हेमंत कुमार झा।
आंदोलनों का अपना चरित्र होता है और वे कितने प्रभावी होंगे यह उनके चरित्र बल पर भी निर्भर करता है। रेलवे और सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य कर्मियों के आंदोलनों को इस कसौटी पर कस कर देखें तो आप समझ पाएंगे कि ये निस्तेज क्यों हैं।
किसी भी आंदोलन का चरित्र आंदोलनकारियों के वर्ग चरित्र से भी निर्धारित होता है।
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश या रेलवे की इकाइयों के निजीकरण वाया निगमीकरण के प्रस्तावों के खिलाफ सड़कों पर उतरने वाले लोगों का वर्ग चरित्र क्या है?
भारतीय राजनीति के कॉरपोरेटपरस्त होते जाने में इस वर्ग के राजनैतिक रुझानों की क्या भूमिका है? हाशिये पर धकेले जा रहे वंचित समुदायों के संघर्षों से इस वर्ग का कैसा रिश्ता है?
ये और ऐसे ही तमाम सवाल जब अपने जवाबों की तलाश करते हैं तो हमें इसका जवाब भी मिलने लगता है कि लखनऊ की सड़कों पर पेंशन के अधिकार के लिये नारे लगाते बाबू वर्ग की आवाजें अनसुनी क्यों हैं, स्थायी नियुक्ति की जगह ठेका प्रणाली के विरोध में उठती आवाजों की गूंज दूर तक क्यों नहीं जाती, सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की सत्ता और कारपोरेट की अनैतिक जुगलबन्दियों के खिलाफ कर्मियों का आक्रोश नपुंसक क्यों साबित हो रहा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार और सरकारी संस्थानों की स्थापना ने मध्य वर्ग के उदय में बड़ी भूमिका निभाई। स्थायी किस्म की नियुक्ति, निश्चित कार्य अवधि, नियमित और निश्चित वेतन, करियर में आगे बढ़ने के सुपरिभाषित नियम आदि ने निम्न मध्य और मध्य वर्ग के नौकरीपेशा लोगों को आश्वस्ति का एक मजबूत आधार दिया।
कुछ बड़े प्राइवेट संस्थानों में भी कर्मियों को ऐसी कानूनी सुरक्षाएं हासिल थीं जो उन्हें शोषण से तो बचाती ही थीं,उनकी सेवा को निरंतरता भी देती थीं।
आर्थिक विकास ने दुनिया भर में उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया। 1990 के बाद भारत में भी बरास्ते आक्रामक बाजारवाद, उपभोक्तावाद का एक नया दौर आया और इसका सबसे अधिक नकारात्मक असर निम्न मध्य और मध्यवर्ग के कामकाजी समूह के चरित्र पर पड़ा।
भारत में वर्गीय विषमता शुरू से ही चरम पर रही है और इसकी जटिल सामाजिक संरचना ने इस विषमता को अनेक आयामों में अभिव्यक्त किया।
उपभोक्तावाद ने इस विषमता को और अधिक एक्सपोज किया। कोई हैरत नहीं कि पढ़े-लिखे कामकाजी मध्यवर्गीय लोगों ने इस बढ़ती विषमता का कोई नोटिस तक नहीं लिया। वे आत्मकेंद्रित और सुविधाभोगी होते गए और निम्न वर्गीय लोगों के संघर्षों से उनका कोई लेना-देना नहीं रह गया।
नई सदी में आर्थिक विषमता नये आयामों तक पहुंचने लगी और इसका शिकार मध्यवर्ग भी होने लगा। सत्ता की आर्थिक नीतियों ने सम्पत्ति के संकेन्द्रण को तीव्र गति दी और भारत जैसे जटिल आर्थिक-सामाजिक संरचना वाले देश में आर्थिक विषमता की वृद्धि दर दुनिया में सर्वाधिक हों गई।
पिछली सदी के अंतिम दशक में ही मध्य वर्ग ने सरकारी शिक्षा के पतन को कोसते हुए अपने बच्चों का नामांकन निजी स्कूलों में कराना शुरू किया। यद्यपि, उनकी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इसमें खर्च होने लगा और उनकी आर्थिक कठिनाइयां बढ़ने लगीं, लेकिन, उनकी खुदगर्ज सोच में यह भाव शामिल था कि ढहती सरकारी व्यवस्था से निकल कर गुणवत्तापूर्ण निजी स्कूली शिक्षा में जाने से उनके बच्चे करियर की रेस में आगे निकल जाएंगे।
वे किन बच्चों से अपने बच्चों को आगे करना चाहते थे?
