सूर्यकुमार दुबे।
आज मीडिया के कुछ कथित पत्रकार जिन्हें खबर के अलावा कुछ नहीं दिखता, उनकी आत्मा मर चुकी है, केवल शरीर ही बचा है जिसे वह ढोते हुये फिर रहे हैं। घायलों की खबर लेने पहुँचते हैं और उन्हें जब पांचों के पांच केवल नॉर्मल घायल मिलते हैं तो दुखी होते हैं कि अब मुश्किल है कि इनमें से दो निपटें क्योकि जब दो निपटेंगे तभी खबर में दम आएगी, लेकिन अफ़सोस सोचा कुछ था मिला कुछ। जब तक भीड़ पर पुलिस लाठी चार्ज नहीं करती है तब तक कवरेज करने में आनंद नहीं आता है।
कुछ लोमड़ी बुद्धि वाले लोगों को उकसाने की ना कामयाब कोशिश भी करते हैं और कामयाब हो गए तो अपने साथियों से छाती ठोक कर बताते हैं कि कैसे एक समाचार को खबर में बदल दिया। किसी मासूम की मौत पर मातम मना रही माँ की बाईट मिल जाये तो मानो जीवन धन्य हो गया। माँ की छाती में भले ही आग लगी है लेकिन बाईट पाकर पत्रकार के सीने में बर्फ सी ठंडक है।
कौन मर रहा है और कौन मरने की तैयारी कर रहा है इसको कूड़े में फेंक अपने चश्मे में ये देखते हैं कि कौन उन्हें एक्सक्लूजिव खबर दे रहा है। कभी—कभी रात में ढो रहे इस शरीर में कुछ देर के लिए आत्मा आती है और कुछ पल के लिये ग्लानि होती है खबर तोड़कर परोसने की बात सोचकर और ख़ुशी होती है किसी को न्याय दिलाने में सफल होने पर। और दूसरे दिन फिर निकल पड़ते है बिना आत्मा के शरीर को लेकर किसी मृत बहन के भाई से शब्द उगलवाने के लिए, भले ही इसके लिए छीना झपटी करनी पड़े।
व्हाट्सएप ग्रुप से।
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