किसान की परवाह है किसे? सरकार नोटबंदी करके खुश,जनता फ्री की सब्जियां पाकर

खरी-खरी            Jan 04, 2017


मल्हार मीडिया डेस्क

एक कहावत है, मुफ्त का चंदन घिस बेटा नंदन। एक और कहावत है माले मुफ्त दिले बेरहम। दोनों कहावतें सोमवार को रायपुर के धरना स्थल बूढ़ापारा में सजीव हो उठी। बूढ़ापारा धरना स्थल पर किसानों द्वारा नोटबंदी से छाई मंदी के विरोध में मुफ्त में सब्जियां बांटी जा रही थी। लोगों ने किसानों के पसीने से सींचकर उगाये गये फसलों को लेने के लिये सुबह से ही लाइन लगा ली थी। किसी ने भी नोटबंदी से छाई मंदी का जिक्र करना जरूरी नहीं समझा। सभी मौका देखकर चौका लगाने की फिराक में थे। मुफ्त की सब्जी लो तथा बढ़ चलो।

दरअसल, मंदी तथा परिवहन व्यवस्था के ठप्प पड़ जाने की वजह से किसानों को अपने उत्पादों का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा था। इससे कुपित होकर किसानों ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक अनोखा विरोध प्रदर्शन किया। न नारे लगाये गये न ही रैली निकाली गई। किसानों ने मुफ्त में जनता को सब्जियां बांटी। जिसे लेने के लिये आधा किलोमीटर लंबी लाइन लग गई। अभ किसानों का दर्द कितने दिलों तक पहुंचा यह कहना मुश्किल है पर रसोई में उनके खून-पसीने की मेहनत से उगाई गई सब्जियां कई दिनों तक पकती रहेंगी यह तय है। किसानों के आंसुओं की लोगों को परवाह होती तो वे वहां सब्जी लेने के बजाये विरोध प्रदर्शन करने लगते। इसके उलट, सब्जी बांटने की व्यवस्था को बनाये रखने के लिये पुलिस को लगाना पड़ा था।

छत्तीसगढ़ के दुर्ग, भिलाई, रायपुर, राजनांदगांव, बेमेतरा तथा बालोद के किसानों ने 30 गाड़ियों में लगभग 1 लाख किलो सब्जी लाकर जनता को मुफ्त में वितरण किया गया। किसान अपने साथ शिमला मिर्च, भटा, टमाटर, पत्तागोभी, लौकी, सेमी तथा करेला लेकर आये थे। जनता भी ऐसी कि इसका कारण पूछे बिना केवल अपने पसंद की सब्जियां लेकर चलती बनी। बताया जा रहा है कि इन सब्जियों का मूल्य करीब 20 लाख रुपये का है।

मुफ्त में सब्जियां मिलने की खबर पाते ही लोग सुबह के 1 बजे से लाइन लगाकर खड़े हो गये। किसानों ने विरोध स्वरूप करीब 12 बजे से सब्जियां बांटना शिरू किया जो शाम तक चलता रहा। लोगों ने स्वमेय ही दो समानांतर लाईनें बना ली थी। एक वर्ग का दर्द दूसरे वर्ग के लिये वरदान बन गया। किसी का परिवार तबाह हो रहा है तो किसी की रसोई आबाद हो रही है। जनता भी इतनी निष्ठुर हो गई है कि केवल अपनी ही सोचती है। दूसरे के लिये सोचने का समय किसके पास है। जबकि, नोटबंदी से सभी किसी न किसी तरह से प्रभावित हुये हैं।

एक आकलन के अनुसार उद्योग धंधे आधे हो गये हैं। चिल्हर की तंगी के कारण लोग अपनी जरूरत का सामान नहीं खरीद पा रहें हैं। बैंकों में रुपये जमा होने के बावजूद भी लोग दवाई के लिये भटकते नज़र आये थे। नोटबंदी बिना किसी सूचना के लागू कर दी गई। जिससे नगदी की कमी हो गई। भारत जैसे देश में नगदी से रोटी मिलती है, नगदी के रूप में ही रोजी मिलती है, नगदी हो तभी भूख मिटती है। नगद ही नारायण है उसके बिना सब सूना है। जब लोग परेशान होने लगे तब कैशलेस को कारगार बनाने की कोशिश शुरू की गई। तब तक इतना नुकसान हो चुका था कि इसका देश की अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ना निश्चित है।

बात की शुरूआत लोगों के ‘मैं’ में बदल जाने को लेकर हुई थी। लोग अपने में ही इतने मग्न हैं कि उन्हें पड़ोस में रोने की आवाज़ भी सुनाई नहीं देती। हर कोई चाहता है कि देश आजाद रहे परन्तु भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद पड़ोस में पैदा हो ऐसा भाव है। अपने बच्चे को तो हर कोई डॉक्टर, इंजीनियर तथा एक सफल बिजसनेसमैन बनाने के सपने देखता है। भला कौन दूसरों के पचड़े में पड़े।

ऐसे में दूसरे विश्व युद्ध के समय पोस्टर निकोलस की वह बेबस कविता याद आती है जो कुछ-कुछ इस तरह की है- पहले वे आये बुद्धिजीवियों के लिये, मैं चुप रहा क्योंकि मैं बुद्धिजीवी नहीं था। फिर वे आये यहूदियों के लिये मैं फिर भी चुप रहा। फिर वे आये साम्यवादियों के लिये मैं चुप रहा क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था। अंत में वे आये मेरे लिये, तब कोई नहीं था जो मेरे लिये आवाज़ उठाता।

सीजी खबर से साभार।



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