उन बच्चों से जो सामाजिक गतिहीनता और आर्थिक विपन्नता के कारण सरकारी स्कूलों में रह गए थे। मध्य वर्ग को इसका लाभ भी मिला। तमाम सरकारी नौकरियों में उनके बच्चों का अधिपत्य होता गया। यहां तक कि, आरक्षण का लाभ भी उन्हें अधिक मिला जो जाति के आधार पर तो आरक्षण के लाभार्थी थे, लेकिन आर्थिक-सामाजिक विकास क्रम में निम्न मध्य या मध्य वर्ग में शामिल हो चुके थे।
नतीजा, शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ इस देश में कोई प्रभावी आंदोलन जन्म नहीं ले सका। वंचित समूहों को अवसरों की मुख्यधारा से बाहर निकाल हाशिये पर डालने में मध्य वर्ग की मौन स्वीकृति ने व्यवस्था के नियामकों का काम आसान कर दिया।
कुछ ऐसा ही चिकित्सा के क्षेत्र में भी हुआ। जुकाम होने पर भी निजी क्लीनिकों की राह पकड़ने वाले मध्यवर्गीय नौकरीपेशा लोगों ने सरकारी चिकित्सा तंत्र की बदहाली का अधिक संज्ञान नहीं लिया। यद्यपि, बीमार पड़ने पर उनकी आमदनी का अच्छा-खासा हिस्सा निजी क्लीनिकों की भेंट चढ़ता रहा, लेकिन उन्होंने इसमें भी अपनी सुविधा ही देखी। उन्होंने उस विशाल वंचित तबके की कोई चिंता नहीं की जो अपनी विपन्नता के कारण सरकारी चिकित्सा प्रणाली के रहमोकरम पर ही निर्भर थे।
नतीजा, चिकित्सा के निजीकरण के खिलाफ भी इस देश में किसी प्रभावी आंदोलन ने जन्म नहीं लिया। महंगे निजी नर्सिंग होम्स की सुनियोजित लूट का शिकार होते रहने के बावजूद मध्यवर्गीय लोगों ने प्रतिरोध की कोई जमीन तैयार नहीं की। उनमें इतना आत्मबल भी नहीं था क्योंकि उपभोक्तावादी जीवन शैली ने उनकी संघर्ष चेतना को क्षरित करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी।
सड़कों पर उतर कर सत्ता की गलत नीतियों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने के लिये संघर्ष चेतना ही नहीं, चरित्र बल भी चाहिये। वर्गीय स्वार्थ और उपभोक्तावादी सोच में वर्गीय चरित्र का क्षरण होना ही था, हुआ भी।
कारपोरेटवाद अपनी सैद्धान्तिकी को वैधता और स्वीकार्यता दिलाने के लिये मनोवैज्ञानिक स्तरों पर भी सक्रिय रहता है। परसेप्शन का निर्माण इसका एक प्रभावी अध्याय है।
सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की दशा सुधारने के लिये किसी आंदोलन की बात तो दूर, उनकी लानत-मलामत में उलझा नौकरीपेशा मध्य वर्ग उस कारपोरेटवादी परसेप्शन का शिकार होने लगा जिसमें माना जाता है कि सरकारी संस्थाएं/कंपनियां स्वभाववश नाकारा होती हैं।
स्थितियों का विकास कुछ ऐसा हुआ कि विश्वविद्यालयों में कार्यरत लोग सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की तरफदारी करने लगे, रेलवे के कर्मी सरकारी कॉलेजों/विश्वविद्यालयों को कमजोर करने के कारपोरेटपरस्त सत्ता के प्रयासों की अनदेखी कर अपने को इन मुद्दों से असंपृक्त मानने लगे, सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को बर्बाद करने के व्यवस्था के षड्यंत्रों की अनदेखी कर लोग उनमें विनिवेश की नीतियों का समर्थन करने लगे।
अपनी नौकरी, अपनी सुविधा, अपना संस्थान...बस। इससे आगे देखने की, समझने की न फुर्सत रही लोगों में, न रुचि। लोकप्रिय परसेप्शन जो बनता गया सरकारी संस्थानों के विरुद्ध, खुद सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मी भी उसी मनोविज्ञान का शिकार होने लगे।
उदारीकरण ने मध्यवर्गीय लोगों की वैयक्तिक स्वतंत्रता को बेहतर स्पेस दिया और आर्थिक विकास ने उनकी संपन्नता बढाई। बढ़ती आर्थिक संपन्नता और विज्ञापनों ने उपभोक्ता के रूप में उनके लालच को निरन्तर बढाना जारी रखा। नतीजा, वे और अधिक आत्मकेंद्रित उपभोक्तावादी बनते गए। अपने माहौल से कट कर अपने में ही लिप्त।
ऐसा आत्मलीन वर्ग नवउदारवादी कारपोरेट संस्कृति के दीर्घकालीन षड्यंत्रों का न केवल आसान शिकार बनता है बल्कि वह उनका प्रवक्ता भी बन जाता है।
