पुण्य प्रसून बाजपेयी।
10 करोड़ से ज्यादा बीजेपी सदस्य, 55 लाख 20 हजार स्वयंसेवक, देश भर में 56 हजार 859 शाखायें। 28 हजार 500 विद्यामंदिर।,2 लाख 20 बाजार आचार्य, 48 लाख 59 हजार छात्र, 83 लाख 18 हजार 348 मजदूर बीएमएस के सदस्य, 589 प्रकाशन सदस्य, 4 हजार पूर्ण कालिक सदस्य, एक लाख पूर्वसैनिक परिषद,6 लाख 85 हजार वीएचपी-बंजरंग दल के सदस्य। यानी देश में सामाजिक-सांगठनिक तौर पर आरएसएस के तमाम संगठनों और बीजेपी का राजनीतिक विस्तार किस रुप में हो चुका है, उसका ये सिर्फ एक नजारा भर है। क्योंकि जब देश में राजनीतिक सत्ता के लिये सामाजिक सांगठनिक हुनर मायने रखता हो, तब कोई दूसरा राजनीतिक दल कैसे संघ-बीजेपी के इस विस्तार के आगे टिकेगा, ये अपने आप में सवाल है। क्योंकि राजनीतिक तौर पर इतने बड़े विस्तार का ही असर है कि देश के 13 राज्यों में बीजेपी की अपने बूते सरकार है, 4 राज्यों में गठबंधन की सरकार है और मौजूदा वक्त में सिर्फ बीजेपी के 1489 विधायक हैं तो संसद में 283 सांसद हैं। ऐसेमें ये सवाल हर जहन में घुमड़ सकता है कि संघ-बीजेपी का ये विस्तार देश के 17 राज्यों में जब अपनी पैठ जमा चुका है तो फिर आने वाले वक्त में कर्नाटक-तमिलनाडु और केरल यानी दक्षिण का दरवाजा कितने दिनों तक बीजेपी के लिये बंद रह सकता है।
फिलहाल सवाल चार हैं क्या पहला, क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी अर्थहीन हो चली है? दूसरा क्या हाशिये पर पड़े बहुसंख्यक तबके में जातिगत राजनीति खत्म हो चली है? तीसरा,बहुसंख्यक गरीब तबका मुख्यधारा से जुड़ने की आकांक्षा पाल चुका है? चौथा, राज्यों को केन्द्र की सरकार के साथ खड़ा होना ही होगा? यानी जो राजनीति मंडल से निकली, जिस राजनीति को अंबेडकर ने जन्म दिया, जो आर्थिक सुधार 1991 में निकले। सभी की उम्र पूरी हो चुकी है और अब नये सिरे से देश को मथने के लिये मोदी-भागवत की जोड़ी तैयार है। क्योंकि इनके सामने विजन सिर्फ अगले चुनाव यानी 2019 का नहीं बल्कि 2025 का है, जब आरएसएस के सौ बरस पूरे होंगे और सौ बरस की उम्र होते—होते संघ को लगने लगा है कि बीजेपी अब देश को केसरिया रंग में रंग सकती है। क्योंकि पहली बार उस यूपी ने जनादेश से देश के उस सच को ही हाशिये पर धकेल दिया जहां जाति समाज का सच देश की हकीकत मानी गई। इसीलिये 18-19 मार्च को कोयबंटूर में संघ की प्रतिनिधि सभा में सिर्फ 5 राज्यों के चुनाव परिणाम के असर से ज्यादा 2025 को लेकर भी चर्चा होने वाली है और इस खांचे में मुस्लिम कैसे खुद ब खुद आयेंगे, इसकी रणनीति पर चर्चा होगी।
