हेमंत पाल।
भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता और न कोई मर्यादा। इसी भीड़ का बदला चेहरा है सडकों पर निकलने वाली रैलियाँ। कभी ये रैलियाँ राजनीतिक होती है, कभी धार्मिक तो कभी सामाजिक। इंदौर में एक ऐसी ही राजनीतिक रैली के उत्साह के कारण एक बच्चे की जान पर बन आयी। ज्ञान, शील, एकता और अनुशासन का दावा करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की रैली के कारण हुए ट्रैफिक जाम कारण एक बीमार बच्चे को अस्पताल पहुँचाना मुश्किल हो गया। क्योंकि, सत्ताधारी भाजपा से जुड़े इस छात्र संगठन के सामने पूरा जिला और पुलिस प्रशासन शरणागत था। इंदौर में ये पहली बार नहीं हुआ। इससे पहले भी एक घटना में बीमार की जाम में फंसने से मौत हो चुकी है।
दरअसल, ये समस्या सिर्फ इंदौर की नहीं है। प्रदेश के सभी छोटे-बड़े शहरों के वासियों को इस तरह की रैलियों से अकसर जूझना पड़ता है। कहने को इस तरह की रैलियों के लिए जिला प्रशासन ने गाइड लाइन बना रखी है! लेकिन, ये गाइड लाइन अकसर सत्ता की उँगलियों की कठपुतली बन जाती है। इंदौर में भी रैलियों के लिए गाइड लाइन तो है, पर उसका कभी पालन नहीं होता। कभी किसी नेता की रैली लोगों का रास्ता बंद कर देती है, कभी कोई धार्मिक यात्रा लोगों की दिनचर्या के आड़े आ जाती है! सवाल ये है कि प्रशासन की सारी कथित सख्ती इन शक्ति प्रदर्शन करने वाली भौंडी रैलियों के सामने दुबक क्यों जाती है?
रैलियों का चरित्र बड़ा विचित्र होता है। ये किसके लिए होती हैं, क्यों होती हैं और इससे क्या हासिल होता है? इसका कोई ठीक-ठीक मकसद सामने नहीं आ पाया। इस तरह की रैलियों से कौन प्रभावित होता है, इसे लेकर भी कोई अध्ययन शायद आजतक नहीं हुआ। ये बात सिर्फ राजनीतिक रैलियों के लिए नहीं, उन सभी राजनीतिक और धार्मिक संगठनों पर भी लागू होती है, जो रैलियों के पक्षधर हैं। सभाओं का तो मकसद साफ़ है कि अपनी बात कहने और विरोधी की आलोचना के लिए ये सबसे सशक्त माध्यम है। पर, सड़क पर भीड़ इकट्ठा करके उद्दंडता दिखाना महज भौंडे शक्ति प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं है।
ऐसे प्रदर्शनों से सिर्फ वे ही लोग खुश होते हैं, जो इसका हिस्सा होते हैं। बाकी तो सारे लोग इसके खिलाफ ही हैं! क्योंकि, सड़कें मंजिल तय करने और गंतव्य तक पहुँचने के लिए होती हैं, शक्ति प्रदर्शन के लिए कदापि नहीं। रैलियों के कारण वे सारे लोग प्रभावित होते हैं, जो इन सड़कों से गुजरते हैं। आखिर स्कूल जाने वाले बच्चों, एम्बुलेंसों, ऑफिस जाने वाले लोगों और सड़क से गुजरने वालों का इन रैलियों से क्या वास्ता? अब तो ये रैलियाँ हादसों का भी कारण बनती जा रही हैं।
हाल ही में इंदौर के पश्चिमी इलाके का बड़ा हिस्सा करीब तीन घंटे तक ऐसी ही राजनीतिक रैली का बंधक रहा। इसी रैली के कारण एक बच्चा मौत के मुँह में जाते-जाते बचा जो तेज बुखार के बाद बेहोश हो गया था। उसे अस्पताल ले जाना था, लेकिन, रैली के कारण ट्रैफिक जाम था। उस बच्चे को गोद में उठाए उसकी बुआ वाहनों की भीड़ के बीच से रास्ता देने की गुहार लगाती रही। लेकिन, न तो वहां तैनात पुलिसवालों ने कोई पहल की और रैली के आयोजकों ने।
ऐसे में कुछ संवेदनशील लोग सामने आए और उस बच्चे को वक़्त पर अस्पताल पहुँचाया। क्योंकि, हज़ारों उत्साही और उच्श्रृंखल युवाओं की भीड़ की वजह से चारों तरफ अराजकता का माहौल था। रैली में नारे लगाती भविष्य के नेताओं की भीड़ भी ये सब देखते हुए अपनी राह चलती रही। इस महिला की पीड़ा तो सामने आ गई। पर, शहर में जहां-जहां से ये रैली गुजरी, उस इलाके के लोग परेशान होते रहे। ये रैली एबीवीपी के देशव्यापी सम्मेलन की शुरुवात पर निकाली गई थी। देशभर से आए कार्यकर्ताओं को शहर की संस्कृति से परिचित कराने के लिए निकली इस रैली से शहर परेशान ज्यादा हुआ। पुलिस और प्रशासन को रैली की पूर्व सूचना भी थी। लेकिन, रैली शुरू होने के आधे घंटे में ही हालात बेकाबू हो गए।
