ऋतुपर्ण दवे।
विजय माल्या ने शराब कारोबारी से उद्योगपति की बनने की चाह में, फरेबी पंखों से यूं उड़ान उड़ी कि चुटकियों में देश को 9 हजार 400 करोड़ रुपए का चूना लगा दिया। शराब कारोबारी को भारत में अच्छी निगाह नहीं देखते सो दूसरी ओर रुख किया। 28 साल की उम्र में पिता विट्ठल माल्या की विरासत संभालने वाले विजय ने देश के बेहतर प्रबंधकों को चुना और पहले शराब कारोबार को कॉर्पोरेट का दर्जा दिलाया फिर उद्योगपति कहलाने, धड़ाधड़ नई कंपनियां खरीदने का शगल पालने की चूक कर बैठे। स्वाभाविक है घाटा होना था, हुआ लेकिन फिर भी खुद को डिफॉल्टर कभी नहीं माना और कहता रहा, कोई निजी कर्ज नहीं लिया तो दिवालिया या चूककर्ता कैसा?
अलबत्ता कई कानूनों खामियों-कमियों का भरपूर फायदा उठाया और संभव है कि साजिशन तमाम कंपनियों की बिना पर भारी भरकम कर्ज लेने से गुरेज नहीं की। शायद पता था कि कंपनी डूबने पर उसका व्यक्तिगत कुछ बिगड़ने वाला नहीं। अब भले ही प्रत्यर्तन की प्रक्रिया शुरू होने की खुशफहमीं भारत पाल ले लेकिन बड़ी हकीकत यह कि राह इतनी आसान भी नहीं। भारतीय विदेश मंत्रालय की प्रत्यर्पितों की सूची जो 2002 से 7 दिसंबर 2016 तक यानी 14 वर्षों की है, में दुनिया भर से 61 खूंखार अपराधियों को लाए जाने का ब्यौरा है।
विडंबना, ब्रिटेन से 24 वर्षों में केवल एक, गुजरात के समीर भाई वीनू भाई पटेल का ही प्रत्यार्पण हो पाया वह भी उसके विरोध न किए जाने पर। जबकि भारत के 57 भगोड़े जो आतंकवादी, गबनकर्ता, साजिशकर्ता, धोखाधड़ी के अपराधी और न जाने कितने जुर्मों के दोषी, ब्रिटेन में आलीशान जिन्दगी जी रह रहे हैं। अब 15 भगोड़ों को प्रत्यार्पित करने का भारतीय अनुरोध विचाराधीन है। इनमें विजय माल्या, ललित मोदी, नदीम सैफी, रवीशंकरन, टाइगर हनीफ, संजीव चावला, सुधीर चौधरी शामिल हैं पर कितने और कब तक आ पाएंगे, कोई नहीं जानता। कारण साफ है, प्रक्रिया जटिल है।
अहम यह कि ‘भारत युनाइटेड स्पिरिट्स’ के पूर्व चेयरमैन और किंगफिशर कंपनी के मालिक विजय माल्या 2 मार्च 2016 को भारत से फुर्र होते ही, पासपोर्ट रद्द किया, गैर जमानती वारण्ट जारी हुआ, प्रत्यर्पण का आग्रह हुआ। लेकिन ब्रिटेन का जवाब था, वहां रहने के लिए वैध पासपोर्ट ज़रूरी नहीं फिर भी चूंकि माल्या पर गंभीर आरोप हैं, इसलिए वहां के गृह मंत्री अम्बेर रेड ने 22 सितंबर 2016 प्रत्यर्पण विचार पर हस्ताक्षर किए जिसे भारत बड़ी सफलता मान बैठा। ब्रिटेन की विश्व के 100 देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि है।