तो क्या वाकई संघ-बीजेपी के इस विस्तार के आगे हर तरह की राजनीति नतमस्तक है। या फिर 2017 ने कोई सीख विपक्ष की राजनीति को भी दे दी है। क्योंकि 2014 में मोदी लहर में बीजेपी को 31 फीसदी वोट मिले और यूपी की सियासत को ही उलटने वाले जनादेश में बीजेपी को 39.7 फिसदी वोट मिले। यानी 2014 में 68 फिसदी वोट विपक्ष में बंटा हुआ था और यूपी में अगर मायावती भी अखिलेश राहुल के साथ होती तो कहानी क्या कुछ और ही हो सकती थी। क्योंकि मायावती को मिले 22.2 फिसदी वोट सिवाय बीजेपी को जिताने के अलावा कोई काम कर नहीं पाये। लेकिन विपक्ष के वोट मिला दे तो करीब 50 फिसदी वोट हो जाते। तो क्या वाकई अब भी ये तर्क दिया जा सकता है कि जिस तरह कभी गैर इंदिरावाद का नारा लगाते हुये विपक्ष एकजुट हुआ और इंडिया इज इंदिरा या इंडिया इज इंदिरा का शिगुफा धूल में मिला दिया। उसी तरह 2019 में मोदी इज इंडिया का लगता नारा भी धूल में मिल सकता है। या फिर जिस राजनीति को मोदी सियासी तौर पर गढ़ रहे हैं उसमें विपक्ष के सामने सिवाय राजनीतिक तौर तरीके बदलने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बचता नहीं है। क्योंकि कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण का रास्ता पकड़ा। मंडलवाद-अंबेडरकरवाद ने जाति को बांटकर मुस्लिम को साथ जोड़ा, लेकिन दलित-पिछडे-मुस्लिमों की सामाजिक-आर्थिक हालात और बिगड़ी।
तो क्या नये हालात में ये मान लिया जाये कि जैसे ही चुनावी राजनीति के केन्द्र में मोदी होंगे, वैसे ही वोट का ध्रुवीकरण मोदी के पक्ष में होगा। क्योंकि मोदी ने देश की उस नब्ज को पकड़ा, जिस नब्ज को राजनीतिक दलों ने सत्ता पाने के लिये वोट बैंक बनाया। तो ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि विपक्ष की वापसी तभी होगी जब मोदी से पैदा हुई उम्मीद टूट जाये। ध्यान दें तो कांग्रेस की राजनीति सियासी इंतजार पर ही टिकी है और मायावती से लेकर अखिलेश तक उन चार सवालों का राजनीतिक जवाब कोई नहीं ढूंढ़ पा रहा जिसे मोदी ने चुनावी भाषणों में हर जहन में पैदा दिया। पहला परिवारवाद, दूसरा जातिवाद, तीसरा भ्रष्टाचारवाद, चौथा तुष्टीकरण। विपक्ष कह सकता है बीजेपी भी इससे कहां मुक्त है लेकिन पहली बार समझना ये भी होगा कि मोदी ने अपने कद को बीजेपी से बड़ा किया है और सियासी राजनीति के केन्द्र में बीजेपी या संघ की राजनीतिक फिलास्फी नहीं बल्कि मोदी की राजनीतिक समझ है। लेकिन दिल्ली और यूपी की सत्ता पर काबिज होने के बाद नया सवाल यही है कि क्या जनादेश की उम्मीदपर बीजेपी खरी उतरेगी या उतरने की चुनौती तले मोदी की राजनीति बीजेपी में भी घमासान को जन्म दे देगी। क्योंकि यूपी का सच यही है कि उस पर बीमारु राज्य का तमगा है।
कमोवेश हर क्षेत्र में यूपी सबसे पिछड़ा हुआ है। तो क्या मौजूदा वक्त में 22 करोड़ लोगों का राज्य सबसे बड़ी चुनौती के साथ मोदी के सामने है और चुनौती पर पार मोदी पा सकते हैं। इसीलिये उम्मीद कहीं बड़ी है या फिर इससे पहले के हालातों को मोदी जिस तरह सतह पर ले आये उसमें हर पुरानी सत्ता रईसी करती दिखी इसीलिये जनता ने सत्ता पाने के पूरे खेल को ही बदल दिया। क्योंकि राज्य की विकास दर को ही देख लें तो अखिलेश के दौर में 4.9 फीसदी , तो मायावती के दौर में 5.4 फीसदी और मुलायम के दौर में 3.6 फीसदी । यानी जिस दौर में तमाम बीमारु