पार्टी से बड़ा व्यक्ति,कहीं तानाशाह तो नहीं?

खरी-खरी            Feb 11, 2017


 शैलेष तिवारी।
कभी संगठन में व्यक्ति हुआ करता था। जमाना बदला तो चाल चलन चरित्र भी बदलाव की बयार में बहने लगा। व्यक्ति अब पार्टी बन गए हैं। तानाशाही अंदाज में अब सत्ता और संगठन चल रहे हैं। बासंती हवाओं के बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति वोटों के पलाश को अपने अपने रंग देने में लगी है। व्यक्तिवाद की राजनीति से जाति वाद शुरू हुआ या जाति वाद से व्यक्तिवाद। यह अंदाज लगाना कुछ मुश्किल है लेकिन राजनीति के जानकार कयास लगाया करते हैं कि जातिवाद ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया। वो भी इतना कि उत्तरप्रदेश के इस बार के विधानसभा चुनाव पार्टीगत नहीं होकर व्यक्ति आधारित ज्यादा लग रहे हैं। पार्टी की रीति नीति से जुदा यूपी का चुनाव व्यक्ति से जुड़ा नजर आ रहा है झलक देख ले पहले।

बात केन्द्रीय सत्ता पर काबिज पार्टी की पहले करे। भाजपा ने यहाँ अपना सीएम उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। वरन पीएम के चेहरे को ही चुनावी मोहरा बना कर चुनावी समर लड़ रही है। ये भूलकर कि नोट बंदी से उपजी बेरोजगार मजदूरों की वापसी दूसरे प्रदेशों से यहीं हुयी है। जनता बैंकों की लाइन में अभी तक धक्के खा रही है। फिर सपा और कांग्रेस का गठबंधन भी अखिलेश और राहुल के चेहरों का मुखोटा पहने है। जो युवा विजन से उत्तम प्रदेश बनाने का सपना दिखा रहे हैं। मजे की बात यह है कि पूरे पांच साल तक राज करने वाला सीएम रैलियों में जन समूह से हाथ उठवा कर पूछ रहे हैं कि बताओ अच्छे दिन आ गए क्या? जनता कहती है नहीं और वो इसे अपनी सफलता में गिन रहे हैं।
पांच साल में अच्छे दिन नहीं ला सकने वाला अब वोट पाने के लिए अच्छे दिन लाने का वादा कर रहा है। कांग्रेस का राजकुमार साठ सालों का हिसाब माँगने वालों से साठ दिन का हिसाब मांग रहा है। गौरतलब है कि दोनों ही हिसाब नहीं दे पा रहे।

खैर बात यू पी की तीसरी ताकत यानि बसपा की। यहाँ का चेहरा बहन जी हैं। जो समाज को और खासकर देश को एक वर्ग संघर्ष की तरफ वोटों के लिए धकेलने में कोई परहेज नहीं करती। एक ताकत और है जो चौधरी की विरासत संभाल रही है और लोस चुनावों में भगवा रंग में रंगे अपनी जाति के समाज को अपनी तरफ खींच कर नतीजों के बाद की संभावित खिचड़ी का स्वाद लेंने को आतुर हैं। मुद्दा वही व्यक्तिगत चेहरे के लाभ लेने का।

उपसंहार में ये कहा जाए कि इस प्रकार बढ़ता व्यक्तिवाद भविष्य में लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। उत्तर सभवतः हाँ हो? लोकतंत्र तानाशाही में बदल जाएगा। इसका ताजा उदाहरण बीते नवबर में देश ने देखा भी है। नोट बंदी के रूप में। रिजर्व बैंक को हाशिये पर कर दिया गया। संसद को छोडो मंत्रिमंडल को ही विश्वास में नहीं लिया। योजना असफल रही तो ठीकरा फोड़ने के लिए बैंक के अधिकारी कर्मचारी मिल ही गए। जिन्होंने बिना किसी साप्ताहिक विश्राम के ओवर टाइम काम किया। दिन का चैन और रात की नींद हराम की। और तो और बजट भाषण में वित्तमंत्री ने देश की पूरी जनता को ही चोर साबित करने में कोई कोर कसर मात्र इसलिए नहीं छोड़ी कि काला धन ये पकड़ नहीं पाए या पकड़ना नहीं चाहते। कारण वही व्यक्तिवाद का हावी होना। अब उत्तर प्रदेश की राजनीति का वर्तमान दृश्य भी उसी तरफ इशारा कर रहा है। देखे भविष्य अपने गर्भ से क्या प्रसूत करता है?



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