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याद आने लगी हैं इंदिरा:मैं ही मैं हूं दूसरा कोई नहीं!

खरी-खरी            Dec 25, 2016


संजय द्विवेदी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखकर अनेक राजनीतिक टिप्पणीकारों को इंदिरा गांधी की याद आने लगी है। कारण यह है कि भाजपा जैसे दल में भी उन्होंने जो करिश्मा किया है, वह असाधारण है। कांग्रेस में रहते हुए इंदिरा गांधी या सोनिया गांधी हो जाना सरल है। किंतु भाजपा में यह होना कठिन है, कठिन रहा है, मोदी ने इसे संभव किया है। संगठन और सत्ता की जो बारीक लकीरें दल में कभी थीं, उसे भी उन्होंने पाट दिया है। अटल जी के समय में भी लालकृष्ण आडवानी नंबर दो थे और कई मामलों में प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर पर आज एक से दस तक शायद प्रधानमंत्री ही हैं। खुद को एक ताकतवर नेता साबित करने का कोई मौका नरेंद्र मोदी नहीं चूकते। अरसे से कारपोरेट और अपने धन्नासेठ मित्रों के प्रति उदार होने का तमगा भी उन्होंने नोटबंदी कर एक झटके में साफ कर दिया है। वे अचानक गरीब समर्थक होकर उभरे हैं। यह अलग बात है कि उनके भ्रष्ट बैंकिग तंत्र ने उनके इस महत्वाकांक्षी कदम की हवा निकाल दी। बाकी रही-सही कसर आयकर विभाग के बाबू निकाल ही देगें।

“मैं देश नहीं झुकने दूंगा” और “अच्छे दिन” के वायदे के साथ आई सरकार ने अपना आधे से ज्यादा समय गुजार लिया है। इसमें दो राय नहीं कि इन दिनों में प्रधानमंत्री प्रायः अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खियों में रहे और लोगों में राजनीतिक चेतना जगाने में उनका खास योगदान है। या यह कहें कि प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द भी खबरें बनती हैं, यह अरसे बाद उन्होंने साबित किया है। छुट्टियों के दिन रविवार को भी मन की बात जैसे आयोजनों या किसी रैली के बहाने टीवी पर राजनीतिक दृष्टि के खाली दिनों में भी काफी जगह घेर ही लेते हैं। उनका चतुर और चालाक मीडिया प्रबंधन या चर्चा में रहने का हुनर काबिले तारीफ है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर इंदिरा जी ने राष्ट्रीय राजनीति में खुद के होने को साबित किया था और एक बड़ी छलांग लगाई थी, नोटबंदी के बहाने भी नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह बदल दिया। हालात यह हैं कि संसद नोटबंदी के चलते नहीं चल सकती। सरकार के ढाई साल के कामकाज किनारे हैं। पूरा विपक्ष नोटबंदी पर सिमट आया है। नोटबंदी के अकेले फैसले से नरेंद्र मोदी ने यह बता दिया है कि सरकार क्या कर सकती है। इससे उनके मजबूत नेता होने की पहचान होती है, जिसे फैसले लेने का साहस है। आप देखें तो इस अकेले फैसले ने उनकी बन रही पहचान को एक झटके में बदल दिया है। सूट-बूट का तमगा लेकर और भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने कारपोरेट समर्थक छवि में लिपटा दिए प्रधानमंत्री ने अपनी विदेश यात्राओं से जितना यश कमाया उससे अधिक उन पर तंज कसे गए। यह भी कहा गया “कुछ दिन तो गुजारो देश में।” लेकिन विमुद्रीकरण का फैसला एक ऐसा फैसला था जिसे गरीबों का समर्थन मिला।

विपक्ष भी इस बात से भौंचक है कि परेशानियां उठाकर भी आम लोग नरेंद्र मोदी के इस कदम की सराहना कर रहे हैं। अपेक्षा से अधिक तकलीफों पर भी लोग सरकार की बहुत मुखर आलोचना नहीं कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार की चुनावी हार से सबक लेकर प्रधानमंत्री ने शायद समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े लोगों को साधने की सोची है। उनकी ‘उज्जवला योजना’ को बहुत सुंदर प्रतिसाद मिला है। इसके चलते उनके अपने दल के सांसद अपनी न पूरी होती महत्वाकांक्षाओं के बावजूद भी खामोश हैं। अभी दल के भीतर-बाहर कोई बड़ी चुनौती खड़ी होती नहीं दिख रही है। मोदी ने स्मार्ट सिटी, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया जैसे नारों से भारत के नव-मध्य वर्ग को आकर्षित किया था किंतु बिहार और दिल्ली की पराजय ने साबित किया, कि यह नाकाफी है। असम की जीत ने उन्हें हौसला दिया और नोटबंदी का कदम एक बड़े दांव के रूप में खेला गया है।

जाहिर तौर पर एक गरीब राज्य उत्तर प्रदेश में इस कदम की पहली समीक्षा होगी। उत्तर प्रदेश का मैदान अगर भाजपा जीत लेती है तो मोदी के कदमों को रोकना मुश्किल होगा। विपक्षी दलों की यह हड़बड़ाहट साफ देखी जा सकती है। शायद यही कारण है कि सपा और कांग्रेस के बीच साथ चुनाव लड़ने को लेकर बात अंतिम दौर में हैं। काले धन के खिलाफ इस सर्जिकल स्ट्राइक ने नरेंद्र मोदी के साहस को ही व्यक्त किया है। नोटबंदी के समय और उससे मिली परेशानियों ने निश्चय ही देश को दुखी किया है। देवउठनी एकादशी के बाद जब हिंदू समाज में विवाहों के समारोह प्रारंभ होते हैं ठीक उसी समय उठाया गया यह कदम अनेक परिवारों को दुखी कर गया। इतना ही नहीं अब तक 125 से अधिक लोग अपनी जान दे चुके हैं।

कालेधन के खिलाफ यह जंग दरअसल एक आभासी जंग है। हमें लग रहा है कि यह लड़ाई कालेधन के विरूध्द है पर हमने देखा कि बैंक कर्मियों ने प्रभुवर्गों की मिलीभगत से कैसी लीलाएं रचीं और इस पूरे अभियान पर पानी फेर दिया। यह आभासी सुख, आम जनता को भी मिल रहा है। उन्हें लग रहा है कि मोदी के इस कदम से अमीर-गरीब की खाईं कम होगी, अमीर लोग परेशान होगें पर इस आभासी दुख के हमारे पास कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं। परपीड़न से होने वाला सुख हमें आनंदित करता है। नोटबंदी भी कुछ लोगों को ऐसा ही सुख दे रही है। इस तरह के भावनात्मक प्रयास निश्चित ही भावुक जनता की अपने नेता के प्रति आशक्ति बढ़ाते हैं। उत्तर प्रदेश का मैदान इस भावुक सच की असली परीक्षा करेगा, तब तक तो मोदी और उनके भक्त कह ही सकते हैं- “मैं ही, मैं हूं दूसरा कोई नहीं।”
(लेखक राजनीतिक विश्वलेषक हैं)

 



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