आजकल हर शहर में ऐसी रैली निकलना आम बात है। कभी राजनीतिक पार्टियां, कभी धार्मिक संगठन तो कभी सांस्कृतिक रैलियों के कारण छोटे-बड़े शहर बंधक बन जाते हैं। व्यवस्था में लगे ट्रैफिक पुलिस के जवान प्रभावित लोगों को छोटी-छोटी गलियों में हकाल देते हैं। ये जाने बगैर कि क्या सडकों की भीड़ गलियों के रास्ते गंतव्य तक पहुँच सकेगी? नतीजा ये होता है कि सड़क पर रैलियों का उत्साह कुंचाले भरता है और गलियों में लोग गुत्थम-गुत्था होते रहते हैं। ये हर उस शहर की कहानी है, जो इस तरह की रैलियों की पीड़ा को झेलने के लिए अभिशप्त है।
इंदौर अकेला शहर नहीं है, जहाँ राजनीतिक पार्टियों और धार्मिक संगठनों की रैलियां निकलती हैं। करीब सभी शहर ऐसी रैलियों और प्रदर्शनों को भोगते हैं। लेकिन, इस सबके बीच आम लोगों की परेशानियों से किसी को सरोकार नहीं।प्रशासन भी सत्ता के जोर के सामने खुद को असहाय पाता है। रैलियों के रुस्तम सड़कों को जाम करना अपनी शान समझते हों, लेकिन एंबुलेंस, स्कूल बसों, ज़रूरतमंदों और अपने काम पर जाते लोगों को घंटों एक जगह पर रोक देना क्या ठीक है? इसे लेकर प्रशासन पर भी उंगलियाँ उठती हैं।
आखिर क्यों शहर के बीचों-बीच या फिर व्यस्ततम रास्तों में रैलियों की इजाजत ही क्यों दी जाती है? शहर की ट्रैफिक व्यवस्था को तोड़मरोड़ देने वाली इन रैलियों और प्रदर्शनों पर या तो रोक लगनी चाहिए या फिर रैलियां शहर के बाहर कम ट्रैफिक वाले रास्तों से होकर गुज़रें। ये संभव न हो तो प्रशासन इतनी मुस्तैद व्यवस्था करे कि रैली और गुजरने वाले लोग दोनों ही रास्तों से निकल सकें। जब रैली की आड़ में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता सड़क पर अपना जोश दिखाने उतरते हैं, तो लगता है जैसे पूरा शहर इनकी प्रजा है। आखिर एंबुलेंस, बीमार, स्कूल बस और आम आदमियों के सामने इस शोर-शराबे का क्या मतलब?
रैलियों और प्रदर्शनों की ख़बर सुनते ही लोगों के सामने से ट्रैफिक जाम में फंसने की आशंका उभरने लगती है। क्योंकि, इन रैली या प्रदर्शनों की विशालता और सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जाता है कि उसमें कितने लोग शामिल हुए? सड़कों पर कितना लंबा ट्रैफिक जाम लगा और लोग कितना परेशान हुए? इस तरह के आयोजन जनता के मुद्दे उठाने के नाम पर किए जाते हों, पर परेशान भी जनता ही होती है। ये एक तरह से राजनीतिक संवेदनहीनता का लिटमस टेस्ट है। इस तरह के आयोजनों के गर्भ में वीआईपी कल्चर और आम आदमी के बीच फर्क बताने वाला सोच है।
सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि नेता जब वोट मांगने आते हैं, तो वे आम आदमी के सबसे बड़े हितैषी होने का दावा करते हैं। लेकिन, वोट मांगने की प्रक्रिया में ही वे लोगों की ही मौत की वजह बन जाते हैं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि उनकी रैली की वजह से किसी की जान जा सकती है। क्योंकि, जब मरीज को ले जा रही एम्बुलेंस के पहिये थमते हैं, तो अंदर मरीज की साँसों के भी थमने का खतरा बढ़ जाता है।
वैसे भी हमारे देश में एंबुलेंस को रास्ता देने का कोई नियम नहीं है। एंबुलेंस को रास्ता देने की सोच ज़्यादातर लोगों में दिखाई नहीं देती। देश में एम्बुलेंस जैसे आपात वाहनों का रास्ता रोकने या रास्ता न देने पर अलग-अलग राज्यों में 500 रूपए से 2 हज़ार रूपए तक जुर्माने का प्रावधान है। शायद ही कोई इस नियम के बारे में जानता होगा। जानता भी होगा, तो इस कानून का सम्मान नहीं होता है। आम लोगों के लिए ये भले कानून हो, लेकिन संवेदनहीन नेताओं के लिए देश में कोई कानून नहीं होता! ऐसी तस्वीरें आम होती हैं, जब ट्रैफिक सिग्नल पर कोई एंबुलेंस रास्ता मिलने का इंतज़ार कर रही होती है। लेकिन, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। एंबुलेंस को रास्ता देना सभी की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है, जिसका अहसास होना भी बहुत ज़रूरी है। लेकिन, उससे भी ज्यादा जरुरी है आम आदमी की तकलीफों का ध्यान रखकर रैलियों से तौबा करना। ये सबक राजनीति के साथ धार्मिक और सामाजिक संगठनों के ठेकेदारों के लिए भी उतना ही जरुरी है। यदि ये लोग आसानी से काबू में न आएं तो प्रशासन का दायित्व बनता है कि वे नियम-कानून के चाबुक से रैलियों को सड़कों से धकेलकर सड़कों को आम लोगों के लिए खाली करवाए।
लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं।
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