ओम थानवी।
श्रवण गर्ग का सम्पादक के नाते मैं सम्मान करता हूँ। उन्हें तब से जानता हूँ, जब वे अपने पूरे नाम (बाद में 'कुमार' का लोप हुआ) से प्रभाष जोशी जी के सम्पादन में निकले 'प्रजानीति' में काम करते थे। मित्रवर अनुपम मिश्र भी तब वहीं थे।
मगर आज श्रवणजी ने क्या लिख दिया, सुबह से समझने की कोशिश कर कर रहा हूँ।
टीवी की संगीत प्रतियोगिता में 'इंडियन आइडल' का ख़िताब सुयोग्य सलमान अली ने जीता। प्रेमलताजी ने ध्यान दिलाया तो मैंने भी उसका गायन तबीयत से सुना था। माना और मनाया कि वह जीते, क्योंकि उसकी गायकी आला दरज़े की थी।
वह ग्रामीण ग़रीब परिवेश और अल्पसंख्यक समुदाय से आता था, पर उसकी आवाज़ इतनी मक़बूल थी कि उसे ऐसे किसी पहलू से कोई सहानुभूति दरकार न थी।
लेकिन श्रवणजी ने 'भास्कर' में लिखा है - "भारत में रहने वाले अठारह करोड़ मुसलमानों का देश की असली आत्मा के प्रति अपने यक़ीन को और ज़्यादा पुख़्ता करने के लिए भी सलमान अली का 'इंडियन आइडल' बनना ज़रूरी था।"
संगीत के सिलसिले में "मुसलमान" आबादी? देश की "असली" आत्मा? उसके प्रति "यक़ीन" को पुख़्ता करने की ज़रूरत?
संगीत को तो संगीत की तरह सुनने दो, दोस्तो!
फेसबुक वॉल से।
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