1992 में भारत से ‘बी’ श्रेणी की संधि हुई अर्थात प्रत्यर्पण पर निर्णय ब्रिटेन सरकार और अदालत मिलकर करेंगे। भारत को क्राउन ‘प्रॉसिक्यूशन सर्विस’ यानी सीपीएस को आग्रह का शुरुआती मसौदा सौंपने कहा जाएगा ताकि बाद में कोई कठिनाई ना हो। यह सब ब्रितानी विदेश मंत्री के उस निर्णय के बाद होगा जिसमें वो प्रत्यर्पण के आदेश देते हैं या नहीं अर्थात राजनीतिक दखल यहां भी। पेंच फिर भी है, यदि प्रत्यर्पित होने वाला व्यक्ति, प्रकरण विदेश मंत्रालय को भेजे जाने के खिलाफ है तो वह जज के निर्णय के विरुध्द अपील कर सकता है (शायद इसीलिए माल्या बारबार विरोध कर रहा है)। लेकिन यदि ब्रितानी विदेश मंत्रालय को लगता है, प्रत्यर्पित व्यक्ति को मृत्युदण्ड होगा तो प्रत्यर्पण से इंकार कर देगा। एक जटिलता और, विदेश मंत्रालय में प्रकरण जाने के दो महीनों में निर्णय नहीं हुआ तो आरोपी रिहा करने की गुहार लगा सकेगा। यद्यपि ब्रितानी विदेश मंत्री अदालत से निर्णय की पेशी बढ़ाने की गुहार कर सकते हैं लेकिन इस दौरान आरोपी को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार मिलता है। जाहिर है माल्या के लौटने की डगर कठिन है।
माल्या ने अपनी भारत में राजनीतिक महत्वकांक्षाएं भी पूरी की। आज भले ही सरकार और विपक्ष एक दूसरे पर आरोप मढ़ रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि 2002 में राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी और जनता दल (सेक्युलर) ने समर्थन देकर कर्नाटक से पहुंचाया जबकि दुबारा 2010 में, भारतीय जनता पार्टी और जद (एस) के समर्थन से फिर पहुंचा। अखिल भारतीय जनता दल के एक सदस्य के रूप में विजय माल्या ने, राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और वर्ष 2003 में सुब्रमण्यम स्वामी के नेतृत्व में उनकी जनता पार्टी में शामिल हुए। इससे पहले 2000 में सुब्रह्मण्यम स्वामी को जनता पार्टी ( मूल जनता दल का) के अलग गुट, के अध्यक्ष से हटाकर ख़ुद बने और कर्नाटक राज्य विधायी चुनाव में करीब सभी 224 पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट न जीत सके। रंगीन मिजाजी और विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले माल्या ने देश भक्ति दिखाने का भी खूब स्वांग रचा।
मार्च 2009 में अमेरिका के जेम्स ओटिस ने बापू के सामानों की नीलामी की तो माल्या ने इसे भारत की प्रतिष्ठा से जोड़ते हुए सभी वस्तुओं को 11 करोड़ में खरीद, खूब सुर्खियां बटोरीं। इसमें गांधीजी का एक चश्मा, जेब घड़ी, एक जोड़ी चमड़े की चप्पलें, एक कटोरी और पीतल की वह थाली, जिसमें महात्मा गांधी ने 1948 अपनी हत्या से पहले आखिरी बार भोजन किया था। इसी तरह 2004 में लन्दन में एक नीलामी में टीपू सुलतान की तलवार बोली लगाई और पांच लाख से अधिक पाउंड में भारत लाकर देशभक्ति की फिर मिसाल दिखाई।
विडंबना नहीं तो और क्या कहें जिस देश में लाख, पचास हजार के लिए किसान, बेरोजगार आत्महत्याएं कर रहे हैं, छोटे-मोटे लोन के दर-दर भटकते हैं वहीं देश का बड़ा कर्जदार लंदन में मैडम तुसाद म्यूजियम से दो घर छोड़ आलीशान कोठरी में उसी विलासिता से जी रहा है। यह हमारे तंत्र की नाकामी है या तंत्र को नाकाम बना दिया है? नहीं पता। अलबत्ता, एक महीने बाद जब ब्रितानी अदालती प्रक्रिया तेज होगी तब ही कुछ कह पाना मुमकिन हो पाएगा कि माल्या कितनी ऊंची उड़ान पर है।
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