तो...निजीकरण के नुकसान सह कर भी भारतीय मध्यवर्ग निजीकरण का प्रवक्ता बन कर सामने आया। निम्न वर्ग के मेहनतकश समुदायों पर इसके भीषण दुष्प्रभावों से मध्यवर्ग को अधिक मतलब नहीं रह गया। संपन्न तबकों के लिये निजीकरण कुछ अतिरिक्त सुविधाएं तो लाता ही है। ये सुविधाएं महत्वपूर्ण हो गईं और सामूहिक चेतना पृष्ठभूमि में चली गई।
इसी सुविधाभोगी वर्ग के ड्राइंग रूम में राष्ट्रवाद, सम्प्रदायवाद आदि के मुद्दे भी अधिक मुखर होने लगे। टीवी के सामने बैठ कर एंकरों की प्रायोजित राष्ट्रवादी चीखों में उन्हें कर्कशता का भान नहीं, अपने भीतर उत्पन्न हो रहे उन्माद को तुष्ट करने का साधन मिलता था। निशाना अगर पाकिस्तान हो तो यह तुष्टि चौगुनी बढ़ जाती रही।
कारपोरेटवाद अपना सुनियोजित खेल कर गया। अब आप लकीरें पीट रहे हैं तो आप सिर्फ यही कर भी सकते हैं।
कौन नहीं जानता था कि नरेंद्र मोदी पुनः सत्ता में आएंगे तो रेलवे या सार्वजनिक क्षेत्र की अन्य इकाइयों में विनिवेश, निगमीकरण, निजीकरण का आक्रामक दौर नए सिरे से शुरू होगा। नीति आयोग जिसे 'रणनीतिक विनिवेश' कहता है वह दरअसल सरकारी संपत्ति को कारपोरेट के हाथों में औने-पौने दामों में बेचने के सिवा कुछ और नहीं है।
आपने "देश के लिये" वोट दिया, राष्ट्रवाद के लिये वोट दिया, हिंदुत्व के लिये वोट दिया। तो, अपने देश में 'हिंदुत्व और राष्ट्रवाद' के घालमेल से रची जा रही कारपोरेट संस्कृति के नग्न नृत्य का दृश्य देखने के लिये आपको तैयार रहना चाहिये।
जिन्होंने इन चुनावों में अपनी पसंदीदा सरकार बनवाने के लिये अरबों अरब रुपये खर्च किये थे उन्होंने ये रुपये हिंदुत्व की रक्षा के लिये नहीं लगाए थे, न ही राष्ट्र उनके एजेंडा में था। उनका एजेंडा जो था वह अब पूरा होने का वक्त आया है और यकीन मानिये, वे इसे पूरा करेंगे। वे सब कुछ खरीद लेंगे और फिर...और ताकतवर, बेहद, बेहद ताकतवर बन कर सामने आएंगे। सत्ता उनकी मुट्ठी में होगी, नीतियां उनके चरण पखारेंगी।
और हम-आप?
रेलवे का कर्मचारी रेलवे के निजीकरण के खिलाफ नारे लगाएगा, बैंक कर्मी बैंकों की बदहाली और विनिवेश के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे, विश्वविद्यालय कर्मी स्वायत्तता की आड़ में कैम्पसों के कारपोरेटीकरण के खिलाफ आवाजें उठाएंगे।
एक नागरिक के रूप में तो बीते दो-ढाई दशकों में गजब की सुप्त चेतना का परिचय दिया है आपने और...पिछले आम चुनाव में तो कमाल ही कर दिया। तो फिर...आप चाहे जितने नारे लगाएं, ऐसी स्थिति में न आप रेलवे को बचा पाएंगे, न बैंकों को, न शिक्षा संस्थानों को, न लाभ कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों को।
जिस विशाल किन्तु विपन्न देश के नागरिक शिक्षा और चिकित्सा को निजीकरण के षड्यंत्रों से नहीं बचा पाए, वे रेलवे या अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को क्या बचा पाएंगे।
हितों के अलग-अलग द्वीपों पर टुकड़ों में बंटे संघर्ष पराजित होने के लिये ही अभिशप्त होते हैं। खास कर तब...जब आपके संघर्षों को दूसरे लोग, आपके ही भाई बन्धु संदेह और व्यंग्य की नजरों से देखते हों। सामूहिक चेतना के ह्रास और वर्गीय स्वार्थ के उभार का हश्र भोगने के लिये सबको तैयार रहना होगा।
और नए मालिकों को सलाम करने के लिये भी सबको तैयार रहना होगा। समय आ रहा है कि जो आज भारत के राष्ट्रपति के अधीन कार्यरत हैं और इसकी गरिमा के साथ जीते हैं, उनमें से अधिकतर अब किसी मुनाफाखोर पूँजीपिशाच के अधीन होंगे। गरिमा और अधिकारों की परिभाषाओं को भूलने के लिये तैयार रहिये, गुलामी की आदत जल्दी ही लग जाएगी क्योंकि इसके सिवा और कोई रास्ता हमने खुद के लिये नहीं छोड़ा है।
लेखक पाटलीपुत्र यूविर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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