राज्यो की विकास दर 8 से 11 फीसदी के बीच रही तब यूपी सबसे पिछड़ा रहा और खेती या उद्योग के क्षेत्र में भी अगर बीते 15 बरस के दौर को परखें तो खेती की विकास दर मुलायम के वक्त 0.8 फीसदी , तो मायावती के वक्त 2.8 फीसदी और अखिलेश के वक्त 1.8 फीसदी और उघोग के क्षेत्र में मुलायम के वक्त 9.7 फीसदी मायावती के वक्त 3.1 फिसदी , अखिलेश के वक्त 1.3 फिसदी है। यानी चुनौती इतनी भर नहीं है कि यूपी के हालात को पटरी पर कैसे लाया जाये? इसके उलट यूपी को उम्मीद है कि करीब 8 करोड़ गरीबों की जिन्दगी कैसे सुधरेगी? जाहिर है हर नजर दिल्ली की तरफ टकटकी लगाये हुये है, क्योंकि एक तरफ देश में प्रति व्यक्ति आय 93231 रुपए है,जबकि यूपी में यह आंकड़ा महज 44197 रुपए है। देश की 16 फीसदी से ज्यादा आबादी होने के बावजूद यूपी का जीडीपी में योगदान महज 8 फीसदी है।
दरअसल, सच यह है कि बीते 20 साल में यूपी का आर्थिक विकास किसी सरकार की प्राथमिकता में रहा ही नहीं। लेकिन मुद्दा सिर्फ आर्थिक विकास का नहीं है। ह्यूमन डवलपमेंट के हर पैमाने पर यूपी फिसड्ड़ी है। यानी गरीबों-दलितों-वंचितों की बात करने वाली हर सरकार ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में उन्हीं के आसरे सत्ता हासिल की,लेकिन गरीबों को मिला कुछ नहीं। आलम ये कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि यूपी के 44 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति सार्वजनिक खर्च गोवा और मणिपुर जैसे राज्यों से भी कम है। शिशु मृत्यु दर देश के औसत से कहीं ज्यादा है यानी किसी भी पैमाने पर यूपी की छवि विकासवादी सूबे की नहीं रही और इन हालातों में जब यूपी के जनादेश ने सियासत करने के तौर तरीके ही बदलने के संकेत दे दिये हैं तो भी जिन्हें जनता ने अपनी नुमाइन्दगी के लिये चुना है उनके चुनावी हफलनामे का सच यही है कि 402 में से 143 विधायकों का आपराधिक रिकॉर्ड है और इनमें 107 विधायकों पर तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यूपी अब इंतजार कर रहा है कि उसका मुखिया कौन होगा? उत्तरप्रदेश के सीएम के लिये फार्मूले तीन है। पहला कोई कद्दावर जो यूपी का सीएम हो जाये, दूसरा यूपी का दायित्व कई लोगों में बांटा जाये, तीसरा, यूपी पूरी तरह पीएमओ के रिमोट से चले। इन तीन फार्मूलों के अपने अंतर्विरोध इतने हैं कि अभी नाम के एलान का इंतजार करना पड़ेगा।
क्योंकि कोई कद्दावर नेता दायित्वों को बांटना नहीं चाहेगा। दायित्वों को बांटने का मतलब दो डिप्टी सीएम और रिमोट का मतलब पीएमओ में नीति आयोग की अगुवाई में तीन से पांच सचिव लगातार काम करें। यानी संघ और बीजेपी का सामाजिक राजनीतिक विस्तार चाहे देश को केसरिया रंग में रंगता दिखे लेकिन सच यही है कि लोकतंत्र का राग चुनावी जीत तले अकसर दब जाता है और यूपी सरीखा जनादेश लोकतंत्र को नये तरीके से गढ़ने के हालात भी पैदा कर देता है।
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