।



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