सुधीर तैलंग के बहाने! क्या करेंगे आप इस दोगले सिस्टम का?

खरी-खरी, मीडिया            Feb 06, 2017


ममता यादव।

फानी दुनियां में हमेशा रहना किसे है जाना एक दिन सभी को है। ये इस दुनियां का कड़वा सच है। इस दुनियां का रवैया यही है जब आप जिंदा होते हैं तो पूछ—परख नहीं होती आपके मरने के बाद श्रद्धांजलियों का ढेर और ढेर सारी बातें। एक अकेले सुधीर तैलंग ही नहीं कर्इ् मीडियाकर्मियों के साथ ऐसा हुआ है, हो रहा है, होता रहेगा। जब वे किसी गंभीर बीमारी में घिरते हैं तो सरकार तो बहुत दूर की बात वे ही मीडिया घराने कभी हाथ आगे नहीं बढ़ाते जिनके लिये वह मीडियाकर्मी दिन—रात खपता रहता है। कार्टूनिस्ट चंद्रशेखर हाडा ने जैसे सुधीर तैलंग को श्रद्धांजली देने में कलेजा निकालकर रख दिया। जाहिर किया उसी टीस को उसी कसक को जो कुछ दिन पहले डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी ने अपने लेख में व्यक्त की थी। स्वर्गीय तैलंग का परिवार बहुत मुश्किल दौर से गुजरा। जिसका अंदाजा आपको श्री हाडा की इस क्लिप में हो जायेगा।

 

 

 सुधीर जी की बीमारी में 50 लाख खर्च हुआ और राजस्थान और केंद्र सरकार ने महज कुछ हजार के चेक भेजे जिन्हें सुधीर जी ने वापस कर दिया। अभी तक इस बात का कहीं जिक्र नहीं आया कि उनका साथ देने कोई मीडिया घराना आगे आया हो। जिन मीडिया हाउसों में सुधीर जी ने काम किया वे कोई छोटे—मोटे भीड़ में गुम हो जाने वाले नाम नहीं थे। एकाध अंश या झलक आपको डॉ.हिंदुस्तानी की इन लाईनों में भी मिल जायेगी। नजर डालिए। ये उस आर्टीकल की लाईन्स हैं जो कुछ समय पहले ही उन्होंने लिखा था:— सुधीर तैलंग के पास बड़े नेताओं, मीडिया टायकून और मशहूर शख्सियतों की महानता (और नीचता) दोनों के सैकड़ों किस्से हैं। महान माने जाने वाले कई संपादकों को उन्होंने दिगम्बरावस्था में देखा है। कैसे उन्हें पद्मश्री मिलने पर महान संपादक को मिर्ची लगी और वह संपादक ईर्ष्यावश नीचता पर उतर आए, कैसे एडिटोरियल मीटिंग में वे सरताज बन गए, कैसे महान कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण ने टाइम्स के प्रकाशनों में उनके कार्टून छपने पर ‘नौटंकी’ की और उन्हें छापने से रोका। ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के वक़्त उन्होंने डॉक्टरों से कहा था – आप मेरे ब्रेन से ट्यूमर निकाल सकते हो, ह्यूमर नहीं। पिछले साल उनके कार्टूनों की नुमाइश इण्डिया हेबिटेट सेंटर में लगी, जिसमें आडवाणी भी थे और येचुरी भी, स्पीकर मैडम भी थीं और केजरीवाल भी। खतरनाक बीमारी से जूझ रहे सुधीर के इलाज का खर्च कोई सरकार, कोई मीडिया हाउस, घराना नहीं उठा रहा। परिवार पर हर तरफ दबाव है। इतने महान कार्टूनिस्ट के लिए उन्हें आगे आना ही चाहिए। तो कुलमिलाकर यह कि मीडिया के लोगों को मीडिया के लोगों के लिये ही आगे आना होगा। वरना ऐसे ही कूचियां कलमें खामोश होती रहेंगी। लेकिन अफसोस मीडिया के लोग ही मीडिया को गरियाने में ज्यादा व्यस्त और मस्त होते हैं। मजीठिया लागू हो जाये तो समझिये दुनियां पलट गई। कई मीडिया संस्थानों में तो सालाना इंक्रीमेंट ही नहीं लगते और समय पर वेतन ही नहीं मिलता। मीडिया में मुखरता की अगर यही कीमत किसी मीडियाकर्मी को चुकानी है तो बेहतर शायद यही हो कि वह वही करे, लिखे, दिखाये जो मालिक या सरकार चाहती है वरना तो ऐसी मौतें आम थीं,आम हैं,आम रहेंगी। क्या करेंगे आप इस दोगले सिस्टम का? सुधीर तैलंग के सर्वथा,सटीक,सदाबहार कार्टून गज़ब की हिम्मत,संघर्ष के जज्बे की मिसाल, मुखर अभिव्यक्ति के कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग



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